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से विचलित होते हों, तो धर्म से प्रेम रखनेवाले धर्मात्मा बंधुओं को चाहिए कि उन्हें पुन: अपने सच्चे धर्म में श्रद्धायुक्त करें तथा धर्माचरण में स्थिर (दृढ़) कर दें। यह स्थितिकरण' अंग सम्यग्दर्शन का महत्त्वपूर्ण अंग है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कविवर पं० दौलतराम जी लिखते हैं
“धर्मी-सौं गो-वच्छ-प्रीति सम कर जिनधर्म दिपावै।
__इन गुनतें विपरीत दोष वस तिनको सतत खिपावै।।" अर्थ :- धर्मात्माजनों का यह कर्तव्य है कि वे प्रत्येक साधर्मी व्यक्ति के साथ गाय और बछड़े के समान नि:स्वार्थ सहज प्रीति रखें और जिनधर्म की प्रभावना करें। तथा इन नि:शंकितादि —प्रभावना-पर्यन्त आठ अंगों से विपरीत जो शंका-कांक्षा आदि आठ दोष कहे गये हैं, उन्हें निरन्तर दूर करते रहना चाहिए।
जैसे कोई किसान अन्न के उत्पादन के लिए खेती करता है। जब उसमें साथ-साथ यदि ‘खर-पतवार' भी उत्पन्न होते हैं, तो समझदार किसान निरन्तर निराई-गुड़ाई आदि के द्वारा उन खर-पतवारों का निवारण करता रहता है। और खाद-पानी से अनाज के पौधों को खुराक भी देता रहता है। इस प्रक्रिया से अनाज के पौधों को पूर्ण पोषण मिलता है, तथा अधिक मात्रा में स्वस्थ अनाज का उत्पादन होता है। उसीप्रकार चित्तशुद्धि की प्रक्रिया में अच्छाई को अपनाने एवं दोषों के निवारण का काम साथ-साथ चलता रहता है। सद्गुणों की प्रेरणा जहाँ चित्त को संस्कारित करती है, वहीं उसमें बसी दुर्भावनाओं की दुर्गन्ध को भी दूर करती है।
यह बात शासननायक तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के 2600वें जन्मोत्सव के पुनीत सन्दर्भ में प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह महोत्सव सम्पूर्ण जैनसमाज को जोड़ने के लिए एक
और महोत्सव है। साधर्मीवात्सल्य की भावना दृढ़ करने के लिए एवं वीतराग की धर्मप्रभावना का कार्य व्यापक स्तर पर करने के लिए यह एक सुअवसर आया है। ___ यह अवसर मात्र आयोजनप्रियता के लिए ही नहीं है। इस प्रसंग पर हमें अहिंसक जीवनपद्धति एवं स्वाध्याय का भी संकल्प लेना है। क्योंकि अहिंसा को अपनाये बिना आत्मानुशासन संभव नहीं होता है तथा आत्मानुशासन के बिना जीवन 'बिना ब्रेक की गाड़ी' के समान अपने और दूसरे – दोनों के लिए अहितकारी ही होता है। न केवल जैन-परम्परा में, अपितु वैदिक परम्परा में भी इस तथ्य को मुखर स्वीकृति प्रदान की गयी है- “अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् ।
वाक् चैव मधुरा-सुलक्षणा प्रयोज्या धर्ममिच्छता ।।" – (मनुस्मृति, 2/159) अर्थात् धर्म की इच्छा करनेवाले गुरु का कर्तव्य है कि वह शिष्यों को अहिंसा के द्वारा ही प्राणिमात्र का कल्याण करने की शिक्षा दे। और साथ ही यह भी सिखाये कि वे मधुर एवं कोमल वाणी का प्रयोग करें, ताकि धर्म की इच्छा करनेवाले सभी लोग उसकी
प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
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