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________________ व्याकरण' की देश-विदेश में लोकप्रियता देखकर उसे कहाँ का गौरव-ग्रन्थ माना जाय? क्या केवल भारत का? क्या केवल एशिया का? अथवा समूचे विश्व का? युगों-युगों से वह ग्रन्थ निश्चितरूप से सामान्यजन के गले का हार बना रहा है। बहुत सम्भव है कि उसका अध्ययन यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी किया हो। पिछली लगभग तीन सदियों में सर विलियम जोन्स, जूलियस एग्लिग, आल्सडोर्फ, तथा देश-विदेश के अनेक प्राच्यविद्याविदों तथा डॉ० ए०बी० कीथ, पं० युधिष्ठिर मीमांसक तथा डॉ० सूर्यकान्त ने भी किया। और इस सदी के उत्तरार्ध में डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी तथा डॉ० रामसागर मिश्र ने भी विशेष रूप से किया और अपने दीर्घकालीन गम्भीर चिन्तन-मनन के बाद उन सभी ने एक स्वर से उसकी प्राचीनता, मौलिकता और सार्वजनीनता सिद्ध कर उसे लोकोपयोगी बतलाते हुए उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इन तथ्यों के आलोक में कातन्त्र-व्याकरण की मौलिकता तथा सार्वजनीन गुणवत्ता के कारण उसकी लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए यदि उसे 'विश्व-साहित्य का गौरव-ग्रन्थ' माना जाये, तो क्या कोई अत्युक्ति होगी? सेमिनार में पठित प्राय: सभी निबन्ध मौलिक एवं शोध-परक थे, जो परिश्रमपूर्वक तैयार किये गये थे। ____डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी एवं डॉ० रामशंकर मिश्र ने निबन्ध प्राच्य-भारतीय व्याकरण-ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक थे, जिनमें उन्होंने सामान्य जनमानस की दृष्टि से ग्रन्थ की सरलता, संक्षिप्तता एवं अर्थलाघव जैसी विशेषताओं पर अच्छी प्रकाश डाला। डॉ० रामसागर मिश्र ने शारदा-लिपि में प्राप्त शिष्यहितावृत्ति' तथा शिष्यहितान्यास' नामक व्याख्यापरक कृतियों की विशेषताओं पर पाण्डित्यपूर्ण चर्चा की। __ पाण्डुलिपियों के सर्वेक्षण-सम्बन्धी तीन निबन्ध भी प्रस्तुत किये गये, जिन्होंने प्राय: सभी का ध्यान आकर्षित किया, जिनमें से उदयपुर विश्वविद्यालय के डॉ० उदयचन्द्र जैन ने एक विशिष्ट सूचना यह दी कि कातन्त्र-व्याकरण पर लिखित एक टीका 'कातन्त्र-मन्त्र-प्रकाश-बालावबोध' की टीका प्राकृतभाषा मिश्रित है। इस कोटि का यह सम्भवत: प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ है। आरा (बिहार) की प्रो० (श्रीमती) विद्यावती जैन ने अपने निबन्ध में विविध शास्त्र-भाण्डरों में सुरक्षित लगभग 88 पाण्डुलिपियों का विवरण प्रस्तुत किया। उसी क्रम में अद्यावधि अज्ञात 'दुर्गवृत्ति द्वयाश्रय-काव्य की भी सूचना दी, जिसका अपरनाम 'श्रेणिकचरित महाकाव्य' बतलाया। इसमें 'श्रेणिक चरित' के 18 सर्ग कातन्त्र-व्याकरण' के नियमों को ध्यान में रखकर लिखे गये हैं। अभी तक हेमचन्द्राचार्यकृत 'कुमारपालचरित' 'द्वयाश्रय काव्य' के नाम से प्रसिद्ध था, किन्तु अब उक्त नूतन शोध-सूचनानुसार, 'दुर्गवृत्ति द्वयाश्रय काव्य' भी सम्मुख आया है। प्राच्य साहित्य-जगत् के लिये यह एक रोचक नवीनतम सूचना है, जो स्वयं में ही एक गौरव का विषय है। यही नहीं श्रीमती प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 00 21
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
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