SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से उद्भूत विद्याधर, वानर, और राक्षसवंश के विद्याधर राजाओं की परम्परा, ईर्ष्या, प्रीति, प्रतियोगिता, पारिवारिक कलह एवं युद्धों से भरा हुआ है। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ये चाहे परस्पर कितना ही लड़े हों, किन्तु इन तीनों का ही इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं से किसी भी बात को लेकर आमना-सामना नहीं हुआ; बल्कि श्रमण-संस्कृति के प्रति इनका आदर-सम्मान का भाव ही रहा है । श्रमण परम्परा के अनुयायी भी अपने मूल सिद्धान्तों का पालन करते हुए अपनी बौद्धिक स्वतन्त्रता को कायम रखते हुए उदारवादी दृष्टिकोण से सम्पूर्ण मानव समाज के साथ रहते आये हैं । इस तरह इस महाकवि स्वयंभू ने भरतक्षेत्र की वैदिक एवं श्रमण परम्परा रूप दोनों धाराओं से निर्मित भारतीय संस्कृति का स्वरूप बताते हुए यह 'विद्याधरकाण्ड' रचा है। पउमचरिउ के विद्याधरकाण्ड के राजाओं की वंशावली :― 1. इक्ष्वाकुवंश: – 14 कुलकर (प्रतिश्रुत, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमन्धर, सीमंकर, सीमन्धर, चक्षुष्मान्, यशस्वी, विमलवाहन, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराज), ऋषभजिन, भरत, बाहुबलि, धरणीधर, त्रिरथजय, जितशत्रु, जयसागर, सगर, भीम, भगीरथ, मुनि जंघाचरण, सहस्रकिरण, अणरण्य, अनन्तरथ और दशरथ । 2. विद्याधरवंशः— नमि, विनमि, पूर्णधन, मेघवाहन, सुलोचन, सहस्रनयन, , विद्यामन्दिर, विजयसिंह, अशनिवेग, भिन्दपाल, विद्युद्वाहन, सहस्रार, इन्द्र, यम, धनद, चन्द्रोदर, वैश्रवण, खरदूषण, विराधित, ज्वलनसिंह, महेन्द्र, प्रह्लाद, पवनजंय और हनुमान । 3. राक्षसवंश: - भीम, सुभीम, तोयदवाहन, महारक्ष, देवरक्ष, कीर्तिधवल, तडित्केश, सुकेश, श्रीमाली, सुमालि माल्यवन्त, रत्नाश्रव, दशानन, भानुकर्ण, विभीषण, इन्द्रजीत, मेघवाहन, हस्त, प्रहस्त एवं अक्षय कुमार । 4. वानरवंशः– श्रीकंठ, वज्रकण्ठ, इन्द्रायुध, इन्द्रमूर्ति, मेरु, समुन्दर, पवनगति, रविप्रभ, अमरप्रभ, कपिध्वज, प्रतिबल, नयनानन्द, खेचरानन्द, गिरिनन्दन, उदधिरथ, प्रतिचन्द्र, किष्किन्ध, अन्धक, ऋक्षुराज, सूररज, नील, नल, बाली, सुग्रीव, जाम्बवंत, शशिकरण, अंग और अंगद । सन्दर्भ – हिन्दी काव्यधारा, राहुल सांकृत्यायन, पृ० 50 (किताब महल, इलाहाबाद ) । ☐☐ 64 सर्वज्ञता का सुप्रभाव “ तुह वयणं चिय साहइ, णूणमणेगंतवाय विहड पहं । तह हिदय-पयासयरं, सव्वण्णूत्तमप्पणो णाण । । ” - (उसहदेव थुदि, 33 ) अर्थ:- हे भगवान् वृषभदेव ! आपके दिव्यध्वनि - प्रसूत वचन वर्गणा ही निश्चय से अवश्य ही 'अनेकांतवाद' के विकट पथ को सिद्ध करते हैं तथा हे वृषभनाथ ! आपका स्वयं का सर्वज्ञत्व हृदय-कमल को प्रकाशित करनेवाले सूर्य के समान है । ** प्राकृतविद्या�अप्रैल-जून '2000
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy