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________________ 'सप्तद्वीपा वसुमती त्रयो लोकाश्चत्वारो वेदा:, सांगा:, सरहस्याः, एकशतमध्वर्युशाखा:, सहस्रवर्त्मा सामवेद:, एकविंशतिधा बाह्वृच्यम्, नवधा आथर्वणो वेद:, वाकोवाक्यम्, इतिहास, पुराणम्, वैद्यकम् इत्येतावान् शब्दस्य प्रयोगविषयः' - ( महाभाष्य-पस्पशाह्निक, पृ० 64-65 ) पदमञ्जरीकार हरदत्त आदि आचार्यों ने रामायण, महाभारत आदि महाकाव्यों को भी सम्मिलित किया है, जिसके आधार पर देववाणी संस्कृतभाषा को लोकभाषा या विश्वभाषा कहने में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं हो सकती है । 'वाल्मीकि रामायण' के उक्त वर्णन से देववाणी के दो रूप तो देखे ही गए हैं, इसके अतिरिक्त परवर्तीकाल में मनुष्यों के द्वारा इसका प्रयोग किए जाने पर ज्ञान तथा उच्चारण में शिथिलता के कारण उस देववाणी में पर्याप्त विकार उत्पन्न हुए । वाक्यपदीयकार भर्तृहरि के उल्लेख से इस तथ्य का समर्थन होता है— “ दैवी वाग् व्यवकीर्णेयमशक्तैरभिधातृभिः । अनित्यदर्शिनां त्वस्मिन् वादे बुद्धिविपर्ययः । । ” – ( वा०प०, 1 / 155 ) विकारग्रस्त उस भाषा को प्राकृत नाम दिया गया और उससे भेदावबोध के उद्देश्य से देववाणी को 'संस्कृत' नाम से अभिहित किया गया। काव्यादर्श में दण्डी ने इस तथ्य का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है “संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः । तद्भवस्तत्समो देशीत्यनेकः प्राकृतक्रमः । । ” – (काव्यादर्श 1 / 33 ) इसप्रकार संस्कृतभाषा से समुद्भूत होने के कारण प्राकृतभाषा में कुछ तथा व्याकरण-विषयक नियम आदि समानरूप में देखे जाते हैं । कुछ शब्दों के भिन्न होने पर भी अर्थानुगम में सादृश्य सन्निहित है। संस्कृत के कुछ प्रातिपदिक प्राकृत में पदरूप में प्रयुक्त हुए हैं । प्राकृत में विसर्ग की मान्यता नहीं है, क्योंकि उसके स्थान में 'ए' अथवा 'ओ' हो जाता है। कोई भी शब्द मकारान्त नहीं लिखा जाता, उसके स्थान में अनुस्वार हो जाता है। अत: इस अन्तर के अतिरिक्त एतादृश शब्दों में अन्य अंश समान ही देखे जाते हैं। इस समानता के बोधक कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं— 1. वर्ण - समाम्नाय संस्कृत के सभी व्याकरणों में वर्ण- समाम्नाय का पाठ तो अवश्य होता है, परन्तु वर्णों की संख्या तथा क्रम में कहीं अन्तर भी देखा जाता है । जैसे 'पाणिनीय वर्ण- समाम्नाय' में 42 ही वर्ण पढ़े गए हैं, परन्तु कातन्त्र में संस्करणभेद से 50, 52 अथवा 53 भी वर्ण देखे जाते हैं। प्रातिशाख्यों में 63, 64 एवं 65 भी वर्णों की मान्यता है । 'वाजसनेयी प्रातिशाख्य' भाष्य में आचार्य उव्वट ने 23 स्वर तथा 42 व्यञ्जनों का उल्लेख करके 65 वर्णों की मान्यता को स्वीकार किया है OO 10 प्राकृतविद्या + अप्रैल-जून 2000
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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