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________________ को भी सहिष्णुतापूर्वक खोजो । वह भी वहीं लहरा रहा है। 2 भगवान् महावीर ने 'अनेकान्त' सिद्धान्त का कथन करके विश्वधरातल पर 'सर्वधर्मसमभाव' का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया । 'स्याद्वाद' सिद्धान्त अनेकान्त - चिन्तन की अभिव्यक्ति की शैली है । अनेक धर्मात्मक वस्तु के कथन करने की समीचीन पद्धति है, जो सामंजस्य की द्योतक है । 'स्यात्' शब्द सापेक्षात्मक है । सर्वथा 'ही' के स्थान पर 'भी' शब्द को भी जोड़ता है। अपनी दृष्टि को विशाल, विचारों को उदार, वाणी को आग्रहहीन, निष्पक्ष एवं नम्र बनाकर अपना सद्- अभिप्राय प्रकट करना 'स्याद्वाद' है। ' वर्तमान में एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र से, एक राज्य को दूसरे राज्य से, एक समाज को दूसरे समाज से, एक परिवार को दूसरे परिवार से, यहाँ तक कि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से जो विरोध आपसी मतभेद, हठवादिता, मनमुटाव एवं टकराव का वातावरण बन रहा है, उसे महामना तीर्थंकर महावीर के 'समन्वयवादी' विचारों से ही रोका जा सकता है। तीर्थंकर महावीर के उपदेश 'सर्वकल्याण' की भावना से अनुप्राणित हैं। सभी प्राणियों के हित की भावना या कामना उनके संदेश का मूलभाव है। उनका भवकल्याणसंबंधी विचार विशेष वर्ग, जाति वर्ण, देश और समय की सीमाओं से परे है। उनका उपदेश सबके लिए है। उसमें सबके हित और सुख की भावना समाहित है। भगवान् महावीर श्रेष्ठ दार्शनिक थे । उन्होंने मानवीय सोच के कई नए मानदंड स्थापित किए। अहिंसा का दर्शन (विचार) उनमें से एक है। उन्होंने अहिंसा के विचार को विस्तृत फलक पर व्याख्यायित किया । यह विश्व का श्रेष्ठ दर्शन है । यह जाति, वर्ग, संप्रदाय से ऊपर उठा अत्यंत व्यापक विचार है। इसका मूल लक्ष्य मानव की व्यावहारिक धरातल की विषमताओं का शमनकर एक ऐसी जमीन को तैयार करना है, जिसमें केवल प्रेम और विश्वास की फसल लहलहा सके। उन्होंने 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का उद्घोष किया। उनका मानना था कि “प्रत्येक आत्मा में अमृतत्व की शक्ति प्रच्छन्नरूप से विद्यमान है। प्रत्येक आत्मा अपनी यह शक्ति प्रकट कर सकती है। एक आत्मा को सुख-दु:ख की जैसी अनुभूति होती है, वैसी ही अन्य आत्मा की भी होती है ।” आत्मिक जुड़ाव से अनुस्यूत 'जियो और जीने दो' उनका सूत्र - वाक्य था । तीर्थंकर महावीर ने अहिंसा की भावभूमि पर संस्थित 'सत्त्वेषु मैत्री' का संदेश दिया, जिसमें प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव रखने की भावना समाहित है । मन, वचन और काया (शरीर) से कुछ भी ऐसा मत करो, जिससे दूसरों को पीड़ा हो, उनका अकल्याण या अहित हो। वर्तमान में बढ़ती हुई हिंसक प्रवृत्ति, दया - रहित परिणाम, बैर-विरोध, घृणा, वैमनस्यता एवं अमानवीय सोच को अहिंसा की शक्ति (भावना) के द्वारा बदला जा सकता है। उनकी अहिंसा में प्रकृति के सूक्ष्म जीव के प्रति भी दयाभाव विद्यमान है। उन्होंने न ☐☐ 32 प्राकृतविद्या�अप्रैल-जून '2000
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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