________________
णिच्छिदा (समय० 31), णिट्ठिदो (प्रवचन० 53), परिभमदि (वारसाणु० 24) जुंजदि, हिंडदि, हवेदि, हवदि, होदि, प्रभृति । ___पूर्वकालिक क्रिया कर' के अर्थ में 'दूण' प्रत्यय का प्रयोग शौरसेनी प्राकृत में विशेष रूप से पाया जाता है। उदाहरण के लिये, णादूण (समय० 34, 72) पस्सिदूण (समय० 189), होदूण (मोक्ख० 49, सील० 10), पढिदूण (मोक्ख० 106) आदि। यद्यपि प्राकृत के सभी व्याकरणों में यह सामान्य नियम मिलता है कि दो स्वरों के मध्यवर्ती 'क, ग, च, ज, त, द, प' का प्राय: लोप हो जाता है और सामान्य रूप से उसके स्थान पर अर्द्धस्वर (य, व्) का आगम अर्थात् 'यश्रुति-वश्रुति' या 'इ' हो जाता है। किन्तु विशेष रूप से शौरसेनी में मध्यम तथा अन्त्यवर्ती 'त' का 'द' हो जाता है। जैसेकि—'माता-पिता' के लिए मादा-पिदर' (वारसाणु० 21), 'धातु' के लिए 'धादु' (वारसाणु० 41), 'मति' के लिए मदि' (नियम० 22, लिंग 3, 4), 'रति' के लिए 'रदि' (प्रवचन० 64), 'रत्न' के लिए 'रदण' (प्रवचन० 30), 'भूत' के लिए 'भूद' (पंचा० 60), 'सत्' के लिए सद' (पंचा० 55), 'समता' के लिए 'समदा' (नियम 124), 'हित' के लिए 'हिद' (पंचा० 122), 'मुहित' के लिए 'मुहिद' (प्रवचन० 43), 'प्रभृति' के लिए पहुदि' (नियम० 114), (प्रवचन० 14, 15), 'वियुक्त' के लिए विजुद' (पंचा० 32), 'विदित' के लिए विदिद' (प्रवचन० 78), 'ध्याता' के लिए 'धुद', 'अतीत' के लिए 'अतीद'
इत्यादि।
इसीप्रकार क्रियापदों में भी पद के अन्तिम वर्ण 'त' के स्थान पर 'द' हो जाता है। यथा— 'भाषित' के लिए 'भासिद' (पंचा० 60), 'घात' के लिए 'घाद', 'जीवित' के लिए 'जीविद' (प्रवचन० 55), 'दशित' के लिए दसिद' (समय० 12), 'धुत' के लिए 'धुद' . (त्यक्त), (निर्वाण भ० 2), 'धौत' के लिए 'धोद' (प्रवचन० 1), 'प्रणत' के लिए 'पणद' (प्रवचन० 3), 'भरित' के लिए 'भरिद' (सील० 28), निर्गत' के लिए 'णिग्गद' (समय० 47), 'स्थित' के लिए ठिद' (समय० 187), 'निष्ठित' के लिए णिट्ठिद' (प्रवचन० 53), 'परिस्थित' के लिए परिट्ठिद' (भाव० 95, 163), 'आगत' के लिए 'आगद' (प्रवचन० 84), 'अनाहत' के लिए 'अणारिहद' (समय० 347, 348), 'अकृत' के लिए 'अकद' (पंचा० 66), 'पूर्वगत' के लिए 'पुव्वगद' (पंचा० 160), 'संयुत' के लिए संजुद' (पंचा० 68, प्रवचन० 14), 'पठित' के लिए 'पढिद' (पंचा० 57), 'प्रणिपत्' के लिए 'पणिवद' (प्रवचन० 63) प्रभृति ऐसे रूप हैं। ___ यह एक विचित्र और आश्चर्यजनक तथ्य है कि आज तक आचार्य कुन्दकुन्द के मूल पाठों की सुरक्षा नहीं की गई। लगभग इक्कीस सौ वर्षों में भाषा में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए। युग-युगों में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के लिपिकार बदलते रहे। उनमें भी दक्षिण भारत के लिपिकारों से उत्तर भारत के लिपिकारों में सदा अन्तर बना रहा।
00 28
प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000