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________________ दक्षिण भारत की प्रतिलिपियों में प्राचीन लिपि की पूर्ण जानकारी न होने से जहाँ वर्तनी या वर्ण-सम्बन्धी भेद लक्षित हुए, वहीं उत्तर भारत की प्रतिलिपियों में उच्चारण-विषयक भेद निरन्तर होने से वर्तनी तथा भाषा में भी परिवर्तन और विशेषकर प्राकृत भाषागत परिवर्तन स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। संस्कृत का व्याकरण जटिल तथा नियमों में आबद्ध होने से तथा क्षेत्रगत विभेद नहीं होने से उसमें किंचित्-परिवर्तन हुए, जो कालान्तर में शास्त्रीय पण्डितों द्वारा शुद्ध किए जाते रहे। इसप्रकार के प्रयत्न प्राकृतभाषा में विरल हुए, और जो किए गए, वे उन संस्कृत-विद्वानों ने किए जो प्राकृतभाषा को संस्कृत-छाया तथा संस्कृत व्याकरण की कसौटी पर कसकर समझने वाले थे। जब तक किसी भाषा की प्रकृति तथा रूप-रचना आदि का भलीभाँति ज्ञान न हो, तब तक वह पूर्णरूप से समझ में नहीं आती। आचार्य कुन्दकुन्द के अकेले ‘पंचास्तिकाय' में शौरसेनी के ही शब्दरूप सभी प्रतियों तथा प्रकाशित संस्करणों में समान रूप से लक्षित होते हैं। उदाहरण के लिए— आगासं (गाथा सं० 22,98, 100), चेदा, हवदि (27,38), उवओगविसेसिदो (27), लहदि (28), जादो, पप्पोदि (29), जीविदो (30), परिणदा, असंखादा (31), चिट्ठदि (34), चेदयदि, चेदग (38), मदि, सुद (41), णियदं (46), जदि, गुणदो (50), विवरीदं (51), बहुगा (52), पसजदि (54), इदि (60), सदो असदो (61), मिस्सिद (62), करेदि पढिदं (63), कम्मकदं (64), लोगो (70), हिंडदि (75), गदिं (79), कारणभूदं (93), लोगमेत्ता (94), देदि, णिहद (111) इत्यादि। ___ पाठान्तरों में भी शौरसेनी प्राकृत.के मध्यम तथा अन्त्य वर्ण 'त' को नियमित रूप से 'द' ही उपलब्ध होता है। जैसेकि— ‘पंचास्तिकाय' की गाथा 33 में दो पाठ मिलते हैं- पहासयदि, पभासयदि। दोनों में 'द' सुरक्षित हैं। इसीप्रकार कुदोचि, कदाचि में मध्यम 'द' बराबर है। तथा संस्कृत के तवर्ग वर्गों में 'त' को 'द' समान रूप से शौरसेनी प्राकृत में देखा जाता है। यथा- इदरं>इतरं (37), अणण्णभूदं>अनन्यभूतं (40), समुवगदो (76), भणिदो (77), सव्वदो (79), कारणभूदं (93), ठिदि (93, 94), ठाणं (96), इदि (102), णियद (107), एदे (109) आदि। क्रियापदों में वर्तमानकालिक अन्य पुरुष के संस्कृत भाषा के 'ति' प्रत्यय के स्थान पर शौरसेनी प्राकृत में सर्वत्र 'दि' पाया जाता है। उदाहरण के लिये- गदा (गता: 71), वनादि (व्रजति 76), देदि (ददाति 99), मुयदि (मुंचति 110), गाहदि (गाहते 110), हद (हत: 111), करेदि (करोति, 63, 95), गच्छदि (गच्छति 95), पढिदं (93), हिंडदि (75), संभवदि (13, 14), कुणदि (21), लहदि (28), जादि, पप्पोदि (29), जीवदि (30), पहासयदि (33), चिट्ठदि (34), जुज्जदि (37), उप्पादेदि (36), चेदयदि (38), कुव्वदि (53), भणिदं (60), समादियदि (समाददाति 106)। प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 40 29
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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