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________________ 12. अकार से परे 'इ' और 'ए' हों, तो उनके स्थान पर दे' और ये', दोनों आदेश होते हैं । यथा— अच्छदे, अच्छदि, गच्छदे, गच्छदि, रमदे, रमदि, विज्जदे, किज्जदि । 13. शौरसेनी में 'तस्मात्' के स्थान में 'ता' आदेश होता है । यथा— ता जाव पविसामि, ता अलं एदिणा भाणेण । 14. शौरसेनी में 'एव' के अर्थ में 'य्येव' निपात प्रयुक्त होता है । यथा - मम य्येव बम्भणस्स, सोय्येव एसो । 15. चेटी के आह्वान अर्थ में शौरसेनी में 'हंजे ' निपात का प्रयोग होता है । यथा —हंजे चडुरिके ! 16. शौरसेनी में 'ननु' के अर्थ में 'णं' निपात प्रयुक्त होता है । यथा—णं अफलोदया, णं अय्यमिस्सेहिं । -"ही - ही भो । ” 17. शौरसेनी में हर्ष के लिये 'अम्महे' का प्रयोग होता है । 18. विदूषक हर्ष के लिये 'ही - ही' का प्रयोग करता है । यथा - " 19. कहीं 'त्' का 'ड्' होता है । यथा—- - पुत्रः > पुत्तो, पुडो । 20. शौरसेनी में 'ऋकार' का 'इकार' होता है । यथा— 21. शौरसेनी में ण्य, ज्ञ, न्य के स्थान में ण्ण होता है । यथा— पण्यः, विज्ञ, कन्या के — गृधः>गिद्धो । स्थान पर पण्णो, विण्णो, कण्णा । 22. शौरसेनी में 'कृञ्' धातु को 'कर' आदेश होता है । यथा- —करोमि> करेमि । 23. शौरसेनी में 'तिङ्' के परे 'स्था' का चिट्ठ' आदेश होता है । यथा — चिट्ठदि > तिष्ठति । 24. शौरसेनी में 'तिङ्' के परे 'स्मृ, दृश्, अस्' धातुओं के 'सुमर, पेक्ख, अच्छ' आदेश होते हैं । यथा - सुमरदि, पेक्खदि, अच्छदि । 25. शौरसेनी में 'स्त्री' के स्थान में 'इत्थी' आदेश होता है । यथा - स्त्री इत्थी । 26. 'जस्' सहित 'अस्मद्' के स्थान पर 'वअं, अम्हे' होते हैं । यथा— अं, अम्हे । 27. शौरसेनी में 'कृ' और 'गम्' धातुओं से परे आने वाले 'क्त्वा' के स्थान में 'अडुअ' आदेश विकल्प से होता है । यथा— कृत्वा कडुअ, गत्वा > गडुअ । I 28. शौरसेनी में 'इत्' और 'एत्' के परे होने पर अन्त्य मकार के आगे णकार का आगम विकल्प से होता है। यथा— जुत्तणिमं, सरिसणिमं, किण्णेदं ( किमेदं), एवणेवं (एवमेदं) । 29. शौरसेनी में नपुंसकलिंग में वर्तमान शब्दों से परे आने वाले 'जस्' और 'शस्' के स्थान में 'णि' आदेश और पूर्व स्वर का दीर्घ होता है । यथा – वनानि - वाणि, धनानि > धणाणि 1 30. शौरसेनी में ‘तिङ्' प्रत्ययों के पर में होने पर भू धातु के स्थान पर 'भो' आदेश होता है । यथा - भवामि> भोमि । 31. विस्मय और निर्वेद अर्थों में शौरसेनी के 'हीमाणहे' निपात का प्रयोग होता है । यथा - हीमाणहे जीवंतवच्छा मे जणणी । - (साभार उद्धृत, 'पालि- प्राकृत संग्रह' चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, पृष्ठ 74-76) प्राकृतविद्या + अप्रैल-जून '2000 47
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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