SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. लाई, काजू आदि कुटे गर्म किये मेवा मक्खन गाय का दूध (प्रसूत के बाद) भैंस का दूध (प्रसूत के बाद) प्रासुक पानी गर्म उबला हुआ पानी छना हुआ पान 7 दिन 48 मि० 10 दिन 15 दिन 6 घण्टे 24 घण्टे 48 मि० 5 दिन 48 मिo 10 दिन 15 दिन 6 घण्टे 24 घण्टे 48 मिo 3 दिन 48 मि० 10 दिन 15 दिन 6 घण्टे किंतु आज की फास्टफूड-संस्कृति के लोगों को इतनी सारी वर्जनायें और नियमावलियाँ कहाँ सुहातीं हैं? उन्हें तो दौड़ते-भागते कहीं भी कुछ भी खाने की आदत जो पड़ गयी है। और आज की कोमलांगी ललनायें भोजन -शुद्धि के लिए इतनी सावधानी एवं श्रम के लिए तैयार ही कहाँ हैं? डिब्बाबंद खाद्यपदार्थ एवं पेयपदार्थ, जो मर्यादाविहीन, ताजगीरहित एवं पौष्टिकता से भी रहित हैं; आज की पीढ़ी इन्हीं से अपना गुजारा करने की आदत डाल रही है। इसी से शारीरिक स्वास्थ्य का केन्द्र 'उदर' या पेट' पूर्णतः दुष्प्रभाव से ग्रस्त हो जाता है, जिसके फलस्वरूप रोज-रोज डॉक्टरों की शरण में जाने वाली सन्तति का निर्माण हो रहा है । कई-कई लोग तो भोजन की तरह ही नियमितरूप से दवाई की गोलियों (टेब्लेट्स), कैप्सूलों एवं सिरपों का सेवन करते हैं । इन सब बीमारियों की जड़ आहार-जल की निर्माण-प्रक्रिया की अशुद्धता है। हम रुग्ण पीढ़ी को जन्म दे रहे हैं । आज के. डॉक्टर अपना धंधा चलाने के लिए इस क्षेत्र में 'आग में घी डालने की तरह' कहते हैं कि "कुछ भी खाओ, हमारी दवा साथ लो।" इनका उद्देश्य व्यक्ति को अपने बल पर स्वस्थ करना नहीं है, अपितु व्यक्ति को रोगी बनाये रखकर अपनी फीस व दवा कंपनियों की बिक्री की निरन्तरता बनाये रखना है । 1 आत्मा न श्रावक है, न श्रमण “ तम्हा दु हित्तु लिंगे, सागारणगारिये हि वा गहिदे । दंसण - णाण- चरित्ते, अप्पाणं जुंज मक्खपहे । ।" प्राकृतविद्या + अप्रैल-जून '2000 24 घण्टे 48 मि० ऋतुचक्र के अनुसार भोजन - पान की मर्यादाओं का पालन कर हम अच्छा स्वास्थ्य, अच्छे विचार एवं दीर्घायु बन सकते हैं । वस्तुत: जैन - परम्परा में वर्णित आहारशुद्धि की शिक्षा ही 'आयुष्मान भव' के आशीर्वचन को सफल करेगी तथा 'पहिला सुख निरोगी काया' की लोकोक्ति को भी सार्थक करेगी 1 - ( आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार 411 ) अर्थ:- सागार (श्रावक ) अथवा अनगार (श्रमणों) द्वारा ग्रहण किये हुए समस्त लिंगों को छोड़कर के अपनी आत्मा को सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में लगाओ । ☐☐ 83
SR No.521362
Book TitlePrakrit Vidya 2000 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy