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नाथूराम प्रेमी ने अपने 'हिन्दी साहित्य का जैन इतिहास' नामक ग्रंथ में किया है। इन तीनों से अपने को अलग सिद्ध करने के लिए 'ब्रह्मविलास' के रचयिता भगवतीदास अपने नाम के साथ 'भैया' उपनाम जोड़ने लगे होंगे। तभी से 'भैया' शब्द उनके साथ प्रचलित हो गया, यहाँ संकेतित है—“जैसाकि उक्त पंक्तियों में उल्लेख है कि 'भैया' ने 'ब्रह्मविलास' में संग्रहीत रचनाओं की रचना-संवत् 1731 से 1755 तक की थी।"
'ब्रह्मविलास' के अन्तर्गत 'भैया भगवतीदास' ने 'मन-बत्तीसी, पंचेन्द्रिय-संवाद, परमात्म-छत्तीसी, सुआ-बत्तीसी, पुण्णपच्चीसिका, शत-अष्टोत्तरी, चेतन-कर्मचरित्र, बावीस परिषह, परमात्मा की जयमाल, निर्वाणकांड-भाषा, पार्श्वनाथ-स्तुति, चतुर्विंशति-जिनस्तुति आदि-आदि रचनाओं में 'मन की चंचलता', नरभव-दुर्भलता, सद्गुरु महिमा, मन को चेतावनी, आत्म-संबोधन, नवधा-भक्ति, आत्मा-परमात्मा-चिंतन, चित्तशुद्धि, भेद-विज्ञान एवं रहस्यभावनात्मक आध्यात्मिक प्रेम आदि का चित्रण बड़े ही मनोरम ढंग से किया है। इनमें अध्यात्म और भक्ति का सुंदर समन्वय, भाषा में आज, सादृश्यमूलक अलंकारों की संदर छटा एवं छन्दों का वैविध्य देखते ही बनता है। 'चेतन-कर्मचरित्र', 'शत-अष्टोत्तरी' एवं 'मधुबिन्दुक-चौपाई' काव्यों में जहाँ रूपकों का सहारा लिया गया है; वहीं कवित्तों में 'अनुप्रास' एवं 'चित्रालंकार' से चित्रमय बिंब उपस्थित कर वीररस की सृष्टि की है
"अरिन के ठट्ट दह वट्ट कर डारे जिन, करम सुभट्टन के पट्टन उजारे हैं। नर्क तिरजंच चट पट्ट देके बैठे रहे, विषै-चोर झट्ट झट्ट पकर पधारे हैं।। भौ-वन कटाय डारे अट्ठ मद दुट्ठ मारे, मदन के देस जारे क्रोध हू संवारे हैं। चढ़त सम्यक्त सूर बढ़त प्रताप-पूर, सुख के समूह भूर सिद्ध के निहारे हैं ।।"
-(ब्रह्मविलास, फुटकर कवित्त, पृ० 273) अध्यात्म-साधक कवियों ने सांसारिक विषय-वासना पर चिंतन करते हुए संसार और शरीर की नश्वरता को विचारते हुए संसरण का प्रबलतम कारण मोह और अज्ञान को माना है। इसी संदर्भ में 'भैया' ने चौपट के खेल में संसार का चित्रण प्रस्तुत किया है- "चौपट के खेल में तमासौ एक नयो दीसै।
जगत की रीति सब याही में बनाई है।" अपने एक अन्य पद में संसार की विचित्रता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं किसी के घर मंगल के दीप जलते हैं, उनकी आशायें पूरी होती हैं; पर कोई अंधेरे में रहता है, इष्ट-वियोग से रुदन करता है, निराशा उसके घर में छायी रहती है। कोई सुंदर-सुंदर वस्त्राभूषण पहिनता, घोड़ों पर दौड़ता है; पर किसी को तन ढाँकने के लिए भी कपड़े नहीं मिलते। जिसे प्रात:काल राजा के रूप में देखा, वही दोपहर में जंगल की ओर जाता दिखाई देता है। जल के बबूले के समान यह संसार अस्थिर और क्षणभंगुर है। इस पर दर्प करने से क्या आवश्यकता?
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प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000