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________________ मंगलाचरण सास्मरीमि तोष्टवीमि नंनमीमि भारतीम् । तंतनीमि पापठीमि बंभणीमि केवलाम् ।। देवराज-नागराज-मर्त्यराज-संस्तुताम् । श्रीसमन्तभद्रवाद-भासुरात्म-गोचराम् ।। 1।। अर्थ:- आत्मगोचर/आश्रय-केवलज्ञान प्रकाशित करानेवाली, देवराज (सौधर्मइन्द्रादि), नागराज (धरणेन्द्रादि), मर्त्यराज (चक्रवर्ती) द्वारा संस्तुत 'श्री समन्तभद्रवाद' नामक भारती (जिनवाणी) को बार-बार स्मरण करता हूँ, बार-बार स्तुति करता हूँ, बार-बार नमन करता हूँ, विस्तार करता हूँ, बार-बार पढ़ता हूँ, बार-बार कहता हूँ। मातृ-मान-मेय-सिद्धि-वस्तुगोचरांस्तुवे । सप्तभंग-सप्तनीति-गम्यतत्त्व-गोचराम् ।। मोक्षमार्ग-तद्विपक्ष-भूरिधर्म-गोचराम् । आप्ततत्त्व-गोचरां समन्तभद्र-भारतीम् ।। 2 ।। अर्थ:- प्रमाता, प्रमाण प्रमेयसिद्धि वस्तु के गोचर/आश्रय, सप्तभंग (स्याद् अस्ति, . स्याद् नास्ति आदि), सप्तनीति (स्याद् अस्ति आदि का व्यवहार), व गम्य-तत्त्व के गोचर/आश्रय मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) तथा मोक्षमार्ग से विपक्षी धर्मों के गोचर उस समन्तभद्र भारती की स्तुति करता हूँ। सूरि-सूक्ति-वंदितामुपेय-तत्त्व-भाषिणीम् । चारुकीर्ति-भासुरामुपाय-तत्त्व-साधिनीम् ।। पूर्व-पक्ष-खण्डन-प्रचण्ड-ग्विलासिनीम् । संस्तुवे जगद्धितां समन्तभद्र-भारतीम् ।। 3 ।। __ अर्थ:- उपेय (मोक्ष) तत्त्व कहनेवाली, उपाय (सम्यक् रत्नत्रय) तत्त्व साधनेवाली, सम्पन्न करानेवाली, सुन्दर कीर्ति को प्रकाशित करनेवाली, प्रचण्ड/तीव्रवाणी से पूर्वपक्ष/पूर्व आक्षेप का खंडन कर शोभित होने वाली जगत् का हित करनेवाली आचार्यों की सूक्तियों द्वारा वंदित उस समन्तभद्र भारती की स्तुति करता हूँ। पात्रकेसरि-प्रभाव-सिद्धि-कारिणी स्तुवे । भाष्यकार-पोषितामलंकृतां मुनीश्वरैः ।। 004 प्राकृतविद्या- अप्रैल-जून '2000
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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