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शौरसेनी प्राकृत में मध्यम 'क' के लिए सर्वत्र 'ग' होता है। जैसेकि 'आकाश' के लिए ‘आगास' (104)। इसीप्रकार 'अवकाश' के लिए ओगास (7), 'अवगास' (गा० 99 ), 'एकत्व' के लिए 'एगत्त', 'प्रकाशक' के लिए 'पगासग' (गा० 57 ), 'लोक' के लिए 'लोग' (70, 98, 101) जायदि ( गा० 86 ), परिणदं (91), 'साकार' के लिए 'सागार' इत्यादि ।
'शेषं शौरसेनीवत्' नियम के अनुसार प्राकृत के सभी नियम जो शौरसेनी प्राकृत में निर्दिष्ट हैं, उनका प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में देखा जाता है। अत: इसमें कोई सन्देह नहीं है कि प्राचीन दिगम्बर आगम-ग्रन्थों की रचना शौरसेनी में लगभग ई०पू० तृतीय शताब्दी के पश्चात् प्रथम आचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली के अनन्तर आचार्य गुणधर के 'कसायपाहुडसुत्त' से लिखित द्रव्यश्रुत की रचना आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य धरसेन के शिष्य पुष्पदन्त - भूतबली को प्राप्त हुई और वही अविकलरूप से शौरसेनी भाषा के माध्यम से प्रवर्तमान है।
'श्रुतपंचमी' के पावन पर्व पर पण्डितों, विद्वानों तथा स्वाध्यायी साधु-सन्तों का यह महान दायित्व है कि उस अखण्ड श्रुत की रक्षा का संकल्प कर तथा उस दिशा में प्रेरणा कर 'ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी तिथि' को सार्थक बनायें ।
सन्दर्भग्रंथ सूची
1. भगवत शरण उपाध्याय : गुप्तकाल का सांस्कृतिक इतिहास, लखनऊ, 1969, पृ० 379 2. डॉ० बी०एस०एल० हनुमन्थराव: रिलीजन इन आन्ध्रा, त्रिपुरसुन्दरी 1973, पृ० 10। 3. हरिदत्त वेदालंकार : भारत का सांस्कृतिक इतिहास, दिल्ली 1992, पृ० 99।
4. सत्यकेतु विद्यालंकार : प्राचीन भारत, मसूरी, 1981, पृ० 307
5. पुरुषोत्तमलाल भार्गव : प्राचीन भारत का इतिहास, दिल्ली 1992, पृ० 251 ।
6. द्रष्टव्य है - हम्पा नागराजय्या का लेख 'इन्फ्लुएन्स ऑफ प्राकृत ऑन कन्नड लैंग्वेज एण्ड लिटरेचर'। एन०एन० भट्टाचर्य (सं० ) : जैनिज्म एण्ड प्राकृत इन एन्शियेन्ट एण्ड मेडिकल इण्डिया, पृ० 114।
7. वाचस्पति गैरोला : भारतीय संस्कृति और कला, द्वि०सं०, लखनऊ, पृ० 334 ।
8. बालशौरि रेड्डी : तेलुगु साहित्य का इतिहास, हिन्दी समिति लखनऊ, द्वि०सं०, पृ० 23 । 9. रामास्वामी आयंगर : स्टडीज़ ऑफ साउथ इण्डिया इन जैनिज्म, 1922, मद्रास, पृ० 8-9 । 10. द क्लासिकल एज, भारतीय विद्याभवन, पृ० 325,418 ।
11. जी०ए० ग्रियर्सन : लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, जिल्द 1, भा० 1, दिल्ली । पुर्नमुद्रित
संस्करण 1967, पृ० 123 ।
12. सं० डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री : 'बारसाणुर्वेक्खा' की प्रस्तावना, पृ० 43 । 13. पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्ताचार्य : दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृ० 141।
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प्राकृतविद्या + अप्रैल-जून '2000