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“अच्छश्रदन्तरित्येतानाचार्य: शाकटायन: ।
उपसर्गान् क्रियायोगान् मेने ते तु त्रयोऽधिका: ।।" - (बृहदेवता, 2/94-95) 3. कारक
संस्कृत के सभी शाब्दिकाचार्यों ने छह ‘कारक माने हैं— कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान तथा अधिकरण। 'सम्बन्ध' तथा 'सम्बोधन' को कारक नहीं माना जाता है। इन छह मान्य कारकों के 23-24 भेदों का उल्लेख प्राप्त होता है, तदनुसार अपादान 3 प्रकार का, सम्प्रदान 3, अधिकरण 6, करण 2, कर्म 7 तथा कर्ता 3 प्रकार का कहा गया है। इसे सोदाहरण इस रूप में समझा जा सकता है— विविध अपादान – (द्र०, वा०प० 3/7/136)
1. निर्दिष्ट-विषय - ग्रामाद् आगच्छति । 2. उपात्त-विषय - बलाहकाद् विद्योतते विद्युत् ।
3. अपेक्षित-क्रिय - पाटलिपुत्रात् (आगच्छामि)। त्रिविध सम्प्रदान - (द्र०, वा०प० 3/7/129)
1. अनिराकर्तृ - सूर्यायाय॑ ददाति । 2. प्रेरक - विप्राय गां ददाति।
3. अनुमन्तृ - उपाध्यायाय गां ददाति। षोढा अधिकरण - (द्र०, म०भा० 6/1/72; पाणिनीय व्याकरण का अनुशीलन, पृ० 158).
1. औपश्लेषिक - कटे शेते कुमारः। 2. सामीपिक - वटे गाव: सुशेरते। 3. अभिव्यापक – तिलेषु विद्यते तैलम् । 4. वैषयिक
हृदि ब्रह्मामृतं परम्। 5. नैमित्तिक - युद्धे संनह्यते धीरः।
6. औपचारिक - अङ्गुल्यग्रे करिणां शतम् । द्विविध-करण - (द्र०, कातन्त्र व्याख्या 2/4/12) 1.बाह्य
दात्रेण धान्यं लुनाति। 2. आभ्यन्तर - मनसा मेरुं गच्छति। सप्तविध कर्म – (द्र०, वा०प० 3/7/45-46) 1. निवर्त्य
कटं करोति। 2. विकार्य
ओदनं पचति। 3. प्राप्य
आदित्यं पश्यति। 4. उदासीन ग्रामं गच्छन् वृक्षमूलान्युपसर्पति।
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प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000