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वैज्ञानिकों के माध्यम से पृथक् पृथक् नामकरण को प्राप्त हुआ ।
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है मानव- - सृष्टि का जितना महत्त्व है, उतना ही भाषा के विकास का भी महत्त्व डॉ॰ नेमिचन्द शास्त्री ने 'प्राकृतभाषा और साहित्य के आलोचनात्मक इतिहास' नामक पुस्तक में भाषा के विषय में कथन किया है कि “ मनुष्य के विकास के साथ-साथ वाणी का भी विकास हुआ है। अतएव आदिकाल में यदि भिन्न-भिन्न भाषायें आरंभ से ही विकसित हुई हों। यदि एक ही स्थान पर सुसंगठित रूप में मनुष्य, समुदाय का आर्विभाव माना जाये; तो आरंभ में एक भाषा का अस्तित्व स्वयमेव सिद्ध हो जाता है । परन्तु स्थान और कालभेद से ही भाषाओं में वैविध्य उत्पन्न होता है। तथ्य यह है कि मूलभाषा क थी, अनेक रूप में जैसी भी रही हो, पर भौगोलिक परिस्थितियों का आधार पाकर विकास व विस्तार के आधार को प्राप्त करती रही है ।
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जिनवाणी भाषा का स्वरूप क्या था? क्या है ? — यह एक प्रश्न सामने आया। यदि इस पर विचार किया जाता है, तो अर्थरूप में सर्वज्ञ अर्हत् प्रभु के वचन 'दिव्यध्वनि' को प्राप्त होते हैं, जो सभी को मान्य एवं प्रामाणिक हैं। साथ ही साथ वह वीतराग - वाणी समवशरण में समागत मनुष्य एवं सभी प्रकार के तिर्यञ्चों को भी समझ में आती है । सर्वज्ञ वीतराग की वाणी को 'जिनवाणी' के नाम से जाना जाता है, जिसे 'सर्वभाषात्मक' कहा जाता है। परन्तु सर्वभाषा गर्भित से यह अभिप्राय है कि जो भी दिव्य - देशना को सुनता है, वह चाहे अट्ठारह महाभाषाओं या सात सौ क्षुद्र भाषाओं से युक्त क्यों न हो, उसको अक्षर या अनक्षर सभी को समझ में आ जाते हैं । जो मूल दिव्यध्वनि है, उसमें अर्थ का समावेश है और उनके ही प्रमुख शिष्य गौतम गणधर सूत्रबद्ध करते हैं और आगे विकास और विस्तार करते-करते एक से अनेक भाषायें बनती जाती हैं। उन सभी भाषाओं के परिवार को क्षेत्रीय दृष्टि से भाषा वैज्ञानिकों ने बारह परिवारों में विभाजित किया । प्राकृतभाषा के परिवार को 'भारोपीय परिवार' में रखा गया और इस परिवार का भी विभाजन हुआ। क्षेत्रीय दृष्टि से 'आर्यभाषा' और 'आर्यभाषा' में भी स्थान विशेष के कारण शौरसेनी, अर्द्धमागधी, मागधी, पालि, पैशाची, चूलिका आदि नाम दिया गया । अतः भाषा क्षेत्रीय स्वरूप शौरसेनी आदि भी हैं ।
ध्यानरत - साधु
“ये व्याख्यान्ति न शास्त्रं न ददाति दीक्षादिकञ्च शिष्याणाम् । कर्मोन्मूलनशक्त ध्यानरतास्तेत्र साधवो ज्ञेयाः । । ”
(क्रियाकलाप ।। 5 ।। पृष्ठ 143 )
अर्थ:- जो मुनि न व्याख्यान देते हैं, न ही शास्त्र - रचना करते हैं, और न ही शिष्यों को दीक्षा आदि देते हैं; ऐसे कर्मों के विनाश में समर्थ ध्यानलीन (ज्ञानध्यानतपोरक्ता) पुरुषों को 'साधु' जानना चाहिये ।
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प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
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