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________________ 'फलहोडी' और 'फलोदी' शब्दों में कतिपय समानता मानकर पं० नाथूराम प्रेमी ने राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम में स्थित फलौदी' को ‘फलहोडी' माना है। डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी उनके इस मत से सहमत नहीं हैं; क्योंकि फलौदी में श्वेताम्बर आम्नाय का पार्श्वनाथ भगवान् का मंदिर तो है, लेकिन न तो यहाँ कोई द्रोणगिरि नामक पहाड़ है और न यह सिद्धक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। दूसरी बात यह है कि जिस शेर की गुफा के होने का उल्लेख हरिषेण आदि ने किया वह संधपा' के सन्निकट वाले पर्वत पर अभी भी है। उपर्युक्त मतैक्य के कारण प्राचीन द्रोणगिरि की स्थिति सुनिश्चित नहीं होती है, तो क्या यह मान लिया जाये कि प्राचीन सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि का लोप हो गया है? ___इस संबंध में मेरी मान्यता है कि उक्त तीर्थ का लोप मानना न तो उचित है और न तर्कसंगत। क्योंकि 'द्रोणगिरि' विन्ध्याचल नामक पर्वत की एक श्रेणी है, जिसका उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में मिलता है। दूसरी बात यह है कि इसे सिद्धक्षेत्र के रूप में ख्याति कम से कम 2500 वर्ष पूर्व अवश्य प्राप्त हुई होगी। इतने लम्बे अन्तराल में तत्कालीन ग्रामों का नाम परिवर्तन और खंडहरों में बदलना असंभव नहीं है। इसी संभावना के आधार पर कहा जा सकता है कि 'फलहोडी ग्राम' कालान्तर में वीरान हो गया होगा और उसके नष्ट हो जाने पर सेंधपा' नामक ग्राम बसाया गया होगा। डॉ० नरेन्द्र विद्यार्थी' छतरपुर ने भी लिखा है “द्रोणगिरि पर्वत के प्रवेश द्वार के बायीं ओर पर्वत तलभाग से बिल्कुल लगा हुआ महलन बाबा के महल का खंडहर अब भी वर्तमान है। जिसके आसपास और भी ऐसे ध्वंसावशेष हैं, जिससे अनुमान होता है कि यही 'फलहोडी गाँव' होगा। जिसके मुखिया इस महल के वासी महलन बाबा' रहे होंगे। उजड़ जाने पर 'सेंधपा' बसाया गया होगा।"" ‘लघु सम्मेद शिखर : द्रोणगिरि' के लेखक कमलकुमार जैन ने भी माना है कि "द्रोणगिरि पर्वत की पूर्व दिशा में लगभग एक फर्लाग दूर चलने पर एक प्राचीन ग्राम के अवशेष प्राप्त होते हैं, जो गाथा वर्णित फलहोडी ग्राम ही है। ग्राम के अवशेषों, भवनों की आधार भूमि (नीव) आदि देखने से निश्चितरूप से कहा जाता है कि 'फलहोडी ग्राम' बड़ा था, और कालान्तर में उजड़ जाने के कारण निकट में सेंधपा' नामक ग्राम बस गया।" ___अत: गुरुदत्तादि मुनियों की सिद्धभूमि के रूप में छतरपुर जिले में स्थित और भक्तों की आस्था तथा श्रद्धा का केन्द्र पूजनीय, वंदनीय वर्तमान सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि को प्रामाणिक मानना न्यायसंगत है। संदर्भग्रंथ-सूची 1-2. पं० फूलचन्द्र शास्त्री : ज्ञानपीठ पूजाञ्जली, पृ० 426 एवं 428 । 3. गाथा 15471 1072 प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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