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"त्रयोविंशतिरुच्यन्ते स्वरा: शब्दार्थचिन्तकैः।
द्विचत्वारिंशद् व्यञ्जनान्येतावान् वर्णसंग्रहः ।।" -(8/29-34) 'पाणिनीय शिक्षा' (श्लोक 3) में 63 अथवा 64 तथा वशिष्ठ-शिक्षा में 68 वर्णों का उल्लेख हुआ है। पाणिनीय शिक्षा' के अनुसार स्वयम्भू ब्रह्मा द्वारा प्रोक्त तथा शम्भुमत में भी मान्य जिन 63-64 वर्णों की चर्चा की गई है, वे केवल संस्कृत भाषा में ही स्वीकार्य नहीं है, अपितु प्राकृतभाषा में भी मूलत: मान्य हैं आंशिक अन्तर से
“त्रिषष्टिश्चतुष्षष्टि; वर्णाः शम्भुमते मता: ।
प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ता: स्वयम्भुवा ।।"- (पा०शि०, श्लोक 3) प्राकृतभाषा के वर्णों की मान्यता इसप्रकार है
27 स्वरवर्ण = अ, आ, अ३, इ, ई, इ३, उ, ऊ उ३, ऋ, ऋ, ऋ३, लु, लु, लु३, ऍ, ए, ए३, ओं, ओ, ओ३, ऐं, ऐ, ऐ३, औं, औ, औ३ । ___33 व्यंजन वर्ण = क्, ख, ग, घ, ङ् । च्, छ्, ज, झ, ञ् । ट, ठ, ड्, द, ण् । त्, थ्, द्, ध्, न्। प्, फ्, ब्, भ, म्। य, र, ल, व् । श्, ए, स्, ह।
4 अयोगवाह = अं, अ:,xक,प।
यह ज्ञातव्य है कि संस्कृत व्याकरणों में 'ल' को दीर्घ न मानने से वर्गों की संख्या 63 ही रह जाती है, परन्तु प्राकृत में उसके दीर्घ होने से 64 संख्या अक्षुण्णरूप में बनी रहती है। गोम्मटसार-जीवकाण्ड, गाथा 352 की तत्त्व-प्रदीपिका टीका के अनुसार 'लु' की दीर्घता को देशान्तर भाषाओं में स्वीकार किया गया है- 'लुवर्ण: संस्कृते दीर्घा नास्ति, तथाप्यनुकरणे देशान्तरभाषायां चास्ति ।' 2. उपसर्ग ___सामान्यत: उपसर्ग 22 माने जाते हैं— प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्,
दुस्, दुर्, वि, आङ्, नि, अधि, अति, सु, उत, अति, अभि, प्रति, परि, उप। ____इनमें 'निस्-निर्' के लिए केवल 'निर्' तथा 'दुस्-दुर्' के लिए केवल 'दुर' को भी मान लेने पर अभीष्ट सभी कार्य सम्पन्न हो जाते हैं, अत: आचार्यों ने 20 ही उपसर्ग मानने के पक्ष में अपना अभिमत व्यक्त किया है
"प्र-पराप-समन्वव-निर्दरभि-व्यधिसूदति-नि-प्रति-पर्यपयः । . उप-आडिति विंशतिरेष सखे ! उपसर्गविधि: कथित: कविना।।"
. -(कातन्त्र-विवरण पञ्जिका, 21414) इनमें निस्' तथा 'दुस्' का परिगणन नहीं किया गया है। प्राकृतभाषा में भी ये ही बीस 'उपसर्ग' मान्य हैं। आचार्य शाकटायन धातु के साथ योग होने के कारण 'अच्छ, श्रत्, अन्त:' को भी उपसर्ग मानते थे
प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
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