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अगले दिन मैं पुन: ज्ञानपीठ कार्यालय में जाकर श्रद्धेय साह जी से मिला। उन्होंने अत्यन्त स्नेहपूर्वक मुझे नियुक्ति-पत्र दिलवा दिया, जिसके अनुसार मुझे ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'ज्ञानोदय' (मासिक, सचित्र-पत्रिका) के सम्पादक-कार्यालय में कार्य करना था। 'ज्ञानोदय' अपने समय की हिन्दी-जगत् की एक उच्चस्तरीय प्रतिष्ठित पत्रिका के रूप में प्रसिद्ध थी। उसके लेखों का सम्पादन, उन पर टिप्पणियाँ, विशिष्ट स्तम्भों के लिये सामग्री संचित कर टिप्पणियों का लेखन, कवियों एवं लेखकों से पत्राचार एवं पत्रिका प्रकाशन सम्बन्धी कार्यों के लिये मुझे अधिकृत किया गया। उक्त जिम्मेदारियों के अतिरिक्त एक जिम्मेदारी मेरी यह भी थी कि सप्ताह में दो दिन मुझे साहू जी के आवास पर जाना पड़ता था। साहू-परिवार प्रारम्भ से ही स्वाध्यायशील एवं विद्यारसिक था। साहू अशोक जी पर अपने माता-पिता के संस्कारों की गहरी छाप थी। उनकी अपनी आवासीय लायब्रेरी भी थी, जिसमें उच्चकोटि के प्राय: सभी भाषाओं एवं धर्मों के ग्रन्थ एवं जर्नल आदि थे, जिनकी संख्या 7-8 हजार के लगभग रही होगी। उसकी व्यवस्था एवं संवर्धन कार्य भी मेरे जिम्मे था। साहू अशोक जी नियमितरूप से लायब्रेरी में बैठते थे। वे भारतीय इतिहास, जैन संस्कृति, साहित्य, सिद्धान्त, आचार, अध्यात्म जैसे विषयों का अध्ययन किया करते थे और मैं भी उनकी इच्छा के अनुरूप सन्दर्भ खोजकर उनके ज्ञानार्जन में सहायता किया करता था। उनके सम्मुख एक सर्विसमैन के अतिरिक्त यद्यपि मेरी कोई हैसियत न थी, फिर भी मैंने देखा कि वे कितने सहृदय, समभावी तथा कितने कद्रदाँ थे और विद्वत्ता के लिये कितना आदर-सम्मान दिया करते थे।
किन्तु यह क्रम अधिक दिनों तक न चल सका। कलकत्ता का भीड़भरा अतिव्यस्त जीवन मुझे पसन्द नहीं आया। वस्तुत: मैं किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक होने के स्वप्न संजाये हुए था। उस संकल्पना के आगे पत्रकारिता अथवा किसी कार्यालय में केवल कलम-घिसाई करते रहने में मेरी विशेष रुचि नहीं थी। संयोग से मुझे मध्यप्रदेश के एक गवर्नमेंट कॉलेज में प्राध्यापकी मिल जाने के कारण मैं 'भारतीय ज्ञानपीठ' की सर्विस छोड़कर जब मध्यप्रदेश आने लगा, तब श्रद्धेय अशोक जी ने कुछ विशेष आश्वासन देकर मुझे रोकने का प्रयत्न किया; किन्तु मैं न रुक सका और उन्हें तथा श्रद्धेय साहू जी को प्रणामकर उनकी सहमति तथा स्वीकृति लेकर चला आया।
दीर्घान्तराल के बाद भी मैंने देखा कि साहू अशोक जी निरन्तर ही मेरे प्रति स्नेहादर का भाव रखते रहे। जब भी मैं अपनी कोई समस्या लेकर उनके पास आया, उन्होंने उसे प्राथमिकता के साथ सहर्ष पूर्ण किया।
सन् 1980 के आसपास एक बार उन्होंने अपनी इच्छा व्यक्त की कि भारत की प्रमुख जैन-संस्थाओं एवं शोध-संस्थानों की गतिविधियों की जानकारी एकत्रित की जाय। इसके लिये उन्होंने मुझे एक रिपोर्ट अपने सुझावों के साथ भेजने का अनुरोध
प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000
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