________________
बात प्रीतिपूर्वक सुन सकें।
इसी दृष्टि से आगम-ग्रन्थों में तीन प्रकार की वाणी के प्रयोग की प्रेरणा दी है 1. प्रभुसम्मित, 2. सुहृद्सम्मित, 3. कान्तासम्मित। 'प्रभु' अर्थात् स्वामीजनों को जो प्रिय हों, ऐसे आदरयुक्त मर्यादित वचनों का प्रयोग 'प्रभुसम्मित' कहलाता है। विनम्रता के संस्कार इन वचनों से मिलते हैं। तथा 'सुहृद्सम्मित' वचन मैत्रीपूर्ण होते हैं, इनसे पारस्परिक माधुर्य, सौहार्द एवं अपनत्व की भावना बढ़ती है; ये 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना का प्रसार करते हैं। जबकि कान्तासम्मित' वचन स्त्रियों के मनोनुकूल मधुर कोमलकान्त पदावलि से युक्त एवं आत्मीयतापूर्ण होते हैं। इन तीनों प्रकार के वचनों की विशेषताओं को अपनी वाणी में समाहित करके यदि साधर्मीजन आपस में मिलेंगे व विचारों का आदान-प्रदान करेंगे; तो पारस्परिक सौहार्द व एकता की भावना को निश्चय ही बल मिलेगा तथा संगठितरूप से हमारी धर्मप्रभावना की शक्ति कई गुनी हो जायेगी।
फिर भी यदि कोई कमी रह जाये, तो उसकी पूर्ति हम स्वाध्याय' के महामंत्र से कर सकते हैं। किसी मनीषी ने कहा है कि 'अच्छाई सिखाने वाली पुस्तकों से बढ़कर मनुष्य का सच्चा मित्र अन्य कोई नहीं है।' स्वाध्याय के लिए हमारे आचार्यों और मनीषियों ने इतना विपुल परिमाण में ग्रंथों की रचना की है; किंतु आज हम मात्र उन्हें ढोक देकर (वंदन करके) ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मानने लगे हैं। किसी जैन उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है
"बस्ते बँधे पड़े हैं, अलमोफनून के।
चावल चढ़ायें उनको बस इतने काम के।।" अर्थ :- उच्च ज्ञान के ग्रंथ वेष्टनों में बंधे पड़े हुए हैं तथा हम उनको मात्र चावल चढ़ाकर प्रणाम करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं।
ये ग्रंथ पढ़ने-सीखने एवं जीवन में उतारने के लिए आचार्यों व मनीषियों ने लिखे थे। अत: हमें इन्हें पढ़ना चाहिए; जो कठिन हैं, उनका सरल प्रचलित भाषा में अनुवाद व संपादन कराके प्रकाशित करायें। आधुनिक सूचना-प्रौद्योगिकी का भी इस दिशा में अवश्य प्रयोग करना चाहिए। विद्वानों को इस कार्य में भरपूर प्रोत्साहन देकर प्रेरित करें। वीतराग धर्म की अन्तर्बाह्य प्रभावना के लिए यह अमोघ उपाय होगा।
यह 'अहिंसक युद्ध' का अवसर है, जिसमें हमें जी-जान से युद्धस्तर पर लगना तो है; किंतु किसी को चोट पहुँचाने के लिए नहीं, अपितु स्व-पर-कल्याण की भावना से, पूर्णत: समर्पित होना है। आइये ! हम इसे सही रूप में चरितार्थ करें। **
जीवन भर स्वाध्याय करें 'अहर्निश पठनपाठनादिना जिनमुद्रा भवति। -(बोधपाहुड, गाथा 19 टीका) अर्थ:-दिन-रात पढ़ने और पढ़ाने से 'जिनमुद्रा' की प्राप्ति होती है। **
008
प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000