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________________ तीर्थंकर महावीर के सिद्धांतों की प्रासंगिकता जैनधर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान् महावीर अपने युग के महान् विचारक थे। वे युगद्रष्टा महापुरुष और श्रेष्ठ धर्मप्रवर्तक थे। जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर धर्म के संस्थापक न होकर मात्र धर्मप्रवर्तक होते हैं। तीर्थंकर महावीर' भी ऐसे ही धर्मप्रवर्तक थे, जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती 23 तीर्थंकरों की परम्परा को आगे बढ़ाया। वे चित्त की शुद्धता, आचरण की पवित्रता तथा इन सबसे ऊपर मानवता के प्रचारक थे। आत्महित के साथ लोकहित का उपदेश देना उनका वैशिष्ट्य था। उन्होंने दलित मानवता के उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने प्राणीमात्र के कल्याण की बात की। उनके सिद्धांतों में निहित सार्वजनीन एवं हितकारी भावनाओं के कारण ही समन्तभद्राचार्य जी ने उनके तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ' की संज्ञा दी है। उनके सिद्धांतों का प्रभाव सार्वत्रिक एवं सार्वकालिक है। वर्तमान भौतिकता के प्रति व्यामोह एवं आपाधापी के इस युग में तीर्थंकर महावीर के संदेश हमें दिशाबोध देने में समर्थ हैं। उनके सिद्धांत सुख-शांति की चाह में भटकती पीढ़ी को शांति का पान कराने में सक्षम हैं। महावीर' निर्ग्रन्थ थे, वे आंतरिक एवं बाह्य ग्रंथि (गांठ) से रहित थे। “जिसके भीतर और बाहर ग्रंथि नहीं रही, जो भीतर-बाहर स्वच्छ एवं निर्मल हो, जिसकी अहंता और ममता नि:शेष हो गई हो, वही 'निर्ग्रन्थ' कहलाता है।"' उनके विचार अहंकार और ममता से रहित (नि:शेष) व्यक्तित्व के विचार थे। उनकी सोच रचनात्मक थी, चूँकि 'विरोध से विरोध उत्पन्न होता है', अत: उन्होंने विरोधों में सांमजस्य की बात कही। उन्होंने स्वयं कभी किसी का विरोध नहीं किया और न ही किसी के विरोध या निषेध का विचार दिया। उन्होंने विरोधों में रचनात्मक रूप से समन्वयवादी दृष्टिकोण रखा, विध्वंसात्मक नहीं। जिसमें टकराव के स्थान पर आपसी सौमनस्य का भाव विद्यमान है। उन्होंने 'अनेकान्त' एवं 'स्याद्वाद' सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इन सिद्धांतों से हमें सहिष्णुतापूर्वक समन्वय का संदेश मिलता है। प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म (गुण) होते हैं, उसे अनेक दृष्टिकोणों से देखना व जानना 'अनेकान्त' है। रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में – “अनेकान्त चिन्तन की अहिंसामयी प्रक्रिया का नाम है। अत: चित्त से पक्षपात की दुरभिसंधि निकालो और दूसरे के दृष्टिकोण के विषय प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 40 31
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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