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[सम्पादकीय
न धर्मो धार्मिकैर्विना
-डॉ० सुदीप जैन
कुछ नकारात्मक चिंतनवाले व्यक्ति भले ही धार्मिक एवं सामाजिक आयोजनों की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न अंकित करते रहें; किन्तु यह सुविदित एवं अनुभवसिद्ध तथ्य है कि इनकी व्यापक उपादेयता सदा से अक्षुण्ण रही है एवं रहेगी। वस्तुत: जैसे कोई पर्व या पारिवारिक उत्सव-प्रसंग आने पर सब लोगों को मिलने-जुलने, पारस्परिक संवादों के आदान-प्रदान एवं स्नेह-सौहार्द सुदृढ़ करने का अवसर मिलता है; इसीलिए ऐसे प्रसंग सोल्लास आयोजनपूर्वक मनाये जाते हैं। इसीप्रकार धार्मिक व सामाजिक पर्व भी धर्मानरागी समाज के मिलने, उनके पारस्परिक सौहार्द को सुदृढ़ करने तथा मनोमालिन्य दूर करके नये सिरे से धर्मप्रभावना के रचनात्मक कार्यों में जुटने का अवसर प्रदान करते हैं। इनके परिणामस्वरूप आत्मिक संस्कारों का प्रसार होता है तथा व्यक्ति आदर्श नागरिक बनकर अपना हित तो करता ही है, साथ ही समाज एवं राष्ट्र की भी उन्नति का माध्यम बनता है। ये अवसर आबालवृद्ध को एक नयी वैचारिक ऊर्जा प्रदान करते हैं, संस्कारों का बोध एवं प्रेरणा देते हैं और संगठन का महामंत्र भी सिखाते हैं।
यदि कोई व्यक्ति किसी भी प्रमाद आदि कारण से अच्छाई से दूर होकर उन्मार्गी हो रहा हो, तो ऐसे प्रसंग उसे पुन: समाज की मूलधारा में जुड़ने व सत्संस्कारों को अपनाने का अवसर प्रदान करते हैं। वस्तुत: जैनदर्शन में स्थितिकरण' एवं 'प्रभावना' नामक जो दो महत्त्वपूर्ण अंग 'सम्यग्दर्शन' के माने गये हैं, उनकी व्यावहारिक निष्पत्ति के लिए सामाजिक व धार्मिक आयोजनों का अत्यधिक महत्त्व है।
साधर्मीजनों को धर्ममार्ग में स्थिर करना एक महनीय कार्य है। परमपूज्य आचार्य समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं
"दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः। प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितिकरणमुच्यते।।"
-(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 1/16) अर्थात् जो साधर्मी श्रावकजन किसी भी कारणवश अपने यथार्थ श्रद्धान तथा आचरण
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प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000