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________________ सम्राट अशोक की जैनदृष्टि -डॉ० उदयचंद्र जैन यह तो सर्वविदित एवं सर्वमान्य है कि अशोक मात्र एक सम्राट ही नहीं, श्रमण एवं ब्राह्मण संस्कृतियों के संरक्षक भी थे। उसके प्रत्येक शिलालेख इस बात के साक्षी हैं और यह प्रतिपादित करते हैं कि सम्राट अशोक ने अपने दृष्टिकोण को श्रमण संस्कृति के सिद्धान्तों पर विशेष रूप से केन्द्रित किया। वे महान् विचारक थे, यह लिखने या कहने की आवश्यकता नहीं; पर जो भी अभिलेख प्राप्त होते हैं, उनमें निम्न दृष्टियाँ हैं• सामाजिक दृष्टि - समाज के श्रमण, ब्राह्मण, स्थविर आदि के उत्थान, सेवा आदि की दृष्टि । • वैचारिक दृष्टि - जनचेतना, जन प्रतिनिधित्व एवं जन-जागरण आदि का संदेश। • धार्मिक दृष्टि - मैत्री, करुणा, जीवदया एवं उनके जीवन के उन्नयन आदि के लिये विशाल दृष्टि। • जीवन मूल्यपरक दृष्टि - जीने का समान अधिकार आदि। • भाषात्मक दृष्टि - भाषा की प्रियता में प्राकृत और उसमें भी शौरसेनी प्राकृत के प्रति लगाव। भारतीय विचारकों के मत अशोक सम्राट के विषय में विविध हो सकते हैं, पर यह सर्वत्र कहा गया कि वह श्रमण-संस्कृति का समादर करता है। ‘साईंस ऑफ कम्परेटिव रिलीजन' में मेजर जनरल श्री सी०आर० फरलांग कथन करते हैं कि जैन और बौद्ध धर्म' के मध्य राजा अशोक इतना कम भेद देखता था कि उसने सर्वसाधारण में अपना बौद्ध होना अपने राज्य के 12वें वर्ष में कहा था। इसलिये करीब-करीब उसके कई शिलालेख 'जैन सम्राट् के रूप में हैं। गिरनार शिलालेख की दृष्टि- गिरनार शिलालेख के प्रथम अभिलेख में जो पूर्ण मांस-भक्षण का निषेध है, वह यह भी दर्शाता है कि जो समाज बृहद् है, उसके बृहद् भोज में हजारों प्राणियों का आरंभ किया जाता था, उसे रोकने का पूर्ण निषेध किया।' उनके द्वारा प्रयुक्त 'महानसम्हि' शब्द से यह भी ध्वनित होता है कि जो भी आरंभ था, वह उस समय महानस - महान+अस (बड़े-बड़े भोज) में विशेष रूप से होता था। उसे रोकना 100 48 प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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