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________________ अर्थ की प्रथम दृष्टि थी। धर्माचरण सम्बंधी दृष्टि- अशोक ने समाज में बहुत से दोष देखे, उन्हें देखकर ही समाज कर्त्तव्य को समझाया और कहा कि प्राणियों, ज्ञातिजनों, ब्राह्मण, श्रमणों आदि के अतिरिक्त माता-पिता की सेवा और स्थविरजनों की सुश्रूषा सबसे बड़ा धर्माचरण है । यह धर्माचरण धर्मशील व्यक्ति में रहता है । इसलिये धर्मानुशासन/धर्मपूर्वक अनुशासन सबसे प्रमुख आचरण है । धंमचरणे पि न भवति असीलस - अशील / क्षुद्रजनों की धर्माचरण में प्रवृत्ति नहीं होती है। इसलिये जो धर्माचरण की ओर प्रवत्त होता है, वह 'दुकटं करोति' - दुष्कर कार्य करता है। कठिन से कठिन कार्य करता है । 'सुकरं हि पापं ' पाप शीघ्र किए जा सकते हैं, ऐसा नहीं; अपितु पाप सहज रूप में मन, वचन और काय किसी भी रूप में हो सकते हैं। इसलिये धर्म का पालन कठिन है और पाप होना सहज है। इससे यह भी ध्वनित होता है कि आत्मकल्याण अत्यंत कठिन है । जैसाकि स्वयं अशोक की दृष्टि है— 'कलाणं दुकरं, यो आदिकरो कलाणस सो दुकरं करोति – सत्य है और स्वाभाविक है, इसी उद्देश्य ही धर्ममहामात्र / घोषित कर श्रमण-र - संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार किया । I विशिष्ट तिथियों पर करने योग्य कार्य — अशोक समग्र प्राणिमात्र का हितैषी था, इसलिये उसके छब्बीसवें वर्ष के अभिषेक के समय जो शिलालेख उत्कीर्ण कराया गया, उसमें जैनधर्म की अष्टमी, चतुर्दशी एवं पञ्चदशी तिथियों का विशेष उल्लेख है । इससे यह बात सहज अनुमानित की जाती है कि सम्राट् अशोक ने श्रमण-संस्कृति की उक्त प्रचलित तिथियों को ध्यान में रखकर प्रत्येक माह इन तिथियों पर 'आरंभ करने' का विशेष रूप से निषेध किया। ये ही तिथियाँ जैनधर्म की विशेष पर्वकालिक तिथियाँ मानी गई हैं । ये माह में छह, पक्ष में तीन आती हैं । 'प्रतिपदा' की तिथि भी पार्विक तिथि है, उस पर भी आरंभ को वर्जित किया । एक ओर जहाँ पाक्षिक तिथियों का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर यह भी संकेत किया गया कि केवल चातुमार्सिक तिथियों अर्थात् वर्षावास की तिथियों में हिंसक कार्य नहीं किये जायें, अपितु वर्ष के वर्षाकाल, शरदकाल और ग्रीष्मकाल में पड़नेवाली तिथियों में भी हिंसक कार्य का पूर्ण निषेध किया गया है । जीव समुदाय एवं जीव जगत् की व्यापक जीवंतता का मौलिक चिन्तन इससे बढ़कर और क्या हो सकता है कि जितने भी पशु-पक्षी या अन्य प्राणी हैं, वे जीने का अधिकार रखते हैं । " भारत के सीमान्त से विदेशी सत्ता को सर्वथा पराजित करके भारतीयता की रक्षा करनेवाले सम्राट् चन्द्रगुप्त ने जैन आचार्य श्री भद्रबाहु से दीक्षा ग्रहण की थी। उनके पुत्र बिम्बसार थे। सम्राट् अशोक उनके पौत्र थे । कुछ दिन जैन रहकर अशोक पीछे बौद्ध हो गये थे । " - ( श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार, 'कल्याण' मासिक, पृष्ठ 864, सन् 1950 ) प्राकृतविद्या - अप्रैल-जून 2000 1049
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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