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4. "द्रोणिमति प्रबल कुण्डले मेंढके च", श्लोक 29। 5. 139वीं कथा, श्लोक 1-172 । 6. “लाट देशाभिधे देशे.......।
पूर्वोत्तर दिशाभागे तोणिमद्भवधरस्य च।।" -139/45 7. श्लोक 139/61-62 । 8. “अध्यास वेदना घोरां गुरुदत्तो महामुनि।
संप्राप्य केवलज्ञानं लोकालोकावलोकनम्।।" -139/106 9. आराधना कथा-प्रबन्ध (कथाकोश) सं०—डॉ० रमेशचन्द्र जैन, आचार्य शान्तिसागर
(छाणी) स्मृति ग्रन्थमाला बुढ़ाना, सन् 1990 में प्रकाशित। 10. “लाटदेशे द्रोणीपर्वत समीपे....... । लोक: कधितम-द्रोणीमति पर्वते व्याघ्रस्तिष्ठति।"
पृ० 106-207। 11. आराधना कथा कोश (भा० अनेकान्त विद्वत्परिषद् सन् 1863) कथा सं० 69। द्रष्टव्य ___ – हिन्दी अनुवाद, पृ० 197-300। 12. I. नर्मदातट द्रोणगिरि......ज्ञातव्याः ।
षट्प्राभृतादि-संग्रह (माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, वि० 1977)
बोधप्राभृत टीका, पृ. 93। II. अष्टपाहुड (भा० अनेकान्त विद्वत्-परिषद् सन् 1955), पृ० 179-180। 13. तीर्थवंदन संग्रह (सं०—डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर, गुलाबचन्द्र हीराचन्द्र दोषी जैन,
संस्कृति संरक्षक सोलापुर, वी०नि० 2491), पृ. 50। 14. “बड़ग्राम सुनाम पच्छिम दिसा। द्रोणगिरि पर्वत कैलास जैसा। तेथे सिद्ध झाले मुनि गुरुदत्त। ऐसे तीर्थ वंदा तुम्ही एकचित्ता।।"
-(श्लोक 19, द्रष्टव्य - तीर्थवंदन संग्रह, पृ० 50-51) 15. द्रष्टव्य - पं० बाबूलाल जैन जमादार अभिनन्दन ग्रन्थ, बड़ौत, मेरठ, सन् 1981 । _16. वही, पृ० 388। 17. लघु सम्मेदशिखर : द्रोणगिरि, प्रकाशक-गणेश प्रसाद वर्णी शोध केन्द्र, द्रोणगिरि,
छतरपुर, म०प्र०, 1988, पृ० 7।
कमण्डलु में ही भूमण्डल का अर्थशास्त्र है 'कमण्डलु' भारतीय संस्कृति का सारोपदेष्टा है। उसका आगमनमार्ग स्फीत और निर्गमनमार्ग संकुचित है। अधिक ग्रहण करना और अल्पव्यय करना अर्थशास्त्र का ही नहीं, सम्पूर्ण लोकशास्त्र का विषय है। संयम का पाठ कमण्डलु से सीखना चाहिये। कमण्डलु का | जल शुद्धिकार्य में आता है।
प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
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