SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खुलती गई, भाषा का विकास होता गया । समयानुसार परिवर्तन हुए एवं विभिन्न संपर्क के प्रभाव से भाषा की एकरूपता भी बदलती गई । विभिन्न जातियों, वर्गों एवं क्षेत्रीय प्रभाव की जलवायु तथा प्राकृतिक परिस्थितियों ने नये-नये प्रयोगों को जन्म दिया । वेद' के प्रयोग 'वैदिक' कहलाये और आर्षपुरुषों बुद्ध और महावीर के वचन 'प्राकृत' के स्वरूप को प्राप्त हुए। प्रकृति के नियमों के आधार पर भाषा, भाव और प्रक्रिया में परिवर्तन भी हुआ । भाष्यते इति भाषा जो बोली जाती है, वह भाषा कहलाती है । 'तत्त्वार्थभाष्य' में कहा गया है कि व्यक्त वाणी के द्वारा वर्ण, पद एवं वाक्य के रूप में जो कही जाती है, उसे 'भाषा' कहते हैं— “व्यक्तवाग्भिर्वर्ण-पद- वाक्याकारेण भाष्यत इति भाषा । " - (तत्त्वार्थभाष्य सिद्धसेन वृ०, 5/24 ) अर्थात् सिद्धसेन का यही भाव है कि वर्ण, पद और वाक्य के आकार से कथन करना भाषा है। दूसरी ओर 'प्रज्ञापना सूत्र' के टीकाकार मलयगिरि ने इसप्रकार कथन किया है— “भाष्यते इति भाषा, तद्योग्यतया परिणामित - निसृज्यमान- द्रव्यसंहतिः ।” - ( प्रज्ञा० मलयवृत्ति, 161 ) 'षट्खण्डागम धवला टीका' खण्ड 1, पुस्तक 1 ( पृ० 258) में भाषा पर विचार करते हुए कथन किया है कि “भाषा - वर्गणा के स्कंधों के निमित्त से चार प्रकार की भाषा रूप से परिणमन करने की शक्ति के निमित्तभूत नोकर्म - पुद्गल - प्रचय की प्राप्ति को 'भाषा पर्याप्ति' कहते हैं । भाषा 'वचनबल' है । वचनबल के बिना पर्याप्ति नहीं बनती। दो-इन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय-जीव - पर्यन्त 'भाषा - वर्गणा' होती है । वचनसूत्र भाषा. का सूत्र है। इसलिए जो कुछ कहा जाता है या बोला जाता है, वह भाषा है। इसी 'षट्खण्डागम' की द्वितीय पुस्तक में प्राणों के अंतर्गत वचनबल को महत्त्व दिया गया है। नयसूत्र के विवेचन में भाषा के विविध रूपों पर विचार किया गया है, इसमें शब्द के आधार से अर्थ के ग्रहण करने में समर्थ ' शब्दनय' है । यह नय लिंग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपग्रह के व्यभिचार की निवृत्ति करनेवाला है । जो लिंग आदि जिस स्थान के लिए प्रयुक्त किया जाता है, उसका वैसा प्रयोग न करना 'व्यभिचार' कहा जाता है। यथा— स्त्रीलिंग के स्थान पर पुल्लिंग का और पुल्लिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग आदि का प्रयोग लिंग- व्यभिचार है । इसलिए भाषास्वरूप में इस बात को महत्त्व दिया जाता है कि बोलने वाला किसप्रकार के वर्ण, पद और वाक्यों के आकार को लेकर कथन कर रहा है? यदि वर्ण, अर्थ, संख्या एवं कालादि का भेद न हो, तो एक पद एक ही अर्थ का वाचक नहीं हो सकता। इसलिए जिसमें समस्त वर्ण, पद और वाक्य का यथार्थ हो वह भाषा है । भाषा प्रयोग भाषा को जानकर उसके प्रयोग तद्रूप होना चाहिए । भाषा के विहित और निषिद्ध प्राकृतविद्या�अप्रैल-जून '2000 ☐☐ 56
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy