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अद्भतगवस्मरणम्
चयिता: पूज्य आचार्य श्री घासीलालजी महाराज
-: गुर्जरभाषानुवादक :शेठ श्री जयन्तीलाल भोगीलालभाई
भावसार,
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શ્રી લક મી પુસ્તક ભ'ડાર, ગાંધીમાગ, અમદાવાદ
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अद्भुतनवस्मरणम्
: रचयिता : पूज्य आचार्य श्री घासीलालजी महाराज
-: गुर्जरभाषानुवादक :शेठ श्री जयन्तीलाल भोगीलालभाई
भावसार.
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શ્રી લક્ષ્મી પુસ્તક ભંડાર, ગાંધીમાર્ગ, અમદાવાદ
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પ્રકાશક : ધનરાજ ઘાસીરામ કોઠાર , શ્રી લક્ષ્મી પુસ્તક ભંડાર ખાવામાગ અમદાવાદ.
द्वितीय आवृत्ति કિંમત : ૫-૦૦
વીર સંવત ૨૫૦૩ ઈ.સ. ૧૯૭૭
મુક : જયંતીભાઈ ત્રિપાઠી, કલ્પતરુ મુદ્રણમ
મહારાષ્ટ્રીય વાડી, શાહપુર, અમદાવાદ.
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-: भुमिका :
इस ' अद्भुतनवस्मरण ' की रचना पूज्य आचार्य म. श्री १००८ श्री घासीलालजी म. सा. कर्मजनित दु:खदैन्य आदि से सन्तप्त मानवसमुदाय के दुःखविमुक्तिनिमित्त की है। इस समय भौति वाद की अधधूंधी में मानव मानस पीडित होकर नितांत संतप्त हो रहा [; अतः मानव मानस की दृढता के लिये मानसिक आलम्बन का होना इस समय बहुत जरूरी है । यह आलम्बन तो सर्वोपरी प्रभुतीर्थङ्कर ही हैं, उन्हीं की आराधम से मनोबल की दृढता प्राप्त कर मानवसमुदाय ऐहिक पारलौकिक सभी प्रकार की सिद्धियां प्राप्त कर सकता है ।
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इसलिये 'बहुजन हिताय ' जो इस अद्भुतनवस्मरण * की रचना पूज्यश्री ने की है, उसके स्वाध्याय से भव्य जन दृढ मनोबल प्राप्त कर ऐहिक, पारलौविक सुख के भागी बने, यहीं हमारी आन्तरिक सद्भाबना है ।
-प्रकाशक
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अथ--विषयानुक्रमणिका
विपय
पृष्ठ नवस्मरणमाहात्म्य ... ... ... १-२८ १-मङ्गलस्मरण ... ... ... ... २८-३६ २-भानन्दस्मरण (वर्धमानभक्तामर) ३७-१०९ ३-सुखस्मरण ... ... ... ... ११०-१२५ ४-संपत्स्म रण ... ... ... ... १२६-१७५ ५-ऋद्धिस्मरण ... ... ... ... १७६-२०३ ६-सिद्धिस्मरण ... ... २०३-२१८ ७-जयस्मरण ...
२१९-२२४ ८-विजयस्मरण ... ... ... ... २२५-२३५ ९-शान्तिस्मरण ... ... ... ... २३६-२७३
भाषास्तुतिया... ... ... ... २७४-२८१
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अद्भुतनवस्मरणस्तोत्र।
वर्धमानं जिनं नत्वा, - નવા શૌતમનાયમ્ | धासीलालेन मुनिना, નવમળમુચિતે છે ?
मङ्गलाचरण--- (૧) જૈનશાસનના પ્રણેતા, ચોવીસમાં તીર્થકર શ્રીવર્ધમાન જિનેશ્વરને નમરકાર કરી, િનશાસનનાયક, પ્રભુના પટ્ટશિષ્ય, ગણધર શ્રી ગૌતમ સ્વામીને નમરકાર કરીને આચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ હવે આપણને નવમરણનું માહાસ્ય સમજાવે છે.
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जिनेश्वर श्री वर्धमान भगवान को और गणनायक श्री गौतमस्वामी को नमस्कार करके श्री धासीलाल मुनि “ नवस्मरण" कहते हैं ॥ १ ॥ नव-नव-मङ्गल–जनकं,
नव-नव-संमोद-सन्दोहम् । नवनिधि-विधाननिपुणं,
क्रियते शुभदं नवस्मरणम् ॥ २ ॥ (२) २|| नवरभ२९॥ स्तोत्र अपूर्व, અવનવા માંગલિકોને જન્મદાતા છે. અવનવા આનંદ મંગળનો દાતા છે. નવનિધાનના પ્રાકટયમાં અદ્દભુત શક્તિ ધરાવે છે. એવા શુભફલપ્રદ નવમરણની હવે આપણે આરાધના શરૂ કરીએ છીએ.
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यह नवस्मरण, नवीन नवीन मङ्गलका जनक है, नवीन नवीन आनन्दराशिका दाता हैं, नवनिधियोंके उत्पादनकी अपूर्व शक्तिसे युक्त है ऐसे अपूर्व प्रभावयुक्त, शुभदायक इस " नवस्मरण स्तोत्र' की रचना करते हैं ।। २ ॥
नमो-भक्त-सुखं संपद्, ऋद्धिः सिद्धिर्जयस्तथा । विजयश्चापि शान्तिश्च, नवस्मरणमीरितम् ॥ ३॥
(3) 20 नवस्मनु विव२५५ नाये ४शव्या भु५५ छ :
(१)न१२ (नम२७२)३१. मग
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स्म२९], (२) मताभ२३सी पान ४२०२९, (3) सुपरभ२९], (४) सपत्रम२९१, (५) रिद्धिस्मरण, (६) सिद्धिस्मरण, (७) ४५स्म२९, (८) वियभ२९], (८) शान्तिસ્મરણ. ____ इस " नवस्मरण ” में (१) नमस्काररूप मङ्गलस्मरण, (२) भक्तामररूप आनन्दस्मरण, (३) सुखस्मरण, (४) संपत्स्मरण, (५) ऋद्धिस्मरण, (६) सिद्धिस्मरण, (७) जयस्मरण, (८) विजयस्मरण और (९) शान्तिस्मरण, इस प्रकार नौ स्मरण हैं ॥ ३ ॥
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नवस्मरणमाहात्म्य
सर्वमैत्रीकर स्तोत्रं, सर्वथा शान्तिकारकम् । सर्वदुःखहरं चैव, सर्वकल्याणकारकम् ४
(૪) નવમરણની આરાધના સર્વ જી સાથે મૈત્રી કરાવનાર છે, સર્વ રીતે શાંતિ ઉપજાવનાર છે. સર્વ પ્રકારનાં દુઃખ હરનાર છે, તેમજ સર્વ પ્રકારે કલ્યાણકારક છે.
सभीके साथ मैत्री स्थापित करनेमें सहायक, समी प्रकारसे शान्ति देनेवाले, सभी प्रकारके दुःखोंको हरनेवाले और सभीका कल्याण करनेवाले ये नव स्मरण हैं ॥ ४ ॥
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कासः श्वासो ज्वरो दाहः, कुक्षिशूलं भगन्दरम् । अर्शोऽजीर्ण-दृष्टिशूलं, मूर्धशूलमरोचकः ॥५॥ ફિરું છું,
_कष्ठरोगो जलोदरम्। कुष्ठं च व्याधयः सर्वे,
વિનશ્યતિ ન સંરાયઃ || ૬ | (૫) નવમરણની આરાધનાથી ઉધરસ, દમ સહિત શ્વાસોશ્વાસના સર્વ રેગે, તાવ, શરીરમાં ઉત્પન્ન થતે દાહ, પેટની આંકડી આંચકી-ચૂંક, ભગંદર, હરસ-મસા, અજીર્ણ, દષ્ટિશળ, મસ્તકશૂળ, અરુચિ જેવા રોગો તત્કાળ મટે છે તેમાં લેશમાત્ર સંશયને સ્થાન નથી.
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(૬) નવરમરણના પ્રભાવથી આંખની પીડા, કાનની પીડા, કંઠમાળા સહિત ગળાના સર્વ રેગે, જળદર, કોઢ જેવા સર્વ પ્રકારના રેગો નાશ પામે છે તેમાં જરા પણ સદેહ नथी.
इन नव स्मरणोंसे (१) खासी, (२) दमा, (३) ज्वर, (४) दाह-ज्वर, (५) पेटका दर्द, (६) बवासीर, (७) अजीर्ण, (८) दृष्टि-शूल, (९) भगन्दर, (१०) मस्तकशूल, (११) अरुचि, (१२) आंखका दर्द, (१३) कानका दर्द, (१४) कण्ठमाल, (१५) जलोदर और (१६) कुष्ठ आदि समस्त व्याधियां नष्ट हो जाता है, इसमें अणुमात्र भी सन्देह नहीं है ।। ५-६ ॥
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एतत्प्रभावात् सिंहाद्या,
दस्यवो वैरिणस्तथा । दूरादेव पलायन्ते,
नवस्मरणधारिणाम् ॥ ७ ॥ धोरासु सर्वबाधासु, वेदनासु तथैव च । एतस्य पठनादेव, सद्यो मुच्येत संकटात् ॥८॥
(૭) આ નવસ્મરણ ધારણ કરનારને સિંહ આદિ વિકરાળ પ્રાણીઓ તરફથી, ચારલુટારાઓ તરફથી, તેમજ શત્રુઓ તરફથી આવતા ઉપસર્ગો [ ત્રાસ] આ નવમરણના પ્રભાવથી રપર્શી શકતા નથી અને દૂરથી ભાંગી જાય છે.
(૮) ચારે બાજુથી ઘેર આફતનાં વાદળે
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ખડકાયાં હય, અસહ્ય વેદના ઊપડી હોય, તે સમયે આ નવ સ્મરણને પાઠ કરવાથી એ સર્વ સંકટમાંથી તુરત જ વિમુક્ત थवाय छे.
इनके प्रभावसे सिंह आदि भयङ्कर प्राणी, चोर-डाकू तथा शत्रुलोग दूरसे ही भाग जाते हैं, नवस्मरण धारियोंका ये अणुमात्र भी अपकार नहीं कर सकते । सभी प्रकारके भयं कर दुःखोंमें, सभी प्रकारकी वेदनाओंमें नवस्मरण के पाठमात्रसे ही मनुष्य, उनसे तत्काल मुक्त होजाते हैं ॥ ७-८ ॥ पिशाचाद्युपसर्गाश्च,
ग्रहपीडाश्च दारुणाः ।
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पाठश्रवणमात्रेण,
विनश्यन्ति नृणां ध्रुवम् ॥९॥ (૯) જે કોઈને ભૂત, પ્રેત, પિશાચ આદિ તરફથી ઉપસર્ગ ત્રિાસ થઈ રહ્યો હોય, કોઈને ત્રાસદાયક ગ્રહપીડા નડતી હોય તો આ નવ મરણને પાઠ કરવા માત્રથી અને સાંભળવા માત્રથી તે મનુષ્યની આવેલી આપત્તિ ઓસરી જશે તેમાં લેશ માત્ર શંકાને સ્થાન નથી. ____ भूत-पिशाच आदिका उपसर्ग और भयङ्कर ग्रहपीडा, इस नवस्मरण के पाठ के श्रवण मात्रसे अवश्यमेव नष्ट होजाती है ॥ ९॥ कायिकं वाचिकं पापं,
मानसं चापि दुष्कृतम् ।
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दुष्कृतोत्था विपत्तिश्च,
સાથે વાત ન સંચય | ૨૦ ||
(૧૦) તનથી તેમજ વચનથી ઉપાર્જન કરેલાં પાર્મોિ , તેમજ બે લગામપણે વિહરતા મૂકેલા મનના ઘોડાને કારણે મનથી ચિંતવેલ દુષ્કર્મો, તેમજ દુષ્કર્મોથી એકાએક આવી પડેલી આપત્તિ આ નવમરણના પ્રભાવથી નાશ પામે છે તેમાં જરા પણ સંશય રાખવા જે નથી.
मानसिक, वाचिक और कायिक पाप तथा पापजनित बिपत्तियां, इसके पाठ करनेसे तथा श्रवण मात्रसे निस्संदेह नष्ट होजाती हैं ॥१०॥
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१२ युद्धेषु विजयप्राप्तिः,
काननं नन्दनं वनम् । दुःस्वप्नश्चापि सुस्वप्नो,
भवत्यस्य प्रभावतः ॥ ११ ।। (११) 24 नवस्मराना प्रभाथी २९४ભૂમિમાં વિજયની વરમાળા પ્રાપ્ત થાય છે, નિર્જન જંગલ નંદનવન સમાન બને છે અને અશુભ સ્વાના શુકનવંતાં શુભ સ્વમાંએમાં પરિણમે છે. આ છે નવમરણનો પ્રભાવ
इस नव स्मरणके प्रभावसे युद्ध में विजय प्राप्त होता है, भयङ्कर वन भी नन्दनवन होजाता है और दुःस्वप्न भी सुस्वप्न हो जाता है ॥ ११ ॥
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राजद्वारे तथा युद्धे,
सभायां शत्रुसंकटे । उत्पाते च विवादे च,
विजयं लभते ध्रुवम् ॥ १२ ॥ (१२) या त। 241५ सारे ही, या સમરભૂમિ પર હૈ, સભાસ્થાને હૈ યા શત્રએની છાવણીમાં હો, ભયંકર ઉત્પાતમાં હો યા વાદવિવાદમાં હા પણ નમરણના પ્રભાવે કરીને વિજય ચોક્કસ તમારો જ છે તેમાં લેશ માત્ર શંકાને સ્થાન નથી.
राजद्वारमें, युद्धमें, सभामें शत्रुजनित विपत्तियोंमें, ग्रहादिजनित उत्पातमें और विवादमें, इस नव स्मरणके प्रभावसे मनुष्यों को अवश्यमेव विजय प्राप्त होता है ॥१२॥
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कान्तारे च महारण्ये,
प्रान्तरे दवसंकुले । તિથ્ય રાત્રીમ,
મૃતિરત રેસ્તથી || શરૂ છે. (૧૩) ધારે કે કઈ ઘર નિર્જન એવા મહા અરણ્યવનમાં અટવાઈ ગયા હૈ, બે દેશોના સિમાડા ઉપર ફસાઈ ગયા હૈ, ભયંકર દાવાનળમાં સપડાયા હૈ, ચોર ડાકુથી લૂંટાયા છે તે સમયે નવમરણના સ્મરણમાત્રથી સર્વ સંકટમાંથી મુક્ત થવાય છે.
- दवामिसे प्रज्वलित वन, अटबी और प्रान्तर [ दूर तक शून्य मार्ग ] में भी इसके
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स्मरणमात्रसे रक्षा होती है, शत्रुओं और चोरोंके उपद्रवसे मनुष्य इसके स्मरणमात्रसे મુ હોગાતે હૈં શરૂ છે. वृश्चिकैर्भुजगैश्चैव,
सूकरैः क्रोष्टुभिस्तथा । सिंहव्याधैः समाक्रान्तो,
વને વાSધ્યતિમિર | ૨૪ છે. (૧૪) વીંછી, સાપ, વકરેલે સુવર તથા શિયાળના ઉપસર્ગો આવી પડ્યા હોય તે સમયે, તથા કોઈ અરણ્યમાં સિંહ વાધ તથા જંગલી હાથી તમારી પાછળ સાક્ષાત્ કાળ મિતીરૂપે પડયા હોય તે સમયે નવમરણનું
સ્મરણમાત્ર એ સર્વ સંકટમાંથી છૂટવાનું સાધન છે.
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वन में वृश्चिक ( विच्छू) सर्प, शुकर, शृगाल, सिंह, व्याघ्र और जंगली हार्थी जिनका पीछा कर रहे हैं ऐसे मनुष्य, इन हिंसक प्राणियोंके संकटसे इसके स्मरणमात्रसे मुक्त हो जाते हैं ॥ १४ ॥
आधूर्णितो महावातैः
स्थितः पोते महार्णवे। राजाऽऽज्ञप्तो वधस्थानं,
नीतः कारागृहेऽपि वा ॥ १५ ॥ (૧૫) ધારો કે કોઈ માનવી ભયાનક વાવાઝોડાની આંધીના ચક્કરમાં ફસાયો હોય તેવે સમયે, તથા સમુદ્રપર્યટન દરમ્યાન મહા
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સાગરનાં ઘૂઘવતાં અને તાંડવના હિલોળે ચડેલાં મેજ સાક્ષાત કાળદેવયમરાજીનાં દર્શન કરાવતાં હોય તેવે સમયે, તથા રાજાની આજ્ઞાથી કોઈને વધસ્થાને–ફાંસીએ કે જેલમાં લઈ જવાતું હોય તે સમયે આ નવમરણનું
મરણ એ માનવીને સર્વ સંકટોમાંથી છૂટવાનું એક માત્ર સાધન છે. ____महासमुद्रमें जो जहाज पर बैठे हुए हैं,
और जिनका वह जहाज भयङ्कर आन्धी से डूब रहा ऐसे मनुष्य इसके स्मरण से उस आपत्तिसे छूट जाते है ॥ तथा जो राजाकी आज्ञासे वधस्थानमें लाये गये हैं, जो जेलमें रखे गये हैं, वहां भी इसके स्मरणसे रक्षा होती હૈ ?
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पतत्सु चापि शस्त्रेषु,
संग्रामे दारुणे. तथा । अस्य स्मरणमात्रेण,
संकटान्मुच्यते नरः ॥ १६ ॥
(૧૬) ભયંકર યુદ્ધ ખેલાઈ રહ્યું હોય અને શત્રુઓની છાવણીઓમાંથી જીવલેણ શસ્ત્રોને વરસાદ વરસતો હોય તે સમયે સર્વ સંકટમાં નવમરણનું સ્મરણમાત્ર જ અભયનું દાતાર છે.
तथा संग्राममें भयंकर शस्त्रवर्षा के बीचमें रहे हुए मनुष्य भी इसके स्मरणमात्रसे, उस संकटसे मुक्त हो जाते है ॥ १६ ॥
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अशेषानुपसगश्चि,
महामारीकृतानपि । रोगातङ्कभयं चैव, ____समस्तं शमयेद् द्रुतम् ।। १७ ॥
(૧૭) આવી પડેલા કે ઉપજાવેલા બધા જ ઉપસર્ગી–ત્રાસ, મહામરકીને ભયંકર રોગ, ઉપરાંત અન્ય જીવલેણ રોગો આ નવસ્મરણના મરણમાત્રથી જલદી શમી જાય છે.
शत्रुओं और ग्रहोंसे जनित समस्त उपसो का, और महामारीकृत उपसर्गो को, एवं रोग और आतङ्क से उत्पन्न समस्त भयोंका यह स्तोत्र शीघ्र ही शान्त कर देता है ॥१७॥ उन्मादश्चित्तविक्षेपा,
मूर्छाऽपस्मार एव च ।
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सद्यश्चैते निवर्तन्ते,
मात्रतः ॥१८ ॥ (१८) मननी उन्माद २३१२था, गांड५९, यितश्रम, वाई-लिटीरिया, 24ने મૂચ્છના રેગે, એ સર્વ નવરસ્મરણના મરણમાત્રથી નિવારી શકાય છે.
उन्माद, चित्तविक्षेप, मूर्छा, अपस्मार, (मिगी ) ये सभी रोग इसके स्मरणमात्रसे तत्काल ही निवृत्त होजाते हैं १८ ॥ सर्वपापप्रशमन,
सर्व सिद्धिविधायमम् । य इद' कीत येत् स्तोत्र,
स सुखी सर्वदा भवेत् ॥१९॥
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२१.
(૧૯) આ નવરમરણની આરાધના કરવાથી સધળા પાપેા શમી જાય છે. નવરસ્મરણ સર્વ પ્રકારની સિદ્દિદાયક છે. જે કાઈ ભવિજીવ આ સ્નેાત્રનું કીર્તન કરશે તે સદૈવ સુખી રહેશે.
समी पापोंका दूर करनेवाले, सभी प्रकारकी सिद्धियोंका देनेवाले इस स्तोत्रका जो मनुष्य पाठ करता है वह सर्वदा सुखी होता है ॥ १९ ॥
अभीष्ट प्राप्नुयात् सर्व, धनार्थी धनसंपदम् ।
अस्य प्रभावात् प्राप्नोति,
सुखं चात्र परत्र च ॥ २० ॥
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(२०) या स्तोत्रनी आराधनाथी भनવાંચ્છિત ફળ પ્રાપ્ત થશે. જેને ધનની અભિલાષા હશે તેનેધનસંપત્તિ મળશે, આ લોક તેમજ પરલોકમાં પણ સુખની જ પ્રાપ્તિ થશે.
इस स्तोत्रको पढनेवाला अपने सभी अष्टों [ अभीमिलषित वस्तुओं ] को प्राप्त करता है । धनार्थी धन पाता है । अधिक क्या कहा जाय, इसके प्रभावसे मनुष्य इस लोक और परलेाकमें सुख पाता है ॥ २० ॥ यद् गृहे लिखितं स्तोत्रं,
भयं तस्य न जायते ।
तत्रैव सफला संपत्,
स्थिरा भवति सर्वदा ॥ २१ ॥
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(૨૧) જેના ઘરમાં આ નવમરણ તેત્રની આરાધના થતી હશે ત્યાં બીક કે ભય ડેયુિં પણ કરી શકતું નથી. લક્ષ્મી ભલે ચંચલ કહેવાતી હોય છતાં આ સ્તોત્રના પ્રભાવથી આરાધકના ઘરમાં સઘળી સંપત્તિ સદૈવ અક્ષય અને અચલિત થઈને રહે છે.
जिसके धरमें हस्तलिखित यह स्तोत्र रहता है उसे भय नहीं होता है, और उस घरमें समी प्रकारकी संपत्तिया सर्वदा स्थिर रहती है ॥ २१ ॥ मोक्षप्रदं मुमुक्षूणां,
दरिद्राणां निधिप्रदम् । स्तोत्रमेतद् व्याधिहरं,
. ग्रहाणां शान्तिकारकम् ॥ ६२ ॥
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(૨૨) આ તેત્ર જેને મોક્ષની ઇચ્છા હેય તેને મોક્ષપ્રદ એટલે કે મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવનાર છે. જે ધનરહિત છે તેને ધનની પ્રાપ્તિ કરાવનાર છે જેને કોઈ ખરાબ ગ્રહદશા નડતી હેય તેમજ આધિ, વ્યાધિ અને ઉપાધિમાંથી પસાર થતા હોય તેને માટે શાંતિનું ધામ છે.
यह स्तोत्र मोक्षाभिलाषियोंको मोक्ष देता है, दरिद्रोंका निधि देता है, व्याधियों को दूर करता है और अशुम ग्रहोंको शान्त करता हे ॥ २२ ॥ भेदे राज्ञः प्रजानां च,
दम्पत्योः प्रीतिभेदने । गुरौ शिष्ये च संघेषु,
मैत्रीकरणमुत्तमम् ॥ २३ ॥
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(૨૩) રાજા અને પ્રજા વચ્ચે કોઈ મેટે મતભેદ ઊભું થયું હોય તેવે વખતે, પતિ અને પત્ની વચ્ચે હેવી જોઈતી પ્રેમાળતા ને બદલે કટુતા વ્યાપી હોય તે સમયે તથા ગુરુ, શિષ્ય અથવા શ્રીસંઘ વચ્ચે ઊંચાં મન થયાં હોય તેવે વખતે આ નવમરણ રસ્તોત્ર, એ સઘળી કઢતા તેડીને અતૂટ મૈત્રી ઉપજાવનાર ઉત્તમ મિત્રની ગરજ સારે છે. ___यह स्तोत्र, राजा और प्रजाके बीचके मतभेदका, दंपतीके प्रीतिभेदको, गुरु-शिष्य के वैमनस्यको दूर करता है और संघमें अटूट मैत्रीभाव स्थापित करता है २३ ॥ मानोन्नतिर्भवेल्लोके
यशसा परिवर्धते ।
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आधिपत्यं च लभते,
सर्वदा स्तोत्रपाठकः ॥ २४ ॥ . (૨૪) આ સ્તોત્રનું પઠન કરનારને આ લેકમાં માન-મરતબો વધે છે, યશ-કીર્તિ ખુબ વૃદ્ધિ પામે છે. અને પિતાના હેદ્દા ઉપર Gपरी५ (-ग्रेड-मविपति५) १धे छे. - इस स्तोत्रका नित्य पाठ करनेवाला सर्वत्र सन्मान पाता हैं, सर्वत्र उसके यशकी ख्याति होती है, वह उत्तम आधिपत्यको प्राप्त करता है ॥ २४॥ एतत्प्रभावाद् भव्यानां,
सर्वसौख्यपरम्परा । तथा तिष्ठति मेदिन्यां
पुत्रपौत्रादिसंततिः ॥२५॥
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(२५) २॥ स्तोत्रना प्रभाथी भविજને સર્વ રીતે સુખની પરંપરા ભગવે છે. અને આ લેકને વિષે પુત્ર, પૌત્રાદિક એહિક સુખ પ્રાપ્ત કરે છે.
इस स्तोत्रके प्रभावसे भव्योंको सौख्य परम्परा प्राप्त होती है, तथा इस स्तोत्रके पढनेवाले भव्योंकी पुत्र-पौत्रादि सन्तति-परंपरा सुखसे रहती है ॥२५॥ इहलोके सुखं सिद्धिं,
____मङ्गलं सर्वसंपदः। प्राप्य जीवः परभवे,
मोक्षं वा स्वर्गमाप्नुयात् ॥२६॥ (૨૬) આ રસ્તોત્રની આરાધનાથી માનવી
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આ લેકમાં સુખ, સમૃદ્ધિ, સિદ્ધિ, માંગલિક પ્રસંગે તથા સર્વ પ્રકારની શુભ સંપત્તિ મેળવે છે. સાથે સાથે પરભવને વિષે મેક્ષપદ અગર છેવટે સ્વર્ગલેક તે પામે છે જ.
___ इसके स्मरण से जीव इस लोक में सुख, सिद्धि, मङ्गल और सभी संपदाओंको प्राप्तकर परभव में मोक्ष अथवा देवलोक पाता है ॥२६॥
॥ इति नवस्मरणमाहात्म्य ॥
*
(१)-नमस्काररूप प्रथम मंगलस्मरण ।
(१) नमो अरिहंताणं, (२) नमो सिद्धाणं,
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(૩) નમો માયરિયા, (૪) નમો ઉવજ્ઞાયાળ, (૫) નમો ઢોણ
જેણે રાગ દ્વેષ આદિ આત્માના અઢારે શત્રુઓને હણ્યા છે, એવા અરિહંત પ્રભુને નમસ્કાર હ. ૨) જેઓ આત્માનાં સર્વ કર્મ ખપાવી, સકળ કાર્ય સિદ્ધ કરી, અચળ સિદ્ધપદને પામ્યા છે તેવા સિદ્ધ પરમાત્માને નમરકાર હશે. (૩) શ્રી આચાર્યજીને નમકાર હજો. (૪) શ્રી ઉપાધ્યાયજીને નમરકાર હજો. (૫) લેકને વિષે વિચરતા સર્વ સાધુ, સાધ્વીજીઓને નમરકાર હજો.
આ પાંચ નવકાર (નમરકાર) સર્વ
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પાપને નાશ કરનાર છે. અને સર્વ માંગલિકોમાં સર્વ પ્રથમ કક્ષાનું મંગળ છે.
श्री १ अरिहन्त भगवानको नमस्कार हो । २ श्री सिद्ध भगवानको नमस्कार हो । ३ आचार्यको नमस्कार हो । ४ उपाध्यायको नमस्कार हो । ५ लोक में वर्तमान सर्व साधुमुनिराजको नमस्कार हो। एसो पंचनमुक्कारो,
सव्वापावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसि,
पढमं हबइ मंगलं ॥१॥ ૧ | જેમ ચારિત્રની બાબતમાં યથાખ્યાત નામનું ચારિત્ર પ્રથમ કક્ષાનું છે, સર્વ
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વિમાં , કર્મરૂપી શત્રુઓ ઉપર મેળવેલ વિજય (અરિહંતપણું) શ્રેષ્ઠ છે, તેમ સર્વ મંત્રોમાં પંચ પરમેષ્ઠિને નવકાર મંત્ર શ્રેષ્ઠ છે.
यह पञ्चनमस्कार सभी पापोंका नाशक है, और सभी मङ्गला में प्रधान मङ्गल है। चारित्रेषु यथाख्यातं, जयेषु कर्मणां जयः ।
परमेष्ठिनमस्कारस्तथा मंत्रेषु विद्यते ॥१॥
जैसे चारित्रों में यथाख्यात चारित्र और जयों में कम जय मुख्य है, वैसे ही मन्त्रों में पंच परभेष्ठि नमस्कार मन्त्र मुख्य है ॥१॥ गोत्रेषु तीर्थकृद्गोत्रं,
यथा गन्धेषु चन्दनम् । परमेष्ठिनमस्कार,
स्तथा मत्रेषु विद्यते ॥ २ ॥
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કેરા ગોત્રની બાબતમાં જેમ તીર્થકર ગોત્ર શ્રેષ્ઠ ગણાય છે, સુવાસમાં જેમ ચંદનની સુગંધિ ઉત્તમ ગણાય છે તેવી રીતે સર્વ પ્રકારના મંત્રોમાં નવકારમંત્ર પ્રથમ કક્ષાને મંત્ર છે.
जैसे गोंत्रो में तीर्थङ्कर गोत्र श्रेष्ठ है गधनें चन्दन श्रेष्ठ है, वैसे ही मन्त्रों में, पञ्चपरमेष्ठि नमस्कार श्रेष्ठ है ॥ २ ॥ एव पञ्चनमस्कारः,
सर्वपापप्रणाशनः । एतादृशा जगत्यस्मिन्
મત્ર અsfપ ન વિદ્યતે | 3 | એવા આ પાંચ નવકાર(નમરકાર) સર્વ
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પાપ પુજને નાશ કરનાર છે અને સર્વ માંગલિમાં પ્રથમ કક્ષાનું મંગળ છે.
यह पञ्च नमस्कार सभी पापोंका विनाशक है। इस जगत् में इसके समान दूसरा વોર્ડ મત્ર નર્ટી હૈ રૂ . यशःकीर्ति बलं लक्ष्मी,
विविधं च महोत्सवम् । नवं नवं प्रमोदं च,
___ लभते नात्र संशयः ॥ ४ ॥
૪ નવકાર મંત્રના પ્રભાવે કરીને આરાધક યશ, કીર્તિ, રાશક્તતા, લક્ષ્મી તથા આનંદ મંગળ વરતાય તેવા વિધિ પ્રકારના શુભ અવસરના મહેન્સ, અવનવા આનંદ પ્રમોદ મેળવે છે તેમાં કોઈ સંદેહ નથી.
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इस मन्त्रको जपने वाले भव्योंको यश, कीर्ति, बल, लक्ष्मी, अनेक प्रकारके महोत्सव
और नवीन नवीन आनन्द निस्संदेह प्राप्त होते है॥४॥ नवलक्षजपादस्य,
षट्षष्टिलक्षयोनिकाः । क्षपयेन्मानव : शुद्ध
स्ततो याति परां गतिम् ॥५॥ પાં નવકાર મંત્રના નવ લાખ જાપ શુદ્ધ ભાવે રટણ કરનાર આરાધકને છાસઠ (६६) सास, जीतरता क्षानी योनिमा मમરણના ફેરા કરવા પડતા નથી પણ પરમ ઉચ્ચ ગતિને પામે છે.
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इस नमस्कार मन्त्रके नौलाख जाप जपने से मनुष्य छियासठ लाख योनियोंको खपाकर शुद्ध हो जाता है, और परम गतिको प्राप्त करता है ॥५॥
अष्टकोट्यष्टलक्षाणि,
____सहस्राष्टकमेव च। अष्टोत्तरं चाष्टशतं,
जपित्वा तीर्थकृद् भवेत् ॥६॥ છેદો જે આરાધક નવકાર મંત્રના આઠ કરેડ, આઠ લાખ, આઠ હજાર, આઠસે આઠ વખત જાપ કરે છે તે શ્રેષ્ઠ એવું તીર્થ - કેર નેત્ર ઉપાર્જન કરે છે.
आठ करोड, आठ लाख, आठ हजार, आठ सौ आठ (८८८८८८८) बार जप करके अनुष्य तीर्थ कर गोत्र बांधता है ॥६॥
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एनं संस्मृत्य भावेन, __यत्र यत्रैव गच्छति। तत्र तत्र भवेत् सिद्धि,
___ सर्वाभीष्ट-पदार्थगा ॥ ७ ॥ મેળા જે આરાધક આવી રીતે શુદ્ધ ભાવથી નવકાર મંત્રનું સંરમરણ કરે છે, તે જયાં જયાં જાય છે ત્યાં ત્યાં મનવાંછિત ફળ દેનારી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે. ___इस नमस्कार मन्त्रको भावपूर्वक स्मरण करके मनुष्य, जहाँ जहा जाता है वहाँ वहा उसके सभी अभिलषित वस्तुओंकी सिद्धि होती है ॥ ७॥
પ્રથમ મંગલ મરણ સમાસ ॥ इति नमस्कार रूप मङ्गल स्मरण ।
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२-श्री वर्धमानभक्तामरस्तोत्रम्
आनन्द स्मरणમામ–પ્રવર–ઢિ-મા-ત્રનેy,
sોતિ –પ્રભૂત-સઢિપુ સરોવરેષ चेतोलि-मजु-विकसत्कमलायमानं,
श्री-वर्द्धमान-चरणं शरणं व्रजामि ॥१॥ (૧) ભક્તિના ઉત્કર્ષ ભાવથી નામરકાર કરવા લચી પડેલા, દેના મસ્તકના મુગટમણિમાંથી ઉત્પન્ન થતા જાણે કે તિરૂપી સરવરે છે, તે સરેવરમાં તિરૂપ જલ ભરેલું છે. તેમાં પ્રભુનાં ચરણ પંચવણું કમળવન સમાન શેભે છે અને ભવ્ય જીના ભ્રમરરૂપી મનને આકર્ષે છે, તેવા શ્રી મહાવીર સ્વામીના ચરણેનું શરણ હું ગ્રહું છું.
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भक्ति के उत्कृष्ट भावसे नमस्कार करने के लिये झुके हुए देवोंके मस्तकोंके मुकुटोमें जडे हुए मणियोंके समूहरूपी सरोवर हैं, उन मणिरूपी सरोवरोंमें मणियोंकी ज्योतिरूप जल भरा हुआ है। उनमें प्रभुके चरण पञ्चवर्ण कमलवनके समान शोभित होरहे हैं और वे भव्य जीवोंके मनरूपी भ्रमरोंको आकृष्ट कर रहे हैं, ऐसे श्री महावीर स्वामीके चरणोंका शरण लेता हूँ॥१॥ आनन्द-नन्दन-वनं सवनं सुखानां,
सद् भावनं शिव पदस्य परं निदानम् । संसार पार-करणं करणं गुणानां,
नाथ ! त्वदीय चरणं शरणं प्रपद्ये ॥२॥
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(२) हे नाथ ! आपना यर । मानદનું નંદનવન છે, સદ્દભાવ ઉત્પન્ન કરનાર અને મોક્ષપદ આપનાર છે, સંસારસાગર તારનાર સમ્યફ જ્ઞાનાદિ અનેક ગુણનો ભંડાર છે એવા હે નાથ ! આપનાં ચરણનું હું શરણ લઉં છું
हे नाथ ! आपके चरण, आनन्दके नन्दनवन हैं, सद्भाव उप्तन्न करनेवाले और मोक्षपद देनेवाले हैं, संसारसागरसे पार उतारने वाले हैं और सम्य ज्ञानादि अनेक गुणों के भंडार हैं। हे नाथ ! आपके शरणागतवत्सल इन चरणोंका शरण में लेता हूँ ॥२॥ सिद्धौषधं सकल-सिद्धि-पदं समृद्धं ___ शुद्धं विशुद्ध-सुखदं च गुणैः समिद्धम् ।
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ज्ञानप्रदं शरणदं विगता-ध-वृन्द, ___ ध्यानास्पदं शिवपदं शिवदं प्रणौमि ॥३॥
(3) हे प्रभु ! मापन! यी, भी રોગ માટે સિદ્ધ ઔષધ છે. શુદ્ધ અવ્યાબાધા સુખાદિ આત્મિક ગુણથી ઉજજવળ છે. આપ જ્ઞાનને પ્રકાશ કરનાર, અભયના દેનાર શાંતિના ધામ છે, એવા ધ્યાનના આધારભૂત વીરપ્રભુના ચરણને હું વારંવાર પ્રણામ કરું છું. . हे प्रभु ! आपके चरण, कर्मरूपी रोगके लिये सिद्ध औषध हैं, शुद्ध हैं, अव्यावाध आत्मिक सुखादिको देने वाले हैं, शुभ लक्षण रूप गणों से उज्जवल है, ज्ञान एवं अभयके दायक और विघ्नोंक दूर करने वाले है. ऐसे
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ध्यान के आधारभूत, कल्याणप्रद आपके मङ्गलमय चरणोंको में वारंवार नमस्कार करता हूँ ॥ ३ ॥
बालो विवेक विकलो निज-बाल-भावादाकाश - मान-मपि कर्तुमिव प्रवृत्तः । ज्ञानाद्यनन्त-गुण-वर्णन-कर्तृ - कामः,
कामै भवामि करुणाकर ! ते पुरस्तात् ॥४॥
(૪) જેમ બાળક બાલભાવે કૂદતુ વિવેક વિના આકાશને માપી લેવા તૈયાર થાય છે, તેમ આપની આગળ આપના જ્ઞાનાદિ અન ત ગુણાનુ જ્ઞાન કરવા, હું તત્પર થયેા છું, તે भने क्षमा, प्रभु !
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કર
जैसे विवेकज्ञान से रहित बालक अपने बाल भावके कारण कूदता हुआ आकाशको भी मापनेके लिये तैयार हो जाता है, उसी प्रकार हे प्रभु ! आपके आगे आपके ज्ञानादि अनन्त गुणोंके गान करनेके लिये में तप्तर हुआ हूँ। हे करुणाकर ! मेरी धृष्टताको आप क्षमा करना ॥४॥ स्पशों मणिर्नयति चेन्निज-संनिधानात्
लोहं हिरण्य-पदवी-मिति नात्र चित्रम् ।, किन्तु त्वदीय मनुचिन्तन-मेव दूरात्,
साम्यं तनोति तव सिद्धिपदे स्थितस्य ॥५॥
(૫) જેમ પારસમણિના રપર્શથી લેખંડ સેનું બને છે તેમાં આશ્ચર્ય નથી. પણ આપ
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ઘણે દૂર છે છતાં આપનું ધ્યાન ધરવા માત્રથી જીવ આપ સમાન બને છે તે ખરેખર साश्चय छे.
पारसमणि तो अपने स्पर्श से लोहेको सोना बनाता है परन्तु उस लोहेको पारसमणि नहीं बना सकता, परन्तु, हे प्रभु ! आप तो बहुत दूर (मोक्षमें ) होते हुए भी आपके ध्यानमात्र से जीव आपके समान हो जाता है यह अवश्य आश्चर्य है ॥५॥ कुन्देन्दु-हार रमणीय-गुणान् जिनेन्द्र !,
वक्तुं न पारयति कोपि कदापि लोके कः स्यात् समस्त-भुवन-स्थित जीव-राशे,
रेकैक-जीवगणनाकरणे समर्थः ? ॥६॥
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(६) हे प्रभु ! म समस्त सोना અનંત જીવ રાશિની એક એક જીવ કરીને સંખ્યાની ગણતરી કરવા કોઈ શક્તિમાન નથી, તેમ આપના કુન્દપુષ્પ, ચન્દ્ર અને મોતી સમાન નિર્મળ ગુણનું વર્ણન કરવા કોઈ સમર્થ નથી. ___ हे प्रभु ! जैसे समस्त लोकके अनन्त जीव राशिकी, एक एक जीव करके गणना करनेमें कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार आपके कुन्दपुष्पके समान उज्ज्वल, चन्द्र के समान निर्मल, और मोतियोंके हारके समान स्वच्छ गुणोंके वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं है ॥६॥
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शक्त्या विनापि मुनिनाथ भवद्गुणानां . गाने समुद्यत-मतिनहि लज्जितोऽस्मि । मार्गेण येन गरुडस्य गतिः प्रसिद्धा,
तेनैव किं न विहगस्थ शिशुः प्रयाति १७
(७) : भुनीश्वर ! 2014ना शुशनु વર્ણન કરવા હું શક્તિહીન છું, છતાં ઉધમવંત થાઉં છું તેની શરમ મને નથી. કારણ જે માર્ગે પક્ષીરાજ ગરુડ ઊડે છે તે માર્ગ પક્ષી નું બચ્ચું શું નથી જતું ? અર્થાત–એ જ માર્ગે ઊડવાને પ્રારા કરે છે.
हे मुनिनाथ ! आपके गुणों के वर्णन करने में में समर्थ नहीं हूँ, तो भी इसके लिये उद्यत हो रहा हूँ, इस में मुझे लज्जा नहीं है
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क्यों कि जिस मार्ग से पक्षिराज गरुड़ ऊडता है उस मार्ग से क्या पक्षका बच्चा नहीं ऊडता ? अर्थात् उसी मार्ग से ऊडता है ॥७॥ त्वद्वाक्सुधासुरुचिरेव विभो ! बलान्मां, ____वक्तुं प्रवर्तयति नाथ ! भवद्गुणानाम् । यद् वर्द्धते जलनिधिस्तरलैस्तरंग-, स्तत्रास्ति चन्द्रकिरणोदय एव हेतुः ॥८॥
(૮) જેમ પૂર્ણિમાને દિવસે ઊગતા ચંદ્રનાં કિરણોના પ્રભાવથી સમુદ્રના ચંચલ તરંગ ઊછળે છે તેમ, હે પ્રભુ ! આપની અમૃતમય વાણી, આપના જ્ઞાનાદિ નિર્મળ ગુણેનું વર્ણન કરવા બળથી મને પ્રેરે છે. ___ जैसे पूर्णिमाके दिन ऊगते हुए चन्द्रमा
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की किरणोंके प्रभाव से समुद्रकी चञ्चल तरङ्गे उछलने लगती है, उसी प्रकार, हे प्रभु ! आपकी अमृतमयी वाणी, आपके ज्ञानादि गुणोंके वर्णन करनेके लिये मुझे, बलपूर्वक प्रेरित करती है ॥८॥
अज्ञान-मोह-निकरं भगवन् ! हृदिस्थं, ___ हर्तुं प्रभु प्रवचनं भवदीयमेव । गाढं स्थिरं चिरतरं तिमिरं दरीस्थं, हत्तु प्रमुः सुरुचिरा रुचिरेव नान्यत् ।।९।।
(૯) જેમ લાંબા વખતથી ગુફામાં જામેલ અંધકારને દૂર કરવા મણિના પ્રકાશ સિવાય બીજો ઉપાય નથી, તેમ હે ભગવાન! અનાદિ કાળથી હૃદયમાં રહેલ અજ્ઞાન મોહ–સમૂહ
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ના આવરણરૂપી અંધકારને દૂર કરા આપના પ્રવચનરૂપી પ્રકાશ માત્ર એક જ समर्थ छे.
जैसे बहुतकाल से गुफा में स्थित अन्धकारको दूर करनेके लिये मणिके प्रकाशके अतिरिक्त कोई दुसरा साधन नहीं है, उसी प्रकार हे भगवान् ! अनादिकाल से हृदय में स्थित अज्ञान और मोहके समूहरूप आवरण जनित गाढ अन्धकारको दूर करने में आपके प्रवचनरूपी प्रकाश ही एक समर्थ है ॥ ९ ॥ वाक्यं प्रमाण -नय-रीति-गुण-विहीनं,
निर्भूषणं यदपि बोधिद ! मामकीनम् । स्यादेव देव-नर- लोक - हिताय युष्मत्
संगाद् यथा भवति शुक्ति - गतो - दबिन्दुः १०
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(૧૦) હેતરણતારણ નાથ ! મારું કથન ગુણના પ્રભાવ આદિથી શૂન્ય છે. છતાં તે થન દ્વારા આપના અનુપમ નિર્મળ ગુણા ગવાતા હોવાથી જેમ સ્વાતિ નક્ષત્રમાં પાણીનુ બિન્દુ છીપમાં પડવાથી મેાતી બને છે, તેમ મારું કથન આપના પ્રભાવશાળી નામ અને ગુણાના સુયોગે કરીને આ લોક અને પરલાકમાં દેવ અને મનુષ્યને કલ્યાણનું સાધન થશે.
हे बोधिदाता भगवन्, मेरी वाणी यद्यपि प्रमाण, नय, काव्यरीति और काव्यगुणों से रहित होनेके कारण अलङ्कार रहित है तो भी उस वाणीका प्रयोग मैंने आपकी स्तुतिके निमित्त किया है, अत एव वह देव और मनुष्य
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आदि सभी प्राणियों के लिये अवश्य हितकारक बनेगी, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है, जैसे कि स्वाति नक्षत्रमें तुच्छ भी पानीकी बँद सीप में पड़ने से मोती बन जाती है ॥१०॥
आस्तां तव स्तुति-कथा मनसो प्यगम्या,
नामापि ते त्वयि परं कुरुते-नुरागम् । जम्बीर-मस्तु खलु दूरतरेपि देव !
नामापि तस्य कुरुते रसनां रसालाम् ॥११॥
(११) हे प्रभु! म २ पडे सी, માત્ર યાદ કરવાથી મોઢામાં પાણી લાવે છે, અને તેના રસને વાદ કરાવે છે, તેમ આપના કલ્યાણકારી નામને જાપ કરનારના
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હૃદયમાં આપના નામનું ઉચ્ચારણ, આપના અપૂર્વ મહિમાવાન ગુણની ભક્તિનો ભાવરસ उत्पन्न ३ छ. ___हे प्रमु ! जैसे दूर पडा हुआ भी नींबू मात्र स्मरण करने से मुँह में पानी लाता है
और अपने रसका स्वाद कराता है, उसी प्रकार आपके कल्याणकारी नामका जप करने वालेके हृदय में, आपके नामका उच्चारण आपके अपूर्व महिमायुक्त गुणों के प्रति भक्तिभाव का रस उत्पन्न करता है ॥११॥ नाना-मणि-प्रचुर–कांचन-रत्न-रम्यं,
स्वीयं प्रयच्छति पदं जनकः सुताय ! . त्वद्-ध्यान-मेव जिनदेव ! पदं त्वदीयं,
भव्याय नित्य-सुखदं प्रकटी-करोति ॥१२॥
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(१२) पिता पाताना पुत्रने भनि, २त्न, સુવર્ણ વગેરે મૂલ્યવાન ધન–રાંપત્તિને વાર આપે છે, જે નાશવત છે. પણ હે જિનેન્દ્ર ભગવાન! તેના કરતાં તે ભવ્ય જિનેને આપનું ધ્યાન, નિત્ય સુખદાયી, અવિનાશી મેક્ષ પદ આપે છે જે એક માત્ર શાશ્વત છે.
पिता अपने पुत्रको मणि, रत्न, सुवर्ण आदि मूल्यवान् धनसम्पति से युक्त अपना पद देता है अर्थात् अपना अधिकारी बनाता है, परन्तु हे जिनेश्वर ! आपका ध्यान तो भव्य जीवोंको नित्य सुखदायी अविनाशी मोक्षपद देता है जो कि अविनश्वर होनेके कारण शाश्वत है। अत एव हे भगवन् ! पिताके द्वारा दी गयी
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सम्पक्तिकी अपेक्षा आपके ध्यानके द्वारा दी गयी सम्पति अनन्तगुण बहु मूल्य है ॥ १२ ॥ જ્ઞાનાથનત-મુળ-ગૌરવપૂર્ણ —સિધુ,
बन्धु भवन्त - मपहाय परं क इच्छेत् ? । प्राज्यं प्रलभ्य भुवन - त्रितयस्य राज्यं,
कः कामयेत किल किंकरतात्मबुद्धिः ॥ १३ ॥ (૧૩) હે પ્રભુ ! આપ જ્ઞાનાદિ અનંત ગુણાના સમુદ્ર છે, સંસારના અ શરણ જીવાને શરણરૂપ છે, દયાના સાગર છે, બાન્ધવહીનના બ ધુ છે, એવા આપનું શરણ છેડી ક્રાણુ બીજાને ઇચ્છે ? કારણ કાણુ એવે! મૂખ હાય કે જે ત્રિભુવનનુ રાજ્ય પ્રાપ્ત કર્યો છતાંયે તે ત્યજી દાસત્વની ઇચ્છા કરે ? અર્થાત્ ફાઈ ન કરે.
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हे प्रभु ! आप ज्ञानादि अनन्त गुणों के समुद्र हैं, संसारके अशरण जीवोंके शरणरूप हैं ! दयाके सिन्धु हैं , जगत्के निष्कारण बन्धु हैं, ऐसे आपको छोडकर दूसरे की चाहना कौन करे ? क्योंकि कौन ऐसा मूर्ख होगा कि जो त्रिभुवनका राज्य मिलने पर भी उसको छोड़कर दासताकी इच्छा करे ? अर्थात् कोई भी इच्छ। नहीं कर सकता है ॥१३॥
त्वद्-गात्रता-परिणताः परमाणवोऽपि,
सर्वोत्तमा निरुपमाः सुषमा भवन्ति । लब्ध्वा शरण्य ! शरणं चरणं जनास्ते,
सिद्धा भवेयुरिति नाथ ! किमत्र चित्रम्॥१४॥
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(१४) ह मिनेन्द्र ! 204ना शरीरपणे પરિણમેલા જડ પરમાણુઓ પણ સુંદર સર્વોત્તમ થઈ સુખ શાંતિદાયક ઠર્યા છે તે પછી હે પ્રભુ! કોઈ પુરુષ આપના ચરણનું શરણ મેળવી સિદ્ધપદને પ્રાપ્ત કરે તેમાં शु आश्चर्य छ ? ___ हे जिनेन्द्र ! आपके शरीररूप में परिणत हुए जड परमाणु भी सुन्दर एवं सर्वोत्तम शोभाशाली बन जाते हैं, तो फिर हे प्रभु ! कोई पुरुष आपके चरणोंका शरण गहकर सिद्ध पदको प्राप्त करे उस में क्या आश्चर्य ॥१४॥ कश्चंडकौशिक-समं भव–सिन्धुपारं, नेता सुदर्शन-समं च जगत्त्रयेपि ।
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हे नाथ ! तत् कमय ते चरणाम्बुजस्य,
येनोपमा गुणलवेन घटेत लोके ॥१५॥
(૧૫) ચંડકૌશિક જેવા પરમ ડેરી, દષ્ટિવિષ સર્પ જેવા અધમને અને શીલવંતા સુદર્શન શેઠ જેવા ઉત્તમને, રામભાવથી ભવસિંધુ પાર કરાવનાર આપ સિવાય અન્ય કેઈનથી. તો પછી હે નાથ ! દયા કરી આપ જ કહે કે કઈ વસ્તુથી આપના ચરણકમલની ઉપમા આપી શકાય? ___विषय विषवाले, दृष्टिविष चण्डकौशिक सर्प जैसे अधमको, और सुदर्शनशेठ जैसे शीलवान् उत्तम पुरुषको भेदभाव विना समरूप से भवसिन्धु पार करानेवाला आपके अतिरिक्त
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दुसरा कोई नहीं है । तो फिर हे नाथ ! आप ही कहें कि आपके चरणकमलोंकी उपमा સિ વરંતુ હી ગાય ? Hill ઢોરો મંગારુ–મોઢરૂં, ___ स्यन्दं वचो-मृत रसस्य जगत्यमन्दम् ।
–વયુવ૮ મવ– –વવું, વા મુદ્દે મનસિ મર્ચન્વો –વૃન્દ્રમ્ |
(૧૬) હે પ્રભુ! સર્વ લેકમાં ઉત્તમ તથા સર્વ રીતે મંગલકારી એવું આપનું મુખરૂપી ચંદ્રમંડળ, આનદ મંગળના ધામ સમેસરણમાં દેશના પ્રવચનરૂપી અમૃતરસને જેમાંથી ઝરે વહે છે તેવું મુક્તિધામ આપનારું મુખચંદ્ર જોઈ ચર પક્ષી જેવા ભવ્ય-જીવસમૂહે સદા હર્ષ પામે છે.
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हे प्रभु! सभी लोको में उत्तम तथा सभी प्रकार से मङ्गलकारी और आनन्ददायक ऐसा आपका मुखरूपी चन्द्र मण्डल कि जिसमें से आनंद मङ्गलके धाम समवरण में देशना रूपी अमृतरसका झरना झरता है । देवलोक और मोक्ष सुखको देनेवाले ऐसे आपके मुखचंद्रको देखकर चकोर पक्षीरूपी भव्य जीव सर्वदा आनन्दमम होते है ॥ १६ ॥ भ्रान्त्यापि भद्र - मुदितं भवदीय - नाम, सिद्धे - विधायि भगवन् ! सुकृतानि सूते । अज्ञानतोऽपि पतितं सितखंड-खंडम्,
मुखे मधुराण - खंड - मेव ॥१७॥ (१७) नेम सभाएगयो पशु भोढाभां
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નાખેલા સાકરના ગાંગડાની મીઠાશ જીભ ઉપર કાયમ રહી જાય છે. તેમ હે પ્રભુ! આપનું કલ્યાણકારી નામ ભૂલથી પણ કિઈ લે તે તે સુખ, સંપત્તિ અને સાચું પુણ્ય મેળવે છે.
जैसे अनजान में भी मुंह में पड़ा हुआ मिसरीका टुकडा अखंड मीठास को देता हैं अर्थात् संपूर्ण मुहको मीठा बना देता है, उसी प्रकार हे प्रभु ! कल्याणकारी आपके नामका उच्चारण यदि कोई भूल से भी करे तो वह सुख, सम्पति और पुण्यको उत्पन्न करता है, इस में सन्देहकी कोई संभावना नहीं ॥१७॥ यो मस्तकं नमयते जिन ! ते ऽघ्रिपद्मे,
सर्वर्द्धि-सिद्धि-निचयः श्रयते तमेव ।
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तीर्थकरः शुभकरः प्रविभूय सोय, स्थानं प्रयातिपरमं ध्रुव-नित्य-शुद्धम्
॥१८॥ (૮) હે પ્રભુ ! આપના ચરણકમલમાં જે જીવ પિતાનું મસ્તક નમાવી આપને સર્વદા નમસ્કાર કરે છે તેને આ જગતમાં સર્વ પ્રકારની રિદ્ધિ-સિદ્ધિ મળે છે. એટલું જ નહિ પણ નમરકાર કરનાર આત્મા તેના ફળરૂપે પુણ્યના ઉદયવડે ક્રમશ: તીર્થ”. કર થઈ કલ્યાણ કરનાર બને છે અને શાશ્વત મોક્ષ પદ પ્રાપ્ત કરે છે.
हे प्रभु ! जो जीव नतमस्तक होकर आपके चरणकमलों में नमस्कार करता है उसको इस
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जगत् में सभी प्रकारकी ऋद्धिसिद्धि मिलती है। इतना ही नही बल्कि नमस्कार करने वाला जीव, उस नमस्कारके फलस्वरूप पुण्यके उदय से क्रमशः तीर्थकर होकर जगत् कल्याण करने वाला हो जाता है और शाश्वत मोक्ष पदको प्राप्त करता है ॥१८॥ पृच्छामि नाव-मधुना मुनिनाथ ! नित्यं, _____प्राप्ता त्वया तरणतारणता हि कस्मात् ? । सा नोत्तरं वितनुते त्वमपि प्रयात-, स्तद् ब्रूहि कोऽस्ति परितोष-करस्तृतीयः॥१९॥
(१८ भुनियाना नाथ ! हुँ । શરીરરૂપી નૌકાને નિત્ય પૂછું છું કે આ તરવા તારાની કળા તું ક્યાંથી શીખી ?
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પરંતુ નૌકા મને કાંઈ ઉત્તર આપતી નથી, આપ પણ નિર્વાણ પામ્યા છે અને સિદ્ધ ગતિમાં બિરાજયા છે, માટે હે પ્રભુ ! આપ જ મને કહે કે આ પ્રશ્નને સંતેષકારક ઉત્તર આપે એ ત્રીજો કોણ છે? (સદ્દગુરુ સિવાય કોઈ ઉત્તર આપી શકશે नही.)
हे मुनिनाथ ! मैं इस नौकाको नित्य पूछता हूँ कि हे नाव ! यह तरने और तारनेकी कला तूने कहा से सीखी ? परन्तु नौका सो कुछ उत्तर देती नहीं और आप भी निर्वाण प्राप्तकर सिद्धगति में विराज रहे हैं, तो हे प्रभु ! आप ही कहो कि इस प्रश्नका सन्तोषकारक उत्तर देनेवाला तीसरा कौन
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है ? अर्थात् सुगुरुके अतिरिक्त कोई भी उत्तर देने में समर्थ नहीं है ॥ १९ ॥
પીયૂષ—મત્ર નિગ—ઝીવન—સાર–દેતું, पीत्वाप्नुवन्ति मनुजास्तनुमात्ररक्षाम् ।
યાદ્વાવસુર-હર્ષ મવતસ્તુ વાચં,
पीत्वा प्रयान्ति सुतरा- मजरा-मरत्वम् ॥૨૦॥
(૨૦) હૈ નાથ ! આ લાકમાં મનુષ્ય અમૃતરસ પીધા થકી લાંબેા કાળ તંદુરસ્ત જીવન ગાળે છે. પણ તેથી કાંઈ અભર બનતા નથી; પણ આપની પણ આપની અમૃતમય સ્થાદ્વાદવાણીનું જે ભવ્ય જી। પાન કરી તેના અલૌકિક રસને આસ્વાદ કરે છે તે
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અજર અમર એક્ષપદને પ્રાપ્ત કરે છે.
हे नाथ ! इस लोक में मनुष्य यदि अमृतरसका पान करता है तो वह उसके प्रभावसे निश्चय दीर्घजीविताको प्राप्त करता है, जिसका कोई महत्त्व नहीं ! परंतु जो भव्य
आपकी अमृतमयी स्याद्वाद वाणीके रसका पान करता है वह तो सहज में ही अजर, अमर मोक्षपद को प्राप्त करता है ॥ २० ॥ चक्री यथा विपुल-चक्र-बला-दखंडं,
भूमंडलं प्रभुतया समलं-करोति । रत्न-त्रयेण मुनिनाथ ! तथा पृथिव्यां, जैनेन्द्र-शासन-परान् भविनो विधत्से
॥२१॥
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(२१) है प्रभु ! अभयवती पोताना ચક્રથી વિજ્ય કરીને પિતાનું આધિપત્ય છે ખંડમાં જમાવે છે, તેમ આપ પણ આપના સમ્યફ દર્શન, સમ્યક્ ચારિત્રરૂપી ત્રણ રત્નચક્રોના બળથી મિથ્યાત્વને હરી શાસન પ્રણેતા બની આપ ભવ્યજીવને જૈનશાસનના પથ પર ચઢાવે છે.
जैसे चक्रवर्ती अपने प्रधान अस्त्र चक्र रत्नके द्वारा छ खण्डोंको जीतकर उन पर आपना आधिपत्य स्थापित करता हैं उसी प्रकार हे मुनिनाथ ! आप भी अपने सम्यग्ज्ञान, सम्यगू दर्शन और सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रयरूपी रत्नचक्रके प्रभावसे मिथ्यात्वको दूर कर भव्य जीवोंको जैनशासनके वशवर्ती बनाते हैं ॥२१॥
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कालस्य मान-मखिलं शशि भास्कराभ्यां,
पक्ष-द्वयेन गगने गमनं खगानाम् । तद्वद् भवानपि भवाद् भगवन् ! जनानां,
ज्ञानक्रियोभयवशादिहमुक्तिमाह ॥२२॥ (૨૨) જેમ સમયની એટલે દિવસરાત્રીની જાણ જગતમાં સૂર્ય-ચંદ્રના ઉદય અને અતથી થાય છે, અને જેમ પક્ષીઓ આકાશમાં બે પાંખ વડે ઊડી શકે છે તેમ, હે ભગવન્! ભવ્ય જીવોને સંસારથી ભિન્ન, અવિનાશી મિક્ષ પદ પામવાને માટે જ્ઞાન અને ક્રિયા દ્વારા આપે મોક્ષમાર્ગ બતાવ્યું છે.
जैसे दिनरात्रिरूपी कालका उदय-अस्त
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जगत में चन्द्र और सूर्य से होता है, जैसे पक्षियोंका आकाशमे गमन दोनों पाखो से होता है, उसी प्रकार हे भगवान् ! आपने इस संसार से जीवोंकी मुक्तिका उपाय, ज्ञान और क्रिया इन दोनोंको कहा है ॥ २२ ॥ आनादिकं हृदि-गतं विषमं विषाक्तम् ,
संसार-कानन- परिभ्रमणैक-हेतुम् । मिथ्यात्व-दोष-मखिलं मलिनस्वरूपं, क्षिप्र प्रणाशयति ते विमलः प्रभावः ॥ २३
(૨૩) હે પરમાત્મા ! અનાદિ કાળથી સંસારી જીવ મિથ્યાત્વરૂપી અંધકારને કારણે ભવભ્રમણ કરે છે, અને મિથ્યાત્વરૂપી ઝેરને કફથી જન્મ—મરણનાં દુઃખ ભેગવે છે.
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એવા મલિન સ્વરૂપી મિથ્યાત્વના દેષને આપને નિર્મળ પ્રભાવ સત્વર નાશ કરે છે. ___ हे प्रभु । यह मिथ्यात्व दोष, जो कि अनादि है, प्राणियोंके हृदयके भीतर जिसका निवास है, जो विषम अर्थात् भयंकर है, रागद्वेषादिरूप महाविषयों से जो भावित है, संसाररूपी भयानक अटवीं में जिसके कारण जीव निरन्तर परिभ्रमण कर रहे है और जिसका स्वरूप स्वभावतः मलिन है, ऐसे इस मिथ्यात्व दोषको आपका निर्मल प्रभाव क्षणमात्र में समूल नष्ट कर देता है ॥२३॥ प्रमादिका विषय-मोह-वशं गता ये, कर्तव्यमार्गविमुखाः कुमतिप्रसक्ताः ।
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अज्ञानिनो विषय- घूर्णित - मानसाश्च, सन्मार्गमानयति तान् भवतः प्रभावः ॥ (૨૪) હે નાથ ! આ સંસારમાં જે છવા પ્રમાદી, વિષયી, મેહવશે કરીને ક વ્યવિમુખ જીવન ગુજારે છે; પાપીઓની સાબતમાં ઉન્માર્ગ જીવન જીવી રહ્યા છે; અજ્ઞાનને આધીન જેએનુ મન ઇંદ્રિયાના વિષયાનું ઉત્પત્તિસ્થાન બની રહ્યું છે એવાઓને આપના પ્રભાવ સન્મામાં લાવે છે.
हे नाथ ! इस संसार में जो जीव प्रमादी, विषयी, मोहके वशीभूत होने से कर्त्तव्यविमुख होकर जीवन व्यतीत करते हैं, पापि
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योंकी संगति से जो उन्मार्गगामी हो गये है, जिन्हें ज्ञानका लेश भी नहीं है, जिनका मन विषयरूपी सुरापान से घूम रहा है, ऐसे जीवोंको भी आपका प्रभाव सन्मार्ग पर लाता है ॥ २४ ॥ कल्प-द्रुमा-निव गुणांस्तव चन्द्र-शुभ्रान् ,
चिन्तामणीनिव समीहितकामपूर्णान् । ज्ञानादिकान् जन-मन -परितोष हेतून् , संस्मृत्य को न परितोष-मुपैति भव्यः ।।
(२५ डे प्रभु ! यद्र समान निर्माण, શીતલ, કલ્પવૃક્ષ અને ચિંતામણિ સમાન મનવાંછિત કામના પૂર્ણ કરનાર આપના ગુણની સ્તુતિ કરીને કણ ભવ્ય જીવા
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સંતાષ મેળવતા નથી ! અર્થાત્ સર્વ જીવા શાંતિ અનુભવે છે.
हे प्रभु ! चन्द्रमाके समान निर्मल, कल्पवृक्ष और चिन्तामाणिके समान इच्छाओं की पूर्ति करने वाले, अत एव मनुष्योंके मनको परितुष्ट करने वाले जो आपके ज्ञानादिक गुण है उनका भक्तिभावपूर्वक स्मरण कर कौन भव्य जीव सन्तुष्ट नहीं होता : अर्थात् सभी सन्तुष्ट होकर अविच्छिन्न सुखशान्तिके भागी होते हैं ॥ २५ ॥ चिन्तामणिः सुरतरु- र्निधय-स्तथैव,
तेभ्यः सुखं क्षणिक - नश्वर - माप्नुवन्ति । त्वत्सेविनो भवि—जना ध्रुब - नित्य - सौख्य,
तस्मादितो-प्यधिकतां समुपैषि नाथ ! ॥
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(२६) ससारी यिन्तामणि, ३६५વૃક્ષ અને નવનિધાનના પેગ વડે ક્ષણિક અને નાશવંત સુખ મેળવે છે, પણ આપની આરાધના કરનાર ભવ્ય જી નિત્ય અને અદયાબાધ સુખને પ્રાપ્ત કરે છે તેથી આપ તે સર્વથી અધિક છે.
हे भगवान् ! चिन्तामणि, कल्पवृक्ष और नवविधि से मनुष्य सुख प्राप्त करते हैं, परन्तु वह सुख सांसारिक होनेके कारण क्षण विनश्वर हैं। लेकिन आपके चरणकमलोंके सेवन से भव्य जीवोंको जो सौख्य प्राप्त होता है वह तो अलौकिक होनेके कारण ध्रुव और नित्य है, अर्थात् कभी भी विनष्ट होने वाला
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नहीं है । इसलिये हे नाथ ! आपकी महिमा की समानता चिन्तामणि आदि कभी नहीं कर सकते ! आप तो अनुपम हें ॥ २६ ॥ ध्वान्तं न याति निकटे रवि-मंडलस्य, चिन्तामणेश्च सविधे खलु दुःखलेशः । रागादि - दोष-निचया भगव - स्तथैव, नो यान्ति किंचिदपि देव ! भवत्समीपे | (२७) प्रेम सूर्यमंडल पासे अंधार આવી શકતા નથી, ચિન્તામણિ રત્ન પાસે દુઃખ માત્ર આવી શકતુ નથી, તેમ હું દોષહર દેવ ! આપની અનુપમ પ્રભા આગળ રાગ આદિ અઢાર દાષામાંથી કાઈ ષ જરા પણ નજીક ફરકી શકતા નથી.
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जैसे सूर्यमण्डलके समीप अंधकार नहीं जा सकता, चिन्तामणिके समीप दुःखका अंशमात्र भी नहीं जा सकता, उसी प्रकार हे भगवान् राग-द्वेष आदि अठारह दोषों में से एक भी दोष आपके पास नहीं आ सकता ॥२७
शीतांशुमंडल- जला-मृत-फेनपुज, प्रोत्फुल्लितेप्सितसुपुप्पविशालकुंजम् । धर्म निरूप्य परम खलु दुःखभंज,, नित्यं विकासयसि भव्यद ! भव्यकंजम् ।।
(२८) हे प्रभु ! सापेर भने। ઉપદેશ કરેલ છે તે ખરેખર દુઃખનો નાશ કરનાર છે. તે ચંદ્રમંડલ, જલ, અમૃત અને ફીણના પુંજ સમાન નિર્મળ અને
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શાંતિપ્રદ છે. મતરથરૂપ, મનહર ફિલેને વિશાળ લતામંડપ છે. અને આપ ભવ્યરૂપી કમલેને વિકાસ કરે છે.
हे प्रभु ! आपने जिस धर्मका उपदेश दिया है वह तो निश्चय ही सकल दुःखोंका नाशक है, चन्द्र मण्डल, जल, अमृत और फेन पुञ्जके समान निमल और शान्तिप्रद है, मनोस्थरूप मनोहर पुष्पोका विशाल लतामण्डप है। ऐसे परम मनोहर धर्मका भव्योंके हितार्थ प्ररूपण किया है। तथा हे कल्याणकारक ! आप सूर्यके समान भव्यरूपी कमलोंको नित्य प्रफुल्लित करते है, इसी कारण उनके हृदयकोशस्थित सद्भावरूपी सुवास से
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समस्त दिङ्मण्डल सुगन्धित हो रहा है ॥२८॥ दूरस्थितोपि सितरश्मि-रलं स्वकीयैः
शुभैर्विकासिकिरणैः सुविकासभावम् । अन्तर्गतं वितनुते किल कैरवाणां, तद्वजिनेन्द्र ! गुणराशिरय जनानाम् ॥
(૨૯) જેમ ચંદ્રમા પિતાનાં કિરણના પ્રભાવથી સરોવરમાં ઉગેલાં કમળના અંતરને વિકાસ કરે છે, તેમ હે જિનેન્દ્ર ! આપના ઉજજવળ ગુણેના સમૂહને પ્રભાવ ભવ્ય જનોના હૃદય પર પડવાથી સર્વથા આનંદ આપી ખીલવે છે.
जैसे दूर में रहा हुआ चन्द्रमा अपनी किरणोंके प्रभाव से, सरोवरो में उगे हुए
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कैरव - समूह (रात्रिविकासि कमलों) के अन्त
प्रकार हे
स्तलको विकासित करता है उसी जिनेन्द्र ! आप भी अपने उज्ज्वल गुणोंके प्रभाव से भव्यजनोंके हृदयरूपी कमलोको विकसित करते हैं, अर्थात् आपके गुणके माहात्म्य श्रवण से भव्यों का हृदय आनंदित हो जाता है ॥२९॥
अनुपम
शीतांशु - रश्मि निकर प्रसरा - नुषंगाद, यच्चन्द्रकान्त-मणयः परितो द्रवन्ति । तद्-वत्-त्वदीय-महिम-श्रवणेन भव्याः,
शान्ताः प्रवृद्धकरुणा द्रविता भवन्ति ॥ (30) हे प्रभु ! नेवी रीते यंद्रनां शीतण કિરણાની નિર્મળ પ્રભા, પૃથ્વી ઉપરના
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શ્રેષ્ઠ ચંદ્રકાન્ત મણિને પીગળાવે છે, તેવી રીતે આપના અનુપમ મહિમાનું શ્રવણ કરતા, ભવ્ય જીના હૈયામાંથી દયા અને અહિંસાનાં ઝરણાં કરે છે.
हे प्रभु ! जैसे चन्द्रमाके शीतल किरणोंकी प्रभासे पृथ्वी पर ही श्रेष्ठ चन्द्रकान्त मंणियां द्रवित होती है, अर्थात् पिघलाती है उसी प्रकार आपकी अनुपम महिमाके सुनने से, भव्योंके हृदय में से दया और अहिंसाका झरना झरने लगता है ॥३०।। दुःख-प्रधान-शिद-वर्जित हीयमाने,
काले सदा विषय-जाल-महा-कराले। भव्या भवत्प्रवचनं शिवदं जिनेन्द्र ! पीत्वात्मशान्तिमुपयान्ति नितान्तशुद्धाम्
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(૩૧) હે પ્રભુ! ઊતરતા આ વિષમ પંચમ કાળમાં સંસારી જી મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. દુઃખને ભાવ વૃદ્ધિ પામે છે, આયુષ્ય બળ ઘટતું રહે છે. એવા આ પાંચમા આરામાં ભવ્ય જને આપના અમૃત રસથી ભરપૂર વચનનું પાન કરી આપનું ધ્યાન ધરવા થકી આત્મશાંતિ પ્રાપ્ત કરે છે.
हे प्रभु ! अवसर्पिणीके इस विषम पंचम काल में जीव माक्ष नहीं प्राप्त कर सकते। इस काल में दुःखके भाव बढ रहे है, आयु
और बलका हास हो रहा है, ऐसे इस पञ्चम आरा में भी भव्यजन, शिवसुखके देनेवाले
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अमृतसमान आपके वचनका आस्वाद न करके परम आत्मशान्तिको प्राप्त करते हैं ॥३१॥ षट्कायनाथ ! मुनिनाथ ! गुणाधिनाथ !
देवाधिनाथ ! भविनाथ ! शुभैकनाथ ! । अस्मान् प्रबोधय जिनाधिप ! दूरतोपि, किंना स्मितानि कुरुते कुमुदानि चन्द्रः !
(૩૨) હે જિન ભગવાન! છ કાયના નાથ ! મુનિઓના સ્વામી ! જ્ઞાન દર્શન આદિ અનંત ગુણના ધારક! દેવના નાયક! આપ ઘણે દૂર બિરાજે છે તે પણ કૃપા કરી અમને જ્ઞાનસના પૂરથી વિકસિત કરે, કારણ ચંદ્રમાં આકાશમાં ઘણે દૂર છે છતાં શું કુમુદને પ્રફુલ્લિત નથી કરતો ? અર્થાત કરે છે.
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हे षडूजीवनिकायोंके नाथ ! हे मुनीश्वर ! हे केवलज्ञान केवलदर्शन आदि अनन्त गुणोंके धारक ! हे देवाधिदेव ! हे भव्योंके हित विधायक ! हे जीवमात्रके कल्याणकारक जिनेन्द्र भगवान् ! आप बहुत दूर सिद्धिस्थान में विराज रहे हैं, तो भी आप कृपा करके ज्ञान रसके प्रवाह से हमारे हृदयकमलोंको प्रफुल्लित करें । यह हमारी प्रार्थना अनुचित नहीं है, क्यों कि दूर में रहा हुआ चन्द्रमा भी तो कुमुदोंको विकसित करता है ॥३१॥ वृक्षापि शाकरहिता भवदाश्रयेण,
जातस्ततः स यदशोक इति प्रसिद्धः । भव्याः पुनर्जिन ! भवच्चरणाश्रयेण, किंनाम कर्मरहिता न भवन्त्यशोकाः ?
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(૩૩) હે પ્રભુ ! કંકેલી નામનું વૃક્ષ આપના સંસર્ગથી શોકરહિત બની જગતમાં અશેક નામથી પ્રસિદ્ધિ પામ્યું, તે પછી હે નાથ ! ભવ્ય જીવ આપનાં ચરણનો આશ્રય લઈ કર્મરહિત અશક (શકરહિત અને રથો પ્રાપ્ત કરે જ, તેમાં આશ્ચર્ય નથી. ____हे प्रभु ! कंकेलि नामक वृक्ष, आपके संसर्ग से शोकरहित होकर जगत में अशोक नामसे प्रसिद्ध हुआ, तो फिर हे नाथ ! भव्य जीव आपके चरणोंका आश्रय लेकर कर्मरहित हो अशोक (शोकरहित) अवस्थाको प्राप्त करें, इस में आश्चर्य ही क्या ? ॥३३॥
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सिंहासने मणिमये परिभासमान, - नाथं निरीक्ष्य किल सन्दिहते विधिज्ञाः। इन्दुः किमेष ? नहि यत् स कलंकयुक्तः,
कि वा रविन सतु चंडतरप्रकाशः ? ३४ - (૩૪) સમોસરણમાં મણિરત્ન જડિત સિંહાસને બિરાજમાન, તેમજ તેજના પંજરૂપ આપને જોઈ હે નાથ! તત્ત્વજિજ્ઞાસુ બુદ્ધિમાન જેને આપના સ્વરૂપ વિષે શંકાશીલ બને છે અને વિચાર કરે છે કે શું આ ચંદ્રમા હશે? પણ ના, કારણ કે તે કલંયુક્ત છે. તે શું સૂર્ય હશે ? તે પણ હેય નહિ. કારણ કે તેને તાપ તે પ્રચંડ હોય છે.
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हे नाथ ! समवसरण में मणिरत्नजडित सिंहासन पर विराजमान तथा तेजके पुञ्जरूप आपको देखकर तत्त्वजिज्ञासु बुद्धिमान् पुरुष आपके स्वरूपके निर्णय में शङ्काशील होते हैं और वे तर्क करते हैं क्या ये चन्द्रमा हैं ? नहीं, क्यों कि चन्द्रमा तो कलङ्कयुक्त है, तो क्वा ये सूर्य हैं नहीं, क्यों कि सूर्यका ताप तो अतिशय प्रचण्ड होता है परन्तु ये तो अतिशय शीतल हैं ॥३४॥
पुंज-स्त्विषा-मिति पुरा निरणाथि पश्चाद्-,
व्यक्ताकृति-स्तनुधराय-मिति प्रबुद्धेः । भव्यैः पुमानिति पुनः प्रशम- स्वभावः. कारुण्यराशिरिति वीरजिनः क्रमेण ३५
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(૩૫) હે પ્રભુ ! ઉપર પ્રમાણે વિચાર કરવા છતાં બુદ્ધિમાન ભવ્ય જનોએ આપના સ્વરૂપ વિષે, તે તેને પુંજ છે એમ નિર્ણય કર્યો. આકાર જોઈ દેહધારી પુરુષ છે એમ અનુમાન કર્યું; વિશેષ નજીક જતાં જાણ્યું કે આ શાન્ત સ્વભાવાળી કોક મહાન વ્યક્તિ છે. વળી વધુ નજીક જતાં નિર્ણય કર્યો કે આ તે બીજું કોઈ નહીં પણ કરુણાના સાગર વીર જિનેશ્વર ભગવાન છે.
हे प्रभु ! इस प्रकार संशय करनेके बाद, बुद्धिमान् भव्य जनोने आपके स्वरूपके विषय में प्रथम यह निर्णय किया कि यह कोई तेजपुञ्ज है। फिर कुछ आगे बढकर आकारके
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स्पष्ट दर्शन से उन्हें यह विश्वास हुआ कि ये कोई देह धारी पुरुष है, और कुछ आगे जाने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि ये शान्तस्वभाववाले कोई महान् पुरुष हैं। फिर अधिक समीप जाने पर उन्हें ज्ञान हुआ कि ये तो कोई दूसरे नहीं है किन्तु करुणाके सागर वीर जिनेश्वर भगवान् हैं ॥३५॥
देवै-रचित कुसुम-प्रकरस्य वृष्ट्या , दिङ्मंडलं सुरभितं भवतातिशेषात् । स्याद्वाद-चारु-रचना-वचना-वलीनां, वृष्ट्या भवन्ति भविनः प्रशमे निममाः ॥ ३६
(38) सभासमा के प्रभु ! सपना અતિશય મેહમાંથી પ્રેરાઈ દેવ અચિત્ત
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પુષ્પાની વૃષ્ટિ કરે છે. તેથી દશે દિશાઓ ( દિગ્મ ડલ ) સુ ંગધિત થઈ શુદ્ધ વાતા— વરણમય થઈ જાય છે. અને આપના અનેકાંત વાદની સુ ંદર દિવ્ય વાણી વરસે છે. તેનાથી ભવ્ય જીવેા શાંતિના સાગરમાં નિમગ્ન થઇ અપૂર્વ આનંદ અનુભવે છે.
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समवसरण में हे प्रभु! आपकी अतिशय महिमासे प्रेरित होकर देवगण अचित पुष्पों की वृष्टि करते है जिससे दसों दिशाये (दिग् मण्डल ) सुगन्धित हो जाती है, वातावरण नितान्त प्रशान्त हो जाता है, और फिर आपकी अनेकान्तमयी प्रशस्त दिव्य वाणी की वृष्टि होती है, उससे भव्य जीव शान्तिके
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सागरमें निमग्न होकर अपूर्व आनन्द का અનુભવ કરતે હૈ રૂ દા.
વેત્તર સવ–નીવ-વ-વિરાસા, पीयूषवत्-परिणता भवदीय-भाषा । સર્વદ્ધ-સિદ્ધિ-ગુણવૃદ્ધિ-વિધાન–તક્ષા, साक्षात्तनोति कुशलं सकलं सुलक्षा ॥३७॥
(૩૭) હે ભગવાન્ ! આપની દેશના (ધર્મોપદેશના) સર્વ જીવોની ભાષામાં સમજી શકાય તેવી છે. અમૃત સમાન, મધુર અને આકર્ષક છે. કલ્યાણકારી, સિદ્ધિ આપનાર, તેમજ શાંતિ આદિ અનુપમ ગુણરત્ન દેનાર છે.
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हे भगवन् ! आपकी देशना समस्त जीवोंकी अपनी अपनी भाषामें परिणत होजाती हैं। वह अमृतके समान मधुर और आकर्षक है, कल्याणकारिणी हैं, सिद्धि और शान्ति आदि अनुपम गुणरत्नोंका देनेवाली है, तथा संपूर्ण कुशलको देनेवाली है ॥३७॥ गोक्षीर-नीर-शशि-कुन्द-तुषार-हार-,
शुक्ल-वियद्-विलसितैः-शुभ--चामरौधैः । ध्यानं सितं तव विभो ! विनिवेद्यते यत् , सर्वज्ञता तदनु कर्म-समूल-नाशः ॥३८॥
(3८) में प्रभु ! ॥यनु , निर्माण પાણી, ચંદ્ર, કુન્દ પુષ્પ, ઝાકળ અને મોતીના હાર સમાન ઉજજવળ, જે સફેદ ચામર
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આપના ઉપર ચમક્તાં ઢોળાઈ રહ્યાં છે તે આપનું શુકલ ધ્યાન, સર્વજ્ઞતા અને સર્વ કર્મને નાશ કર્તા આપ જ છે તેનાં सूय छे.
हे प्रभु ! गायका दूध, निर्मल जल, कुन्द पुष्प, हिम (बरफ) और मातीके हारके समान ऊज्ज्वल जो स्वच्छ चामर आपके उपर ढोरे जा रहे हैं वे आपके शुङ्क ध्यानका सूचित करते है, और शुक्ल ध्यानसे सर्वज्ञता जाती है, सर्वज्ञतासे सकल कमोंका नाश होता है इन बातोंके सूचक है ॥३८॥ . आखंडलै-रवनि मंडल-भागते स्तै-,
र्भामंडलं तव नुतं मुनिमंडलैश्च ।
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માહા-ધાર—પરિહાર–ર–નિનેન્દ્ર, तुल्यं कथं भवति तद् रविमंडलेन ॥३९
(૩૯) હે નાથ ! પૃથ્વી પર રહેનારા મુનિએ આપના ભામંડળની સ્તુતિ કરે છે અને કહે છે, આપનું ભામંડળ મોહરૂપી અંધકારને નાશ કરે છે તે તેને સૂર્યમંડળની ઉપમા (તુલના) કેમ આપી શકાય ? અર્થાત ન આપી શયાય. કારણ ભામંડળ તે દ્રવ્ય અને ભાવ બને અધકારને નાશ કરે છે.
हे नाथ ! पृथ्वी पर देवलोकसे उतरकर आये हुए इन्द्रगण और पृथ्वी पर रहनेवाले मुनिगण आपके भामण्डल की स्तुति करते है
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और कहते हैं कि-हे जिनेन्द्र ! आपका भामण्डल द्रव्य अन्धकारका विनाशक तो है ही परन्तु साथमें मोहरूपी भाव अन्धकारका भी विनाशक है, और सूर्य तो मात्र द्रव्यरूप अन्धकारका ही विनाशक है, अत एव आपके भामण्डल की तुल्यता सूर्य कभी नहीं कर सकता ? ||३९॥ यत्कर्म-वृन्द-सुभटं विकटं विजेता,
लोकत्रय-प्रभु-रसा–वतिशेष-धारी । तस्मा-जिनेन्द्र-सरणिं शरणीकुरुध्वं,
भव्या! इति ध्वनति खे किल दुन्दुभिस्ते॥
(४०) हे नाथ ! २04ना प्रभाथी આકાશમાં દુંદુભિનાદ થાય છે અને તે
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यास हे छ : ' स०य । ! २॥ વિકટકમ સમૂહરૂપી વેરીના જીતનાર, ત્રણ લેકના નાથ, ત્રીસ અતિશયોના ધારક, જિનેન્દ્ર ભગવાન જે માર્ગ બતાવે છે તેનું शरण ग्रहण ७२.' ___ हे नाथ ! आपके अतिशय प्रभावके कारण आकाशमें दुंदुभि नाद होता है, वह दुंदुभि नाद निश्चय यही कहता है कि-हे भव्यजीवो! इस विकट कर्म समूहरूपी शत्रुओंको जीतने वाले, तीन लोकके नाथ, चौतीस अतिशयों के धारक जिनेन्द्र भगवान् जो मार्ग बतलाते है उस भार्गका अवलम्बन करो ॥४०॥
अत्युज्ज्वलं विजित-शारद-चन्द्र-विम्बं संमोदकं सकल-मंगल-मजु-कन्दम् ।
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छत्रत्रयं तव निवेदयते जिनेन्द्र !, रत्नत्रयं प्रभुपदं शिवदं ददाति ॥ ४१ ॥
(૪૧) હૈ જિનેન્દ્ર ! સમવસરણમાં આપના ઉપર જે ત્રણ ઉજજવળ છત્રો ધરાય છે તેની પ્રભા શરદ ઋતુના ચન્દ્રની પ્રભાથી અત્યંત ઉજ્જવળ છે. વળી તે આપના સમ્યક્ દન, સમ્યક્ ચારિત્રરૂપ રત્નત્રય તથા આપ પ્રભુપદ અને મેાક્ષ– પદ્મના દાતા તેમાં સૂચક છે.
हे जिनेन्द्र ! समवरण में आपके उपर जो उज्ज्वल तीन छत्र तने हुए हैं, जिनकी प्रभा शरदऋतुकी चन्द्र प्रभासे भी अत्यन्त उज्जवल
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है वे आपके प्रभुपद और मोक्षपदको देनेवाले सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रयके सूचक है ॥४१॥
यत्र त्वदीय-पद-पंकज-सन्निधानं, सन्धान-भूमि-रसमापि समा समन्तात् सर्वर्तवश्च सुखदा विलसन्ति लोका, मन्ये नु कल्पतरुरेव भवत् पदाब्जम् ४२
(४२) हे प्रभु ! पापना २२९ मा પૃથ્વી પર જ્યાં પગલાં ભરે છે તે ભૂમિ વિષમ હોય તે પણ સમ થઈ શાતાકારક થાય છે. સર્વ ઋતુઓ એકી સાથે આનંદ
દાયક નીવડે છે. તેથી આપના ચરણ કમળ એ જ કલ્પતરુ છે.
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हे प्रभु ! आपके चरणकमल पृथ्वी पर जहाँ २ पडते है वे स्थल विषम हों तो भी सम होकर सुखकारक होजाते है, सभी ऋतुएँ एक साथ संमिलित होकर प्रकट होती है
और लोक आनन्द पाते है। इस कारण आपके चरणकमल ही वस्तुतः कल्पतरु है ॥४२॥ दिव्यो ध्वनिर्गुण-गणश्च यशोपि दिव्यं,
दिव्यापि भावसमता प्रभुतापि दिव्या । तस्माद् विभो ! क तुलना भुवनत्रयेपि, ज्योतिर्गणाः किमिह भानुसमा विभान्ति ?
॥४३॥ (४३) हे ५२मात्मा ! मापनी वाणी, गुण, यश, मासमता मने प्रभुता,
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અનુપમ અને દિવ્ય છે. તેથી હે વિભુ ! આપના તુલ્ય જગતમાં બીજું કોઈ છે નહિ, કારણ તારાના સમૂહ ચમકે છે પણ તે કદી સૂર્ય જે પ્રકાશ આપી શકતા નથી.
हे भगवान् ! आपकी वाणी दिव्य है, गुण दिव्य है, यश दिव्य है, भाव समता दिव्य है, और प्रभुता भी दिव्य भी है, इस लिये हे प्रभु ! आपके तुल्य इस जगत् में दूसरा कोई नहीं है। भला, आपके तुल्य कोई दूसरा हो भी कैसे सकता है ? क्या तारागण सूर्य के समान प्रकाशित होसकते हैं ? कभी नहीं ! ४३
दिव्यं प्रभाव-मवलोक्य सुरादयस्ते, ... .. पीयूष-सार-वचनानि निशम्य सम्यक् ।
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आनन्द-वारिधि-तरंग-निमम-चित्ता,स्त्ववर्णनाक्षमतया प्रणमन्ति भावात् ॥
(४४) हे प्रभु ! आपनो दिव्य प्रभाव જોઈ ભવનપતિ વ્યન્તર, જતિષી અને વૈમાનિક દેવ વગેરે આપની અમૃતમય વાણી સાંભળતાં આનંદસાગરના તરંગમાં પ્રેમથી નિમગ્ન થઈ ભક્તિભાવથી આશ્ચર્યના આવેશમાં આપને નમરકાર કરે છે. ____ हे प्रभु ! भवनपति, व्यन्तर, ज्योतीषी और वैमानिक देव आदि, आपके दिव्य प्रभाव को देखकर, और आपकी अमृतमयी वाणी को सुनकर आनन्द सागरकी तरङ्गोमें अपने चित्तको निमग्न कर देते हैं, और आपके
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अनुपम गुणोंके वर्णन करनेमें असमर्थ हो, आन्तरिक भक्तिभावके आवेशसे आपको वारंवार नमस्कार करते है ॥४४॥ तुभ्यं नमः सकल-मंगल-कारकाय,
तुभ्यं नमः सकल-निर्वति-दायकाय, तुभ्यं नमः सकल-कर्म-विनाशकाय,
तुभ्यं नमः सकल-तत्त्व-निरूपकाय ४५
(૪૫) હે પ્રભુ! સર્વમંગળ કરનાર આપને હું નમરકાર કરું છું. સર્વ પ્રકારે સુખ–શાંતિ દેનાર આપને હું નમરકાર કરું છું. જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠે કર્મોને ક્ષય કરનાર આપને હું નમરકાર કરું છું. સકલ તત્વના પ્રરૂપક હે નાથ ! આપને
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હું નમરકાર કરું છું. ____ हे प्रभु ! समस्त मंगलोंके कारक आपको नमस्कार हो, सभी प्रकारके सुख शान्ति देनेवाले आपको नमस्कार हो, ज्ञानावरणीय आदि आठ कमेंके विनाशक आपको नमस्कार हो, और समस्त तत्त्वोंके प्ररूपक आपको नमस्कार हो ॥४५॥ तुभ्यं नमः सक्कल-जीव-दया-पराय,
तुभ्यं नम. शिवद-शासन-भास्कराय । तुभ्यं नमः सकल-लोक-शुभंकराय, तुभ्यं नमः सततमस्तु जिनेश्वराय ॥४६॥
(४६) हे प्रभु ! समय मोना याने અભયદાન દેનાર આપને હું નમસ્કાર કરું
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છું. મોક્ષપદ પ્રાપ્ત કરનાર, શાસનના સૂર્ય આપને હું નમરકાર કરું છું. પ્રાણીમાત્રનું ભલું કરનાર આપને હું નમસ્કાર કરું છું. હે દયાનિધિ જિનેશ્વર ! આપને હું નમસ્કાર
हे भगवान् ! सकललोकवर्ती जीवोंको अभय देनेवाले आपको नमस्कार हो, मोक्षपद को प्राप्त करनेवाले और शासनके सूर्य समान आपको नमस्कार हो, प्राणि मात्र के हितकारक आपको नमस्कार हो। हे दयानिधि जिनेन्द्र ! आपको सर्वदा नमस्कार हो ॥४६॥ रक्षः-पिशाच-निकरै-रदयो-पसृष्टं, . दुवृत्त-दुष्ट-खल-सृष्ट-विसृष्ट-मुष्टम् ।
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दारिद्रय-दुःख-गद-जाल-विशाल-कष्ट, नष्टं भवत्यखिल-माशु भवत्प्रभावात्
(४७) राक्षस पिशायना ७५सी, हु४ જનની મૂઠ, દારિદ્રયના દુઃખમાંથી ઉત્પન્ન થતાં મહાન કષ્ટ વગેરે હે નાથ ! આપના તેજથી સઘળાં નાશ પામે છે. ___ हे नाथ ! राक्षस और पिशाचके उपसर्ग, दुष्ट जनों की मूंठ, दुःख दारिद्रय, नाना प्रकार के रोग, शोक और भयंकर कष्ट आदि सभी आपके प्रभावसे नष्ट होजाते हैं ॥४७॥ चौरारि-सिंह-गज-पन्नग–दुष्ट-दाव-, हिंस्रप्रचार-खल-बन्धन-दुर्ग-भूमौ । सर्व भयं भयकरं प्रणिहन्ति नाथ ! त्वद्ध्यानमात्रमखिलं भुवनत्रयेऽस्मिन् ॥
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(४८) हे नाथ! थोर, हुश्मन, सिंह, હાથી, સર્પ, દાવાનળ આદિ સંહારક તત્ત્વોથી તેમજ દુષ્ટ બંધનથી ઉત્પન્ન થતા ભય, એવા સર્વ પ્રકારના ભયંકર ભયના કારણેાને દૂર કરો આપનું ધ્યાન માત્ર ભવ્ય જીવાતે ત્રણ ભુવનમાં એકમાત્ર ઉપાય છે.
चोर, शत्रु, सिंह, हाथी, सर्प, सर्प, दावानल, और हिंसक प्राणियोंके संचारसे, तथा दुष्ट मनुष्योंके द्वारा होनेवाले बन्धन के भयसे जो भूमि अत्यन्त दुर्गम है, ऐसी भूमिमें भी हे नाथ ! आपका ध्यान धरनेसे मनुष्य सभी प्रकारकी विपत्तियोंसे उगर ( बच) जाता है, क्योंकि आपका ध्यान सभी विपत्तियोंको दूर
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भगा देता है । इस लिये आपका ध्यान त्रिभुवनमें सर्व श्रेष्ठ है ॥४८॥ સિહો–ર–પ્રવર-સૂરહિંન્નારૈ,
ચંતા–વી વિટ–સુષ્ટ-ટ–નાઃ | સર્વ—gg——પવ્રુવ-રોમમાના,
सा नन्दनं भवति ते स्मरणाजिनेन्द्र ! (૪) હે જિનેન્દ્ર ! સિંહ, સર્પ, સુવર, આદિ હિંસક પ્રાણીના વાસથી વિકરાળ, ચેર લૂંટારાના ત્રાસથી ભયાનક, તીક્ષ્ણ કાંટાની જાળથી દુર્ગમ એવી જે ઘોર અટવી છે તે આપના સ્મરણ માત્રથી સર્વ ઋતુના પત્ર, પુપ,ફલથી શેભાયમાન થઈનંદનવન સમાન આનંદદાયક બને છે.
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हे जिनेन्द्र ! सिंह, सर्प, अत्यन्त तीखे दातवाले शूकर तथा अन्य हिंसक प्राणियों के निवासस्थान होनेसे विकराल, चोर, डाकू आदिका निवासस्थान होनेसे भयानक, और तीक्ष्ण काटोंसे व्याप्त होनेके कारण अत्यन्त दुर्गम जो अटवी है वह भी, आपके स्मरण मात्रसे सभी ऋतुओंके पत्र, पुष्प और फलोंसे संपन्न होकर नन्दनवनके समान आनन्ददायक हो जाती है ॥४९॥ घोरा-तिधोर-विकटे सुभटेऽतिकण्टे,
भ्रष्टे वले विविध-दुःख-शत-विशिष्टे । शस्त्र। हति-प्रविचल-द्रुधिरप्रवृद्धे, युद्धे तनोति तव नाम विशुद्ध-शान्तिम् ॥ ...
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૨૦%
(૫૦) હે પ્રભુ ! બન્ને પક્ષને મહા-કટ કારી દારુણ યુદ્ધ જયાં ચાલતું હોય, શત્રુના અનેક ત્રાસથી ભૂખ, તૃષા, આદિથી વ્યાકુળ સેનાબળ ઓસરતું હોય, રણમેદાને શસ્ત્રથી ઘવાયેલ દ્ધાના શરીરમાંથી રુધિરપ્રવાહ જેસર વહેતે હેય, એવા ઘોર સંગ્રામમાં પણ આપનું નામરમરણ ભવ્ય જીને શાંતિ આપે છે.
हे प्रभु दोनों पक्षोंके लिये महाकष्टकारी दारुण युद्ध जहां होरहा है शत्रू त्राससे और क्षुधा, पिपासा आदिसे व्याकुल होकर सैनिक जहांसे भाग रहे हैं, जहांपर शस्त्रके आघातसे आहृत योद्धाओंके शरीरसे निरन्तर प्रबल
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शोणितप्रवाह बह रहा हैं, ऐसे घोर संग्राममें भी आपका नाम-स्मरण भव्य जीवोंको शान्ति देता है ॥५०॥
सर्वद्धि-सिद्धिद-मिदं परम पवित्रं, ..
स्तोत्रं च यः पठति वीर-जिने श्वरस्य । चिन्तामणिः सुरतरुः सकलार्थसिद्धिः,
संसेवितुं तमनुकूलयितुं समेति ॥५१॥ (૫૧) શ્રી વીર જિનેશ્વર ભગવાનનું પરમ પવિત્ર, સર્વદા રિદ્ધિસિદ્ધિ આપનાર આ સ્તોત્ર જે જીવ સદા ભાવથી ભણશે, તેને ચિંતામણિરત્ન, કલ્પવૃક્ષ અને અનેક પ્રકારની સિદ્ધિઓ અનુકૂળ થઈ આવી મળશે. ___ श्री वीर जिनेश्वर भगवानके परमपवित्र सर्वदा ऋद्धिसिद्धि के देनेवाले इस स्तोत्रको जो
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sho she
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मनुष्य भक्तिभावपूर्वक पढेगा उसकी प्रसन्नता के निमित्त, चिन्तामणिरत्न, कल्पवृक्ष और अनेक प्रकारकी सिद्धियां उसकी सेवामें सर्वदा उपस्थित रहेगी, अर्थात् इस स्तोत्रके पढनेसे इह लोक संबंधी सभी सिद्धियी प्राप्त होती हैं और परम्परासे वह मोक्षका भागी वनता है ॥५१॥
श्री-बर्द्धमान-शुभनाम-गुणा-नुबद्धां, शुद्धां विशुद्ध-गुण-पुष्प-सुकिर्ति-गन्धाम् यो घासिलाल-रचितां स्तुति मंजु-मालां, कठे बिभर्ति खलु तं समुपैति लक्ष्मीः॥ ॥ इतिश्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलालजीमहाराजविरचितं श्रीवर्द्धमानभक्तामरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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१०९ (૫૨) શ્રી વર્ધમાન પ્રભુના શુભ-નામ રૂપી દોરામાં તેના શુદ્ધ, નિર્મળ ગુણરૂપી ફૂલેને ગૂથી, કીર્તિરૂપ સુગંધથી ભરપૂર પૂજય ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબે બનાવેલ આ સ્તુતિરૂપ સુંદર માળાને જે ભવી કંઠમાં ધારણ કરશે તેને ત્રણ લેકની દ્રવ્ય અને ભાવલક્ષ્મી આપમેળે આવીને વરશે. ઇતિ શ્રી જૈનાચાર્ય જેનધન દિવાકર પૂજય શ્રી ધારીલાલજી મહારાજ વિરચિત શ્રી વર્ધમાનભક્તામર સ્તોત્રને ગુજરાતી ભાષાનુવાદ
સંપૂર્ણ
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११० __ श्री वर्धमान प्रभुके शुभ नामरूपी सूतमे उनके शुद्ध, निर्मल गुणरूपी फूलोंको गूंथकर कीर्तिरूपी सुगन्धिसे परिपूर्ण पूज्यश्री घासीलालजी महाराज द्वारा रचित इस स्तुतिरूपी सुन्दर मालाको जो भव्य जीव अपने कण्ठमें धारण करेगा उसको त्रिभुवनकी द्रव्य और भावलक्ष्मी स्वयं उपस्थित होकर वरेगी ॥५२॥ ॥ इति श्रीजैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य
श्री-धासीलालजी-महाराज-विरचितश्री वर्धमानभक्तामरस्तोत्रका हिन्दी
भाषानुवाद सम्पूर्ण ॥
(३) अथ–सुखस्मरण सुखमूलं गणधर, वर्धमानानुयायिनम् । द्वादशानधरं नित्यं, वन्दे तं गौतमप्रभुम् ॥१॥
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૨૨૨ (૧) સુખના મૂળકારણરૂપ એવા શ્રી વર્ધમાન મહાવીર જિનેશ્વરના પટ્ટ શિષ્ય તથા બાર અંગધારી એવા ગણધર શ્રી ગૌતમ પ્રભુને મારાં સદૈવ નમરકાર હેજે. ___श्री वर्धमान प्रभु के अनुयायी द्वादशाङ्ग के धारक सुखके मूल श्री गौतमस्वाभी को नित्य नमस्कार करता हूँ ॥१॥ यस्य स्मरणमात्रेण, सर्वलब्धिः प्रजायते । द्धिः सिद्धिः समृद्धिश्च, वन्दे तं गौतमं प्रभुम्
(૨) જેનું મરણ માત્ર કરવાથી સર્વ પ્રકારની લબ્ધિ, રિદ્ધિ, સિદ્ધિ અને સમૃદ્ધિ મળે છે તેવા લબ્ધિ તણા ભંડાર ગૌતમપ્રભુને મૌરી નમરકાર હજે.
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जिनके स्मरणमात्र से सभी प्रकार कि लधि ऋद्धि सिद्धि और समृद्धि भव्य जीवों को मिलती है, उन महाप्रभावशाली श्री गौतमस्वामी को नित्य नमस्कार करता हूँ ॥२॥ नेतारं सर्वसंधस्य, जेतारं कर्मवैरिणाम् । त्रातारं सर्वजीवानां, वन्दे तं गौतमं प्रभुम् ॥ ३ ॥ ___ (3) २॥ गौतम प्रभु वा छ ? सण સંધના નાયક છે, કર્મરૂપી શત્રુઓના વિજેતા છે. સર્વ જીના રક્ષક એવા ગૌતમપ્રભુને મારા નમરકાર જે.
समस्त संघ के नेता कम शत्रुओंको जीतने वाले और सभी जीवों के रक्षक श्री
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શરૂ गौतमस्वामी को नमस्कार करता हूँ ॥३॥ तनयं वसुभूतेश्च, पृथिव्या अङ्गजातकम् । दिव्यज्योतिधरं दिव्य,-रूपलावण्य-संयुतम् ॥४॥ दिव्यसंहननं चैव दिव्यसंस्थानशोभितम् दिव्यर्द्धि दिव्यलेश्यं च, वन्दे तं गौतमं प्रभुम् ॥५॥
(૪) વિદ્વાન વસુભૂતિ પંડિતના સુપુત્ર અને પૃથિવી નામે માતાની કૂખે જન્મેલા, દિવ્યરૂપ, દિવ્ય લાવયથી યુક્ત સુશોભિત તથા દિવ્ય જ્ઞાનની અણબુઝ જાતિ પેટાવીને સારાયે આર્યાવર્તને જ્ઞાનનો પ્રકાશ આપનાર જાતિધર ગૌતમ પ્રભુને મારા નમરકાર હો.
(૫) જેના શરીરનું સંહનન બંધારણ
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हिव्य छे, मेनु सस्थान-मा-दिव्यारी' સુશોભિત છે, જેની રિદ્ધિ દિવ્ય અને જેની લેશ્યા–મનના ભાવ પણ દિવ્ય છે એવા ગૌતમ પ્રભુને મારી નમસ્કાર હજો.
वसुभूति के पुत्र पृथ्वीमाता के अङ्गजात दिव्यज्योति के धारक दिव्यरूपलावण्य से संयुक, दिव्यसंहननधारी, दिव्य संस्थान से सुशोभित और दिव्यद्धि एवं दिव्य लेश्यावाले श्री गौतमस्वामी को मैं नमस्कार करता
दिव्यप्रभाव-संपन्न, दिव्यतेजःसमर्चितम् दिव्यलब्धिधरं दिव्यं, वन्दे तं गौतम
प्रभुम् ॥६॥
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| (૬) દિવ્ય પ્રભાવથી જે યુક્ત છે, અલીકિક તેજના પંજ સમાન, તથા અલૌકિક લબ્ધિઓના સ્વામી એવા ગૌતમ પ્રભુને મારા નમસ્કાર હજો.
दिव्य प्रभाव से सम्पन्न, दिव्य तेजसे युक्त, दिव्यलब्धिधारी ऐसे श्री गौतमस्वामी को नमस्कार करता हूँ ॥६॥
चतुर्ज्ञानधरं शुद्धं, विद्याचरणपारगम् । धारकं सर्वपूर्वस्य, वन्दे तं गौतमं प्रभुम् ॥७॥
(૭) ચાર પ્રકારના શુદ્ધ જ્ઞાનના ધરણહાર, વિદ્યા અને ચારિત્રમાં પારંગત તથા ચૌદ પૂર્વના ધારી એવા ગૌતમ પ્રભુને મારાં વંદન હજો.
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चार ज्ञान के धारक, विद्या और चारित्र में पारंगत, सकल (चौदह) पूर्वी के धारण करनेवाले ऐसे विशुद्ध गौतमस्वामीको नम
#ાર ઝરતા હૂં | ૭ | गोशब्दात् कामधेनुत्वं, तकारात् तरुतुल्यता ।' मकारान्मणिसाम्यं च, ज्ञायते गौतमप्रभोः ॥८॥
(૮) ગી–ત–મ” શબ્દ ત્રણ અક્ષરને બનેલે છે તેમાં પ્રથમ “” “ગ” અક્ષર આપ કામધેનુ સમાન છે, તેમ સૂચવે છે. “ત' અક્ષર મનવાંછિત ફળ આપનાર તરુ (કલ્પતરુ) સમાન છો, તેમ સૂચવે છે. ત્રીજો
મે અક્ષર એપ ચિંતવેલું આપે તે મણિ (ચિંતામણિ) સમાન છે તેમ સૂચવે છે હે ગૌતમ પ્રભુ ! આપના ત્રણ અક્ષરના
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(ગી–ત–મ) આ નાનકડા નામમાં કેટલું બધું સામર્થ્ય સમાએલું છે !
गौतम प्रभु के ‘गौतम ' इस नामके अन्तर्गत 'गो' शब्दसे उनमै कामधेनुतुल्यता, 'त' से कल्पवृक्षतुल्यता और 'म' से चिन्तामणितुल्यता प्रकट होती है ।। ८॥ कामधेनुसमो लोके, सर्वसिद्धिप्रदस्तथा । कल्पवृक्षसमो वाञ्छा-पूरणे चिन्तिते मणिः ॥९॥
(૯) લેકને વિષે આપ કામધેનુ સમાન છે, તથા સર્વ પ્રકારની રિદ્ધિના દાતાર છે, આપ મનવાંછિત ઈચ્છાઓ પરિપૂર્ણ કરનાર કલ્પવૃક્ષ સમાન છે, એવા હે ગૌતમ પ્રભુ ! આપને મારા નસરકાર હજો.
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सभी प्रकार को सिद्धियों के दायक होने से गौतमस्वामी इस लोकमें कामधेनु समान हैं, अभिलाषा के पूरक होने से कल्पवृक्ष समान हैं और चिन्तित पदाथोंके दायक होनेसे चिंत्तामणिसमान हैं ॥९॥ अङ्गुष्ठे चाभृतं यस्य, यश्च सर्वगुणोदधिः । भण्डारः सर्वलब्धीनां,वन्दे तं गौतम प्रभुम् ॥१०॥ ____ (१०) बने २५ हे साक्षातू अमृत વસે છે, જે સર્વ પ્રકારની લબ્ધિઓના ભંડાર છે, તેવાં ગૌતમ પ્રભુ! આપને મારા नभरार हुन्न. .
(ગૌતમ પ્રભુને આપણે લબ્ધિતણું ભંડાર કહીને નવાજીએ છીએ તે હવે તેમની લબ્ધીઓનાં ગુણગાન કરીએ)
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जिनके अंगूठे में अमृत है, जो सभी गुणोंके सागर हैं, ऐसे गौतमस्वामी को नमस्कार करता हूँ ॥ १०॥ आमषषधिलब्धिश्च, विपुडोषि षधिरेव च श्लेष्म-जल्लौषध। चैव, विपुलर्जुमती तथा ॥११॥ संभिन्नश्रोत्रलब्धिश्चा-वधिलब्धिस्तथैव च । मनः पर्ययलब्धिश्च, लब्धिः केवलिनस्तथा ॥१२॥ लब्धिर्गणधरस्यापि, लब्धिः पूर्वधरस्य च । पदानुसारिलब्धिश्च, लब्धिःक्षीरास्रवस्य च ॥१३॥ घृतास्रवस्य लब्धिश्च, लब्धिर्म ध्वास्रवस्य च । वैक्रियाहारलब्धी च, लेश्यालब्धिस्तथैव च ॥१४॥ अक्षीणमहानसस्य, लब्धिर्जचाचरादिकाः। लब्धयः सकलास्तस्य, वशे तिष्ठन्ति सर्वदा ॥१५॥
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(૧૧) આપ આપૌષધિ નામની લબ્ધિના ધરણહાર છે જેના પ્રભાવે કરીને આપના ર૫શ માત્રથી રોગને નાશ થાય.) આપ વિપુઓષધિ નામની લબ્ધિના ધરણહાર છે. (આ લબ્ધિ જેને હોય તેનાં મળમૂત્રમાં સર્વરોગનાશક શક્તિ હોય છે) આપ કલેષ્મ ઔષધિના ધરણહાર છો (આ લબ્ધિ જેને હોય તેનું શ્લેષ્મ સર્વ રોગ ઉપર ઔષધિ તરીકે કામ આવે છે) તથા આપ વિપુલ અને જુમતી નામની લબ્ધિના ધારક છે.
(૧૨) આપ સંભિન્ન સ્ત્રોત લબ્ધિના ધારણહાર છો (આ લબ્ધિ જેને હૈય તેની બધી ઇન્દ્રિયે એક બીજી ઈન્દ્રિયનું કામ
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કરી શકે) આપ અવધિજ્ઞાન, મન:પર્યયજ્ઞાન, અને કેવલજ્ઞાનની લબ્ધિઓના ધરણહાર છે.
(૧૩) હે ગૌતમ પ્રભુ ! આપે ગણધરની લબ્ધિ મેળવેલી છે. ચૌદ પૂર્વની લબ્ધિ પણ આપની પાસે છે. પદાનુસારિ લબ્ધિના આપ ધારક છે. જે લબ્ધિમાં એક પદ ઉપરથી અનેક પદ ઉત્પન્ન કરવાની શક્તિ સમાએલી છે) તેમજ આપ ક્ષીરસવ લબ્ધિ(જેનાં દૂધ જેવાં મીઠાં વચન હોય તેવી)ના ધારક છે.
(૧૪) આપ ઘુતાગ્રંવ (જેનાં વચને ધી જેવાં હોય) લબ્ધિના ધરણહાર છે. આપ મધ્વસ્ત્રવ (મધ જેવા મીઠાં જેનાં વચને હેય તેવી) લબ્ધિના ધરણહાર છો. આપ
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વૈક્રિયઆહારક (જેનામાં એકનાં અનેક સ્વરૂપે બનાવવાની શક્તિ રહેલી છે તેવી) લબ્ધિના ધરણહાર છે. આપ તેજલેશ્યા અને શીતલેશ્યા લબ્ધિઓના આપ ધારક છો.
(૧૫) આપ અક્ષણમહાનસ (અક્ષય પાત્ર સમાન સેડાની) લબ્ધિ, અંધારાદિક (જાંઘ ઉપર હાથ મૂકવાથી ગગનમાં વિહાર કરી શકાય તેવી) લબ્ધિના ધરણ હાર છે. આ સર્વ લબ્ધિઓ સદા આધીન રહે છે.
(૨)–ગામ ઘધધ, (૨)–વિgeવધિષિ, (૩)-ભૌષધિધિ, (૪)-નોવિધિ, (૫)-વિપુરમતિદિધ, (૫)અનુમતિથિ, (૬)-- વંમિનણોતધ,
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(८) – मनः पर्ययलब्धि,
(१०) - गणधरलब्धि,
(१२) - पदानुसारिलब्धि
(११) -- पूर्वधरलब्धि, (१३) - क्षीरास्रवलब्धि, (१४) - घृतास्रवलब्धि,
(१५) - मध्वास्स्रवलब्धि (१६) - वैक्रियलब्धि, ( १७ ) - आहारकलब्धि (१८ ) - लेश्यालब्धि - (तेजेालेश्यालब्धि,
शीतललेश्यालब्धि),
(१९) - अक्षीण महानसलब्धि, और इनके अतिरिक्त जङ्घाचरण आदिक सभीलब्धियाँ गौतमस्वामीके अधीन में सर्वदा रहती हैं ॥ ११ - १२-१३-१४-१५॥
(७) - अवधिलब्धि,
(९) - केवलिलब्धि,
ऋद्धिः सिद्धिः सुखं संपद, यशः कीर्तिर्जयस्तथा । विजयश्वास्य पाठेन, लभ्यते नात्र संययः ॥ १६ ॥
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१२४
(१६) २माण ही या प्रमाणे सर्व પ્રકારની લબ્ધિઓના ધારક ગૌતમસ્વામિના ગુણગાન રૂપ, આ સુખસ્મરણની આરાધના કરનારને રિદ્ધિ સિદ્ધિ, સુખ-સંપત્તિ યશ, કીતિ અને વિજય આવી મળે છે, તેમાં સંશયને સ્થાન નથી.
श्री गौतम प्रभु के इस स्मरण के पाठ करनेसे भव्योंको ऋद्धि, सिद्धि, सुख, संपत्ति, यश, कीर्ति और विजय का लाभ सर्वदा होता है, इसमें अणुमात्र भी सन्देह नहीं है ॥१६॥
दिव्यं सुखं परभवे, तथाऽनन्तं च शश्वतम् । · अव्याबाधं ध्रुवं सौख्यं, लभ्यते परमं पदम्
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(૧૭) તે ઉપરાંત આરાધક પરભવને વિશે દિવ્ય, અનંત અને શાશ્વત સુખ સંપત્તિને સ્વામી બને છે. અને છેલ્લે અચળ પરમપદ મોક્ષની પણ પ્રાપ્તિ કરે છે.
सुपरभ२४ सपूण (3) .. . इस स्तोत्र के स्वाध्याय करनेवाले परभव में देवलोक के सुखों को पाते हैं, तथा कर्मों का क्षय करके परम्परा से अनन्त, शाश्वत, अव्याबाध, ध्रुव सौख्यस्वरूप परम पद-मोक्ष की प्राप्ति करते हैं ॥१७॥
॥ इति सुखस्मरण ॥४॥
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(४) अथ संपत्स्मरण । ॐ हूँ। श्री ऋषभादिचतुर्विशतिजिनेन्द्रे भ्यो नमः।
.
॥ श्री गौतमस्वामिलब्धिर्भवतु ॥ - ॐ ॐ श्री* *पमवथी भांडन તેં મહાવીર સ્વામી સુધીના ચોવીસ તીર્થંકર દેને મારા નમરકાર હ. શ્રી ગૌતમે સ્વામીના જેવી લબ્ધિ હો.
मंगलाचरण चिन्तामणिमहाविद्ये श्रीधारे सर्वसौख्यदे।
अचिन्यशुभदे शुद्धे, संपत्सिद्धि प्रदे नमः ॥१॥
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મંગળાચરણુ
(૧) લક્ષ્મીની ધારા સમાન સ` પ્રકારનાં સુખ દેનારી, જેની ચિત્રના પણ ન કરી વ્હાય છતાં શુભ મન:કામના પૂર્ણ કરનાર. શુદ્ધ સ્વરૂપવાળી, સંપન્ સિદ્ધિ દેનારી હૈ ચિંતામણિ મહાવિદ્યા ! તને નમસ્કાર હો.
हे चिन्तामणि महाविद्ये ! हे श्रीधारेलक्ष्मी की धारास्वरूप ! हे सभी प्रकार के सौख्यों को देनेव / ली! हे अचिन्त्य शुभों के देनेवाली ! हे शुद्धस्वरूप ! हे संपत्ति और सिद्धि को देनेवाली ! तुम को नमस्कार करता
ફ્॥
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आनन्दकन्दसंभूते, महालक्ष्मिमहोत्सवे । सदाजिनेन्द्रभक्तानां संपत्सिद्धिप्रदे नमः ॥ २॥
_ (२) हे यान ४१३५ ! भलीલક્ષ્મી ! હે મહાઉત્સવવાળી તથા જિનેન્દ્ર ભગવાનના ભક્તોને સદા સુખસંપત્તિ અને સિદ્ધિ આપનારી એવી હે મહાવિધા તને નમ१२ ने.
हे आनन्दकन्द के उत्पत्तिस्थान ! हे महालक्ष्मी ! हे महोत्सवयुक्त ! हे जिनेन्द्र भगवानके भक्तों को सर्वदा सम्पत्ति और सिद्धि देनेवाली'! तुमको नमस्कार करता हूं ॥ २ ॥ नानाशास्त्रं समादाय श्रीधारा सुखदा सदा।. लोकोत्तरा लौकिकी च धासीलालेन तन्यते ॥ ३ ॥
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(3) विविध प्राश्ना शास्त्रोभां मताવાયેલી સદા સુખ અને લક્ષ્મીની ધારા વહાવનાર, લૌકિક તથા લકાત્તર એ બે વિધા વિશે હવે શ્રી ધાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ આપને उहे छे.
अनेक शास्त्रों से उद्धृत करके स श्रीधारा स्तोत्र की रचना पूज्य श्री घासीलालजी महाराज करते हैं । यह श्रीधारा सर्वदा सुख देनेवाली है, और यह लोकोत्तर और लौकिकभेद से दो प्रकार की है ॥ ३ ॥
रुचिरप्रभे रुचिरकान्ते रुचिरवर्णे रुचिरलेश्ये रुचिरध्वजे सिद्धे सिद्धिरूपे, सिद्धिधरे सिद्धिदे, पूर्णे पूर्णरूपे पूर्ण प्रभे, सूर्यकान्ते, सूर्यवर्णे सूर्यलेश्ये,
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३०
पद्म पद्मरूपे पद्मवर्णे पद्मलेश्ये, शुक्ले शुक्लरूपे शुक्लवणे शुक्ललेश्ये, इष्टे, इष्टरूपे इष्टदे, कान्ते कान्तरूपे कान्तदे, प्रिये प्रियरूपे प्रियदे, मनोज्ञे मनोज्ञरूपे मनोज्ञदे, सौम्ये, सौम्यरूपे सौम्यदे, शुभे, शुभरूपे शुभदे, सुभगे, सुभगरूपे सुभगदे, ततमे तितिमे थथमे थिथिमे, ददमे दिदिभे दुदुमे, धधमे घिधिमे धुधुमे, ककमे किकिमे कुकुमे, खखमे खिखिमे खुखुमे । इँ एं एं एं रक्ष रक्ष मां सर्व ममाधीनं च सर्व विघ्नतः।
આ રહી એ મહાવિધા–
ॐ हीं श्री सी ई स पत्प्रहे, श्रीवारे, सुधारे, सुधावारे, सुमे, सु५३५, सुप, यिरे २थिअनेयिन्ते, रयिर
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વર્ણ, રુચિર લેસ્થે, રુચિરજે, સિદ્ધ સિદ્ધરૂપે, સિદ્ધધર, સિદ્ધિદ, પૂણે પૂર્ણરૂપે, પૂર્ણ પ્રભે, સૂર્ય પ્રત્યે, સૂર્યકાન્ત, સૂર્યવણે, સૂર્યલે, પદ્મ,પદ્યરૂપે, પદ્મ, પદ્મલેચ્ચે શુફલે, શુક્લરૂપે, શુક્લવર્ણ, શુલલે, ઈષ્ટરૂપે, ઈદ, કાન્ત, કાન્તરૂપે, કાન્તદે, પ્રિયે, પ્રિયરૂપે પ્રિયદે, મનેશે, મને શરૂપે, મને શદે, સૌમ્ય, સૌમ્યરૂપે, સૌમ્ય, શુભ શુભરૂપે, શુભદે, સુભગે, સુભગરૂપે, સુભગદે, તતમે, તિતિમે, થથમ થિથિમે, દદમે, દિદિને, દુદુમે, ધધમે, વિધિમે, ધુધુમે, કકમે, કિકિમે, કુકમે, ખખમે, ખિખિમે, મુખમે, ઈ એ, , એં મારી રક્ષા કરે, રક્ષા કરે, તેમજ સર્વ વિઘોથી
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१३२ ,
મારા આશ્રિતોનું રક્ષણ કરે. ___वह महाविद्या इस प्रकार
ॐ ह्रीं श्रीं क्ली संपत्प्रदे० इत्यादि विशेषणवाली हे श्रीधारा मेरी रक्षा करो, और मेरे आश्रितों को सभी विघ्नोंसे बचाओ ।
चंद्रे चंद्ररूपे चंद्रवणे चंद्रलेश्ये चंद्रोत्तमे चंद्रशेखरे, यथा शशी शिशिरकिरणैः संताप हरति, तथैव मम मत्परिवारस्य च दुःखदारिद्रय संतापं हर हर स्वाहा । यंत्रे यंत्रख्पे मंत्रे मंत्ररूपे तंत्रे तंत्ररूपे सर्व मम वश्यं कुरु कुरु । क कर्षवति हर्षे हर्षवति मम शरीरे मम गृहे मम कुटुम्बे अचिन्तय हर्ष कुरु कुरु । चिन्तितं सर्व सुखं शीवं मह्यं देहि देहि ।
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१३३ હે ચંદ્ર, ચંદ્રના રૂપ, વર્ણ વેશ્યાવાળી, ચંદ્રથી પણ ઉત્તમ, ચંદ્રનાં કિરણે સમાન દેવી ! જેવી રીતે ચંદ્રમા તેનાં શીતળ કિરણે વડે સંતાપ નીવારે છે તેમ હૈ ચંદ્ર ! મારાં તથા મારા કુટુંબ પરિવારનાં દુઃખદારિદ્રય તથા સંતાપ હરે. યંત્રમાં યંત્રરૂપ, મંત્રમાં મંત્રરૂપ, તંત્રમાં તંત્રરૂપ હે દેવી ! સર્વે મને વશ થાય તેમ કરે. કર્ષમાં કર્થવતિ, હર્ષમાં હર્ષવતિ, મારા શરીરે, મારા ઘરમાં મારા કુટુંબકબીલામાં, જેની ચિંતમણું પણ ન કરી હોય, રેમમમાં આનંદ ઉભરાયા તે હર્ષ ઉત્પન્ન કરે. મારાં મનવાંછિત સર્વ સુખ મને તત્કાળ આપે.
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१३४
हे चंद्र के समान आह्लादक, चन्द्ररूप, चन्द्र जैसे वर्णवाली, चन्द्रसदृश लेश्यावाली, चन्द्र के समान उत्तम, चन्द्र के मुकुटवाली ! जैसे चन्द्रमा अपनी शीतल किरणोंसे संताप को दूर करता है उसी प्रकार आप मेरे और मेरे परिवार के दुःख, दारिद्र्य और सन्ताप को दूर करो । हे यन्त्रवाली ! हे यन्त्ररूप ! हे मंत्र। वाली ! हे मंत्ररूप ! हे तंत्रवाली ! हे तंत्ररूप ! सभी मेरे वश करो । हे हर्षवाली ! हे हर्षरूप ! मेरे शरीर में, मेरे घर में, मेरे कुटुम्बमें अचिन्तित सुख दो, और मेरे चिन्तित सभी सुख मुझे दो ।
ॐ ह्रीँ श्रीँ क्लीँ एँ हीँ श्रीँ रत्नवर्षिणि अंकरत्न-स्फटिकरत्न - हीरक - वैडूर्यरत्न - लोहिताक्ष
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१३५ रत्न-हंसगर्भ-पुलाक-ज्योतिः सौगन्धिकादिविविधरत्नानि वर्षय । बहुधनधान्यैर्मम कोशकोष्ठागार पूर्ण कुरु कुरु ।
૩૦ હૈ શ્રી ફૂલી એ હ્રીં શ્રી હે રત્નોનો વરસાદ વરસાવનારી અંકરત્ન, સ્ફટિકરન, હીરા, વૈર્યરત્ન, લોહિતાક્ષરત્ન, હંસગર્ભ, પુલાક જાતિ, સૌધિક વગેરે જાતનાં રત્નની વૃષ્ટિ કરે, વૃષ્ટિ કરે. હિરણ્ય સુવર્ણની વૃષ્ટિ કરનારી મારા ઘરમાં સોમૈયા, રૂપિયાની વૃષ્ટિ કરે.બહુ ધન-ધાન્યથી મારે ખજાને કોઠાર ભરપૂર કરે-ભંડાર ભરપૂર કરે.
ॐ ही श्री क्ली ऐं ही श्री हे रत्न
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१३६ वर्षिणि ! ( हे रत्नोंकी वर्षा करनेवाली ! ) अङ्करत्न, स्फटिकरत्न, हीरा, वैडूर्यरत्न, लोहिताक्षरत्न, हंसगर्भ, पुलाक, ज्योतिसौगन्धिक आदि विविध रत्नोंकी वर्षा करो । हे हिरण्यसुवर्णवर्षिणि ! ( हे हिरण्यसुवर्णवरसानेवाली ! ) मेरे धरमें हिरण्यसुवर्णकी वर्षा करो ! वहुत धनधान्य से मेरे कोष
और कोठार को पूर्ण भरो। ___ अमृते, अमृतोपमे, अमृतद्रवे अमृतसवे अमृतवदने अमृतसेचने अमृतपूर्णे मां ममाधीनान् अमृतमयान् कुरु कुरु ।
અમૃત ! અમૃતની ઉપમા તુલ્ય, અમૃત સીંચન કરનાર, અમૃત વસાવનાર, અમૃત વદનવાળી,અમૃત સિંચન કરવાવાળી અમૃત
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પૂર્ણા, મને અને મારા બધા આશ્રિતોને તમે અમૃતમય બનાવે. ____हे अमृते ! हे अमृतकी उपमावाला ! ( हे अमृतसमान ! ), हे अमृत के समान तरल !, हे अमृतकी धारा बहानेवाली !, हे अमृत के समान मुखवाली !, हे अमृत का सेचन करनेवाली !, हे अमृतपूर्णे ! मुझको और मेरे अधीन सभी लोगों को अमृतमय करो । ____ऐ कामराज क्ली शुद्ध बुद्धे बुद्धरूपे बुद्धिदे सिद्धे सिद्धिरूपे सिद्धि दे मम सर्वकार्याणि साधय । ॐ अर्ह वशिनि मोहिनि सर्वान् मम वश्यान् कुरु कुरु सर्वान् मोहय मोहय ॐ ही श्री सुखसुधाहिरण्यसुवर्णवर्षिणि मम सुखं वर्षय
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१३८
२, सुधां वर्षय २, हिरण्यं वर्षय २, सुवर्ण वर्ष २, आभंकरे प्रभंकरे, चंद्रे चंद्रकांते चंद्रा वर्ते चंद्रवर्णे चंद्रलेश्ये चंद्रश्रेष्ठे चंद्रशेखरे सूरे सूरप्रभे सूरकांते सूरलेश्ये सूरश्रेष्ठ सूरशेखरे मम लोकोत्तरं सुखदं चमत्कारं कुरु २ ॐ ह्रीँ घृणिः सूर्यः आदित्यः श्रीँ मम सर्वाधिव्याधिचिन्ता रोगशोकान् नाशय २, मम तुष्टिं पुष्टिं सुखं च कुरु कुरु । ॐ ह्रीँ श्रीँ क्लीँ नमो भगवति अन्नपूर्णे धनधान्यं वर्ष २ । सर्वसिद्धिदायिनि सर्वसुखदायिनि श्रीसीमंधरस्वामिनं सर्वज्ञं सर्वदर्शिनं जिनमनुस्मर, गणधर सत्यमनुस्मर, निर्ग्रन्थप्रवचनमनुस्मर, आदिनाथजिनमनुस्मर, शान्तिनाथजिनमनुस्मर, पार्श्वनाथजिन
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१३९
मनुस्मर, वर्द्धमानजिनमनुस्मर, शेषसर्वजिनमनुस्मर, अवधिजिनमनुस्मर, मनःपर्ययजिनमनुस्मर, केवलिजिनमनुस्मर, आमशैषिधिमनुस्मर, विद्युडोषधिमनुस्मर, बीजवुद्धिमनुस्मर, अक्षीणमहानसलब्धिधरमनुस्मर, नवपूर्व धरमनुस्मर यावच्चतुर्दशपूर्वधरमनुस्मर वैक्रियलब्धिधरमनुस्मर, आहारकलब्धिधरमनुस्मर ।
એ કામરાજ ફલી શુદ્ધ, બુદ્ધ, બુદ્ધિ३सी, मुद्धिनारी, सिद्धि, सिद्धिपी, सिद्धि દેનારી મારાં સર્વકાર્યો સાધી આપે. અહેંવશિનિ, મોહિનિસર્વ મારેવશ થાય તેવું કરે, સર્વને મારા ઉપર મહ થાય તેવું કરે.
ॐ श्री श्री सुप, अमृत, बि२९५સુવર્ણ વરસાવનારી મારા ઉપર સુખ વસાવે,
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૨૪૦
અમૃત વરસાવે. રૂપું વરસાવો. સુવર્ણ વરસાવે--દેવી ! આશંકરે, પ્રભં કરે, ચંદ્ર, ચંદ્રાકાતે,ચંદ્રાવતે, ચંદ્રવર્ણ, ચંદ્રલેશે, ચંદ્રશ્રેષ્ઠ, ચંદ્રશેખરે, સૂરે, સૂરપ્રભે, સૂરકાન્ત, સૂરલે, સૂરશ્રેષ્ઠ સૂરશેખરે, મને લેકોત્તર સુખ આપે તે ચમત્કાર કરે છે. હી” ધૂણી સૂર્યઃ આદિત્યઃ શ્રી મારા સર્વ આધિ, વ્યાધિ, ચિંતા, રોગ,શેક વગેરેને નાશ કરે. મને સંતોષ થાય, પુષ્ટિ મળે, સુખ થાય તેવું કરે–૩ટ્રીં શ્રી ફલી હે ભગવતિ અન્નપૂર્ણા તમને મારા નમસ્કાર હો. તમે મારે ત્યાં ધનધાન્યની વૃષ્ટિ કરે. સર્વ સિદ્ધિ દેનારી, સર્વ સુખ દેનારી, સર્વજ્ઞ,
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સર્વ દર્શિત જીનેશ્વર સિમંધર સ્વામીનું
સ્મરણ કરે, ગણધર સત્યનું સ્મરણ કરે, નિર્ચથના પ્રવચનનું સ્મરણ કરે, આદીશ્વર ભગવાનનું સ્મરણ કરો, શાંતિનાથ ભગવાનનું સ્મરણ કરે, પાર્શ્વનાથ ભગવાનનું મરણ કરે, ભગવાન મહાવીરનું મરણ કરે, બાકી રહેલા સર્વકર ભગવાનનું સ્મરણ કરે, અવધિજ્ઞાની જીનેશ્વરનું સમરણ કરે, મન:પર્યયજ્ઞાની જીનેશ્વરનું સ્મરણ કરે, કેવળજ્ઞાનીનું સ્મરણ કરે, અમશી ષધિ લબ્ધિધારીનું સ્મરણ કરે, વિપ્રડેષધિ લબ્ધિધારીનું મરણ કરે, ની જબુદ્ધિધારીનું સ્મરણ કરે, અક્ષીણ મહાનલબ્ધિધારીનું મરણ કરે. નવપૂર્વ
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१४२ ધારીનું સ્મરણ કરે, દશથી તેર સુધીના પૂર્વ ધરનું અને ચૌદમાં પૂર્વ ધરનું મરણ કરે, શૈક્રિય લબ્ધિધરનું સ્મરણ કરે, આહારક લબ્ધિધનું મરણ કરે. ___ऐ कामराजक्ली, हे शुद्धे ! हे बुद्धे ! हे बुद्धरूपे ! हे बुद्धिदे ! हे सिद्धे ? हे सिद्धिरूपे ! हे सिद्धिदे ! मेरे सभी कार्यों का सिद्ध करो। ॐ अर्ह हे वशिनि ! हे मोहिनि ! सभी को मेरे वश करो ! सभी को मोहित करो । ॐ ही श्री हे सुखसुधा-हिरण्यसुवर्ण को बरसानेवाली ! मेरे लिये सुख की वर्षा करो, सुधाकी वर्षा करो, हिरण्य की वर्षा करो, सुवर्ण की वर्षा करो । हे आभकरे ! हे
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प्रभंकरे ! हे चन्द्रे हे चन्द्रकान्ते ! हे चन्द्रावते ! हे चन्द्रवर्णे ! चन्द्रलेश्ये ! हे चन्द्रश्रेष्ठे ! हे चन्द्रशेखरे ! हे सूरे ! हे सूरपमे ! सूरकांते ! हे सूरलेश्ये ! हे सूरश्रेष्ठे ! हे सूरशेखरे ! मुझको लेोकोत्तर सुखदायीं चमत्कार दो। ॐ हूँ। घृणिः सूर्यआदित्यः श्री मेरे समी आधि, व्याधि, चिन्ता, रोग, शोकों को नष्ट करो, मुझको तुष्टि, पुष्टि
और सुख दे।। ॐ ह्री श्री क्ली हे सर्वसिद्धिदायिनि ! हे सर्वसुखदायिनि ! सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्री सीमन्धर स्वामी जिनका स्मरण करो, गणधरसत्य का स्मरण करो, निर्ग्रन्थ प्रक्चन का स्मरण करो, आदिनाजिन का स्मरण करो, शान्तिनाथजिन का स्मरण करो, पार्श्वनाथजिन का
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स्मरण करो, वर्धमानजिन का स्मरण करो, शेष सभी जिनों का स्मरण करो, अवधिजिनों का स्मरण करो, मनः-पर्ययजिनों का स्मरण करो, केवलिजिनों का स्मरण करो, आमझे षधिलब्धिधारियों का स्मरण करो, विप्रडोषधिलब्धिधारियों का स्मरण करो, बीजबुद्धिलब्धिधारियों का स्मरण करो, अक्षोणमहानसलब्धिधारियों का स्मरण करो, नवपूर्वधारियों का स्मरण करो, यावत्चौदहपूर्वधारियों का स्मरण करो, वैक्रियलब्धिधरों का स्मरण करो, आहारकलब्धिधरों का स्मरण करो.
सकलजिनशासनदेवमनुस्मर, सकलजिनशासनदेवीमनुस्मर, बलकूटे बलदेवमनुस्मर, गंध.
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मादने गंधमादनदेवमनुस्मर, ब्राह्मीं सुन्दरीमनुस्मर, श्रीदेवीमनुस्मर, नन्दनकूटवासिनी मेधंकरादेवीमनुस्मर, मन्दरकूटवासिनी मेधवतीदेवीमनुस्मर, निषधकूटवासिनी सुमेधादेवीमनुस्मर, हैमवतकूटवासिनी मेधमा लिनीदेवीमनुस्मर, रजतकूटवासिनी सुवत्सादेवीमनुस्मर, रुचककूटवासिनीं वत्समित्रादेवीमनुस्मर, सागरचित्रकूटवासिनी वैरसेनादेवीमनुस्मर, वज्रकूटवासिनी बलाहकादेवीमनुस्मर।
સકળ જનશાસનદેવનું મરણ કરો. સકળ જનશાસનદેવીનું મરણ કરે. બલકુટમાં બિરાજમાન બલદેવનું સ્મરણ કરે, ગંધમાદનમાં બિરાજતી ગંધમાદનદેવનું રમરણ કરે, સતી બ્રાહ્મી–સુંદરીનું મરણ
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કરો,શ્રીદેવીનુ સ્મરણ કરો, ન દનકૂટનિવાસી મેધકરા દેવીનું સમરણ કરો, મ દરકટનિવાસી મેધવતી દેવીનુ સ્મરણ કરી, નિષધકૂટનિવાસી સુમેધાદેવીનુ સ્મરણ કરો,હૈમવતફૂટ નિવાસી મેધમાલિનીદેવીનુ રમરણ કરી, રજતફૂટનિવાસી સુવત્સાદેવીનું સ્મરણ કરો, રુચકફૂટ નિવાસી મિત્રાદેવીનું સ્મરણ કરી, સાગર ચિત્રકૂટનિવાસી બૈરસેનાદેવીનુ સ્મરણ કરી, ત્રકૂટનિવાસી બલાહકાદેવીનુ સ્મરણ કરો.
समी जिनशासनदेव का स्मरण करो, सभी जिनशासनदेवियों का स्मरण करो, बलकूट पर्वत निवासी बलदेव का स्मरण करो, गन्धमादन पर्वत निवासी गन्धमादनदेव का स्मरण करे।,
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ब्राह्मो और सुन्दरी का स्मरण करो, नन्दनकूट में रहनेवाली मेधंकर देवी का स्मरण करो, मन्दकूटमें रहनेवाली मेघवती देवी का स्मरण करो, निषधकूटमें रहनेवाली सुमेधा देवी का स्मरण करो, हैमवत कूटमें रहनेवाली मेधमालिनि देवी का स्मरण करो, रजतकूट में रहनेवाली सुवत्सादेवी का स्मरण करो, रुचककूट में रहनेवाली वत्समित्रादेवी का स्मरण करो, सागरचित्रकूट में रहनेवाली वैरसेनादेवी का स्मरण करो, वज्रकूट में रहनेवाली बलाहका देवी का स्मरण करो !
धन्यश। लिभद्रमनुस्मर ॥ ॐ ह्री श्री लक्ष्मीदेवी आगच्छ २ मम गृहे मम निवासस्थाने धनधारां वर्षय २, सर्व मनवांछितं पूरय २, क्षण
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मीक्षणैः मम सर्व क्षण सुखमयं कुरु कुरु ।
હી
ધન્ના શાલિભદ્રનુ ં મરણ કરી. શ્રી લક્ષ્મીદેવી પધારો, મારા ઘરમાં આપની પધરામણી કરી, મારા નિવાસસ્થાને મારા ઘરમાં ધનની ધારા વરસાવી–ધનની વૃષ્ટિ કરી, મારા મનની સર્વ મુરાદ પૂર્ણ કરી. કાળની ગતિમાં વહેતી મારી હરેક પળ–સમય સુખभय जनावो.
من
धन्यशालिभद्र का स्मरण करो ।
ॐ हूँ। श्रीँ लक्ष्मीदेवी! आओ, मेरे घर मेरे निवास्थान में धनधारा की वृष्टि करो, मेरे सभी वांछित को पूर्ण करो, प्रति क्षण मेरे
सभी क्षण - समय का सुखमय करो ।
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पद्मा श्री मन्मथ क्ली हृदय नमः सुप्रतिष्ठे वरिष्ठे शमे शमप्रमे महाप्रमे भासुरे भासुरप्रमे मम सर्वमनोरथं पूरय । धनधान्यहिरण्यसुवर्णविविधरत्नवृष्टि कुरु कुरु ।
પદ્મ શ્રી મન્મથ ફૂલી હૃદય નમઃ सुप्रतिष्ठ, श्रेष्ठ, वरिष्ठ, रिठे, शभे, शमપ્રભે, મહાપ્રભે, ભાસુરે, ભાસુરપ્રભે, મારા સર્વ મનોરથ પૂર્ણ કરે. ધનધાન્ય હિરણ્ય, સુવર્ણ તથા તરેહ તરેહનાં રત્નની વૃષ્ટિ કરે. ____ पद्मा श्री मन्मथ क्ली हृदयं नमः । - हे सुप्रतिष्ठे ! हे श्रेष्ठे ! हे वरिष्ठे ! हे गरिष्ठे ! हे शमे ! हे शमप्रमें ! हे महाप्रमे ! हे भासुरे ! मेरे, सभी मनोरथो को पूर्ण करो, धन, धान्य,
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हिरण्य, सुवर्ण और विविध रत्नों की वृष्टि करो।
ॐ ही श्री रूपे प्रसीद २ । ॐ श्री दिव्यानुभावे प्रसीद २ । ॐ श्री उज्ज्वले प्रसीद २, ॐ ही श्री उज्ज्वलरूपे प्रसीद २ । ॐ श्री ज्योतिर्मयि प्रसीद २। ॐ श्री ज्योतिरूपधरे प्रसीद २ मम गृहं मम गृहस्य अंगणं नन्दनवन कुरु कुरु । ॐ अमृतकुम्भे प्रसीद २। ॐ अमृतकुम्भरूपे प्रसीद २ मम वांछितं देहि २ । ॐ ऋद्धिदे प्रसीद २, ॐ समृद्धिदे प्रसीद २, ॐ महालक्ष्मि प्रसीद २, ॐ श्री लोकमातः प्रसीद २, ॐ श्री लोक जननि प्रसीद २, ॐ श्री शोभावर्द्धिनि प्रसीद २, ॐ श्री अमृतसंजीवनि प्रसीद २, ॐ श्री शान्त लहरि
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१५१
प्रसीद २,ॐ श्री प्रशान्तलहरि प्रसीद २, ॐ श्री शांतप्रशांतलहरि प्रसीद २ । ॐ श्री ग्लौ श्री नमः, ॐ ही श्री सर्वशत्रुदमनि सर्वशत्रून् निवारय २ विघ्नं छिन्धि २ प्रसीद २ धरणेन्द्रपद्मावते मम खुखं कुरु २ प्रसीद २ ।
» હી શ્રી લક્ષ્મીરૂપે પ્રરાન થાઓ. * શ્રી દિવ્યાનુભાવે પ્રસન્ન થાઓ. ૩ શ્રી ઉજજવલસ્વરૂપ પ્રરાન્ન થાઓ. ૩ શ્રી ઉજજવલરૂપ પ્રસન્ન થાઓ ૩ શ્રી જતિમંયિ પ્રસન્ન થાઓ શ્રી તિરૂપધરા પ્રસન્ન થાઓ, મારું ઘર અને મારા ઘરના આંગણાને નંદનવન સમાન કરે–નંદનવન બનાવે. ૩ અમૃતકુંભા પ્રસન્ન થાઓ. ૩ અમૃતકુંભા
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૨૧૨
રૂપા પ્રસન્ન થાઓ. મારી મનોકામના પૂર્ણ કરે છે ત્રાદ્ધિદા પ્રસન્ન થાઓ. ૩૧ સમૃદ્ધિદા પ્રસન્ન થાઓ. ૩ શ્રી મહાલક્ષ્મીદેવી પ્રસન્ન થાઓ શ્રી લેકમાતા પ્રસન્ન થાઓ પ્રસન્ન થાઓ. શ્રી લેકજનનિ પ્રસન્ન થાઓ.શ્રી શેભાવર્ધિની પ્રસન્ન થાઓ. ૐ શ્રી અમૃતસંજીવનિ પ્રસન્ન થાઓ. 3 શ્રી શાન્તલહરિ પ્રસન્ન થાએ ૩ શ્રી શાંત પ્રશાંતલહરિ પ્રસન્ન થાઓ. 8 શ્રી ગ્લીં શ્રી નમઃ હું સર્વશત્રુદમનિ મારા સર્વ શત્રુઓનું નિવાણ કરે વિન્ન કાપે પ્રસન્ન થાઓ હે ધરણેન્દ્ર અને પદ્માવતી મને સુખી કર પ્રસન્ન થાઓ.
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१५३ ॐ ही श्री रूपे ( प्रज्ञस्त रूपवाली) मेरे ऊपर प्रसन्न होओ। ॐ श्री हे दिव्यानुभावे ! ( दिव्यप्रभावशाली ! ) मेरे उपर प्रसन्न होओ । ॐ ह्री श्री हे उज्ज्वले ! प्रसन्न होओ। ॐ हूँ। श्री हे उज्ज्वलरूपे ! प्रसन्न होओ। ॐ हूँी श्री हे ज्योतिर्मय ! प्रसन्न होओ। ॐ ही श्री हे ज्योती रूपधरे ! प्रसन्न होओ, मेरे घर को, मेरे घर के आगन को नन्दनवन करो। ॐ हे अमृत कुम्भे प्रसन्न होओ । ॐ हे अमृत कुम्भरूपे ! प्रसन्न होओ, भेरे सभी वाञ्छित पूर्ण करो, ॐ हे ऋद्धिदे ! प्रसन्न होओ, ॐ हे समृद्धि दे ! प्रसन्न होओ, ॐ श्री हे महालक्ष्मी ! प्रसन्न
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१५४
होओ, ॐ श्रीँ हे लोकमाता ! प्रसन्न होओ, ॐ श्रीं हे लोकजननि ! प्रसन्न होओ, ॐ
शोभावर्द्धनि ! ( शोभा बढाने वाली )
प्रसन्न होओ, ॐ श्रीँ हे अमृतसंजीवनि ! प्रसन्न होओ, ॐ श्रीँ है शान्तलहरी ! प्रसन्न
ॐ
श्रीँ
प्रशान्तलहरी
प्रसन्न
होओ, होओ, ॐ श्रीँ शान्तप्रशान्तलहरी प्रसन्न होओ, ॐ श्रीँ ग्लोँ श्रीँ आपको नमस्कार हो ! ॐ हीँ सभी शत्रुओंका दमन करने वाली ! सभी शत्रुओंका निवारण करो, विघ्नका छेदन करो, प्रसन्न होओ, हे, धरणेन्द्र पद्मावति ! मुझे सुख दो, प्रसन्न होओ !
मूलमंत्र - ॐ ह्रीँ श्रीँ असिआउसाणं नमः ।
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મૂળમંત્ર–૩૭ હૈ શ્રી અસિઆઉસાણં નમઃ
શ્રી અરિહંત દેવને નમસ્કાર કરું છું. શ્રી સિદ્ધ ભગવાનને નમસ્કાર કરું છું. શ્રી આચાર્યજીને નમરકાર કરું છું. શ્રી ઉપાધ્યાયજીને નમરકાર કરું છું.
લેકને વિષે વિચરતાં સાધુ-સાધ્વીજીએને નમરકાર કરું છું. मूलमन्त्र-ॐ ही श्री असि आउसाणं नमः ।
१ श्री अरिहन्त देवको नमस्कार हो। २ श्री सिद्धभगवानको नमस्कार हो । ३ श्री आचार्यको नमस्कार हो। ४ श्री उपाध्यायको नमस्कार हो।
५ लोक में विराजमान सभी साधुसाध्वीयोंको नमस्कार हो।
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१५६ ॐ मंगलकरि प्रसीद, २, सुखकरि प्रसीद ૨, ૩ શાંતિ ઘણી ૨, 8 દ્ધિસિદ્ધિરિ प्रसीद २, सुख देहि, शांति देहि, ऋद्धिसिद्धि સેટ્ટિ, િિ િરિદ્ધિ ગાય છે સાજી सर्वसिद्धिदायिनि मम मनोवांछितं शीघ्र पूरय पूरय ।
૩ મંગલ કરનારી પ્રસન્ન થાઓ, ૩૦ સુખ કરનારી પ્રરાન્ન થાઓ, જે શાંતિ કરનારી પ્રસન્ન થાઓ. # રિદ્ધિ સિદ્ધિ કરનારી પ્રસન્ન થાઓ, સુખ , શાંતિ આપ, રિદ્ધિ સિદ્ધિ આપે, % કલિ કલિ એહિ એહિ, પધારે પધારે, હે સર્વસિદ્ધિદાયિનિ મારી મનોકામનાઓ તુરત પૂર્ણ કરે.
ॐ हे मङ्गल करनेवाली ! प्रसन्न होओ
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ॐ हे सुख करनेवाली ! प्रसन्न होओ, हे शान्ति करनेवाली ! प्रसन्न होओ, हे ऋद्धिसिद्धि करनेवाली ! प्रसन्न होओ, सुख दो, शान्ति दो, द्धिसिद्धि दो, किलिकिलि ! एहिएहि ( आओ आओ) आगच्छ आगच्छ ( आओ आओ) हे सभी सिद्धियोंकों देनेवालो। मेरे सभी मनोवाञ्छितोंको शीध्र पूर्ण करो।
साध्यमंत्र-- ॐ श्री धारे प्रसीद प्रसीद । उपहृदयम्-ॐ श्रीं त्रिलोकवासिन्यै केवल लक्ष्म्यै नमः धनधान्यहिरण्यसुवर्णधारां ममनिवासे पातय २। ॐ श्री रत्नसिंहासने प्रसीद २, ॐ कमलासने प्रसीद २। ॐ रत्नकुण्डले प्रसीद
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२, ॐ रत्नमुकुटे प्रसीद २ । ॐ रत्नभूषणे प्रसीद २ । ॐ चारुच्छत्रचामरे प्रसीद २, ॐ सहस्रकिरणप्रद्योतकरि सर्वराजवशकरि सर्वप्रजावशकरि सर्वलोकवशकरि सर्व मम वश्यं कुरु कुरु ।
સાધ્યમ ત્ર–32 શ્રીધારા પ્રરાન થાઓ ઉપહૃદયમ્ છે ત્રણે લોકમાં નિવાસ કરનાર કેવલ લક્ષ્મીને મારા નમરકાર હો ધનધાન્ય, હિરણ્ય સુવર્ણની ધારા મારા ઘરમાં વરસા. છે શ્રી રત્નસિંહાસનવાળી પ્રસન્ન થાઓ. છે કમલાસનવાળી પ્રસન્ન થાઓ. ૩ રત્નકુંડલવાળી પ્રસન્ન થાઓ. રત્નમુકુટવાળી પ્રરાન થાઓ. રત્નભૂષણવાળી
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પ્રરાન્ન થાઓ. હું સુંદર છત્રચામયુક્ત પ્રસન્ન થાઓ. હે હજાર કિરણોના પ્રકાશથી તેજોમયી સર્વ રાજાઓને વશ કરનારી સર્વ પ્રજાને વશ કરનારી હે દેવી! સર્વ મને વશ થાય તેવું કરે.
उपहृदय - ॐ त्रिलोकवासिनो लक्ष्माको नमस्कार हो, धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्णकी धारा मेरे धरमें वरसाओ ! ॐ हे रत्नसिंहासने ! (रत्नसिंहासनवाली !) प्रसन्न होओ।
हे कमलासने ! (कमलके आसनवाली !) प्रसन्न होओ। हे रत्नकुण्डवाली ! प्रसन्न होओ। हे रत्नमुकुटवालो ! प्रसन्न होओ, ॐ हे रत्नोंके भूषणवाली ! प्रसन्न होओ।
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१६० ॐ हे चारु (सुन्दर) छत्र और चामरवाली ! प्रसन्न होओ। ॐ हे सहस्र किरणों से प्रकाश करनेवाली ! हे सभी राजाओंको वश करनेवाली ! हे सभी प्रजाको वश करनेवाली ! हे सभी लोगों को वश करनेवाली ! सभीको मेरे वशमें करो! ____ॐ ही श्री क्ली महामायः प्रसीदतु । इन्द्रः प्रसीदतु। सूर्यः प्रसीदतु । सोमः प्रसीदतु । यमः प्रसीदतु। वरुणः प्रसीदतु । वैश्रवणः प्रसीदतु । हरिणैगमेषिदेवः प्रसीदतु । त्रिज़म्भकः प्रसीदतु । शब्दापातिस्वामि स्वातिदेव प्रसीद २ । विकटा पातिस्वामिप्रभासदेव प्रसीद २। गंधापातिस्वाम्यरुणदेव प्रसीद २ ।
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माल्यवदद्रिस्वामिपद्मदेव प्रसीद सर्वदिशाभ्यः सर्वविदिशाभ्यः कल्पलतेव मम वांछितं पूरय २ ।
* હ્રીં શ્રી ફલી કેવી લક્ષ્મી પ્રસન્ન થાઓ. ઇન્દ્રપ્રસન્ન થાઓ. સૂર્ય પ્રસન્ન થાઓ. સેમ (ચંદ્ર) પ્રસન્ન થાઓ. યમ પ્રસન્ન થાઓ. વરુણ પ્રસન્ન થાઓ. વૈશ્રવણ પ્રસન્ન થાઓ. હરિમેષિદેવ પ્રસન્ન થાઓ ત્રિજામ્ભક દેવ પ્રસન્ન થાઓ. શબ્દાપાતિ પર્વતના અધિપતિ સ્વાતિદેવ પ્રસન્ન થાઓ. વિકટાપતિ પર્વતના અધિપતિ પ્રભાસદેવ પ્રસન્ન થાઓ. ગંધાપતિ પર્વતના અધિપતિ અણુદેવ પ્રસન્ન થાવ. માલ્યવદદ્રિપર્વતના અધિપતિ પત્રદેવ
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પ્રસન્ન થાવ. સર્વ દિશાથી સર્વ વિદિશાથી કલ્પલતા રસમાં મારા સર્વ મનોરથ पूर्ण री. ____ॐ हीं श्रीं क्लीं महामाया प्रसन्न होओ ! इन्द्र प्रसन्न होओ ! सूर्य प्रसन्न होओ ! सोम प्रसन्न होओ ! यम प्रसन्न होओ । वरुण प्रसन्न होओ । वैश्रवण प्रसन्न होओ । हरिणगमेषि देव प्रसन्न होओ । त्रिजम्भक देव प्रसन्न होओ । शब्दापाति पर्वतके स्वामी हे स्वातिदेव ! प्रसन्न होओ । विकटापाति पर्वतके स्वामी हे प्रभासदेव ! प्रसन्न होओ । गन्धापाति पर्वत के स्वामी हे अरुणेदेव ! प्रसन्न होओ । माल्यवान्
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१६३ पर्वतके स्वामी हे पद्मदेव ! प्रसन्न होओ । सभी दिशाओंसे कल्पलताके समान मेरे वाञ्छित पदार्थोको पूर्ण करो ।
अनुमोदयन्तु मां मंत्राधिष्ठितदेवाः ।
शम २ मज २ सज २ उज २ तर २ मिल २ दिल २ पुल २ फुल २ ।
હે મંત્રના અધિષિત દેવ! મને अनुभाहन पापी. शभ-शम, मन-मन, स–स२४, SM-S, त२-तर, भिसभित, हिस-हस, पुस-ya, स-स. ___हे मन्त्राधिष्ठित देवो ! मेरा अनुमोदन करो । शम २ मज २ सज २ उज २ तर २ मिल २ दिल २ पुलं २ फुल २ ।
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दयामयि दयस्व २ मां, जागृष्व २ उत्तिष्ठ २ सुखकरं २ हिरण्यसुवर्ण देहि २ दापय २ मी हितकरं शांतिकरं कुलकरं वंशकरं वंशवृद्धिकरं । महापद्महृदनिवासिनि ही देवि मम लज्जां रक्ष २ | महा पुंडरीकद निवासिनि बुद्धिदेवि मम बुद्धि देहि २ । तिगिच्छन्दनिवासिनि धृतिदेवि मम धैर्यं कुरु २ । केसरिदह निवासिनि कीर्तिदेवि मम
यशः कीर्ति
प्रसारय २ ।
હૈ યાયિ ! મારા ઉપર भार रक्षण . लगो, लगो, સુખ ઉપાવે તેવું તેટલું હિરણ્ય સુત્ર आयो, पावो भने डितार, शांति
દયા કરી, अहो – अहे
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કારક, કુળવંશ રાખનાર તથા મારા ધર્મવંશની વૃદ્ધિ કરનાર આપે–અપાવે. હે મહાપદ્મ હૃદમાં બિરાજતી હીં દેવી ! મારી ઈજજત આબરૂનું રક્ષણ કરે. હે મહાપુંડરીક હૃદમાં બિરાજતી બુદ્ધિદેવી ! મને બુદ્ધિ આપે. તિગિ૭ હૃદમાં બિરાજતી હે ધતિદેવી મને વૈર્યવાન બનાવો. હે કેસરિ દૂદમાં બિરાજતી હે કીર્તિદેવીમારે યશ અને મારી કીર્તિ ચોમેર ફેલા.
हे दयामयि ! मेरे उपर दया करो २ जागो २ उठो २ सुखकर हिरण्य सुवर्ण તો, મુશે હિતકર, શારિર, કુસ્ટર, વૈરાર, वंशवृद्धिकर, हिरण्य सुवर्ण दिलाओ । महापद्महूद
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में निवास करनेवालो हे ही देवी ! मेरी लज्जा रखो । महापुण्डरीक हूद में निवास करनेवाली हे बुद्धिदेवी ! मुझे बुद्धि दो । तिगिच्छ हृद में निवासकरनेवाली हे धृतिदेवी ! मुझे धैर्य दो । केसरि हद में निवासकरनेवाली हे कीर्तिदेवी ! मेरे यश और कीर्तिको फैलाओ ।
ॐ ही विश्वरूपिणि, विभूति विभूतिरूपिणिसृष्टि सष्टिरूपिणि, धृति घृतिरूपिणि, कीर्ति कीर्तिरूपिणि, सिद्धि सिद्धिरूपिणि, सवसुखसाम्राज्यदायिनि मम त्रिलोकसंपदं कुरु कुरु, हिरण्यसुवर्णैः सुखसिद्धिसौभाग्यैः श्रेष्ठैः सर्वोपकरणः सर्वभोगैः सर्वोपभोगैश्च मम कोषकोष्ठागाराणि भर भर पूरय पूरय ।
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હ્રી વિશ્વરૂપિણિ,વિભૂતિ વિભૂતિરૂપિણિ, સૃષ્ટિ સૃષ્ઠિરૂપિણિ,કૃતિ-કૃતિરૂપિણિ, કીર્તિદીતરૂપિણિ, સિદ્ધિ સિદ્ધિરૂપિણિ,
હું સર્વ સુખ સામ્રાજ્ય દેનારી દેવી ! ત્રણે લોકની સપત્તિ મને આપો. હિરણ્ય, સુવર્ણ સુખ, સિદ્ધિ સૌભાગ્યથી, શ્રેષ્ઠ સ ઉપકરણાથી, રસ ભાગાથી, સર્વ ઉપભાગે થી મારા ખજાના—ભંડાર ઠાંસાઠાંસ ઠાંસીને ભરપૂર કરા.
ॐ ह्रीं हे विश्वरूपिणि ! हे विभूति ! हे विभूतिरूपिणि । हे सृष्टि ! हे सृष्टिरूपिणि हे હૈ ીર્તિ ! હૈ
ધૃતિ ! હૈ કૃતિવિળિ ! નૈર્તિ-વિનિ ! હે સિદ્ધિ ! હૈ સિદ્ધિનિ !
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हे सभी सुख और साम्राज्यको देनेवाली ! मुझे तीनों लोकोंकी सम्पत्ति दो, हिरण्यों से, सुवर्णो से, सिद्धियों से, सौभाग्यों से, श्रेष्ठ सभी सामग्रियों से, सभी भोंगों से और सभी उपभोगों से मेरे कोष और कोठारोंको भरो, पूर्ण करो ।
मूलविद्याॐ नमिऊण असुरसुरगरुलभुयंगपरिवंदिय गयकिलेसे । अरिहा सिद्धायरिय उवज्झाय सव्वसाहुणो ॥ ___ॐ ही नमः धनदपुत्रि जगत्सवित्रि अष्टसिद्धिप्रधानमहानिधान सुवर्णकोटि रत्नकोटि शतसहस्र संपन्ने आगच्छ २ भगवति मम गृहे मम पुरे प्रविश प्रविश मम अक्षीण सर्वधनं धारारूपेण वर्षय वर्षय ।
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१६९ તુ હી નમઃ હે ધનદપુત્રિ ! જગતસવિત્રિ, આઠ સિદ્ધિઓમાં મુખ્ય મહાનવનિધાન, સુવર્ણકટિ, રત્નકેટિ, લાખોસંપત્તિ સાથે પધારે. હે ભગવતિ ! મારા ઘરમાં, મારા નગરમાં પ્રવેશ કરે. મારા ઘરમાં અક્ષય અને વર્ધમાન સર્વધનની અખલિત ધારા વડે વૃષ્ટિ કરે. ___ॐ ही नमः हे धनदपुत्रि ! हे जगत्सवित्रि ! हे अष्टसिद्धिप्रधान महानिधानवाली ! लक्षलक्ष सुवर्णकोटि और रत्नकोटियों से युक्त ! आओ २, हे भगवति ! मेरे घर में, मेरे पुर में प्रवेश करो, मेरे लिये सभी प्रकारके अक्षीण धनोंको धारारूप में बरसाओ ।
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માવિવા– ॐ ही श्री श्रीधारे मम चिंतितसुखदायिनि अचिंतितसुखदायिनि प्रसीद २ मम सर्व कार्य साधय साधय । | મહાવિધા—
જ હૈ શ્રી મારાં ચિંતવેલાં સુખ આપનારી તથા મારા શમણામાં પણ નથી એવાં વચિંતવ્ય સુખની આપનારી હે શ્રીધારા દેવી ! પ્રસન્ન થાવ. મારાં સર્વકાર્યો સિદ્ધ કરો. મારા મનના મનોરથ પરિપૂર્ણ કરે.
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ससुमतिषिय:
महाविद्या--. ॐ हो श्री श्रीधारे मम चिंतित सुखदायिनि अचिंतित सुखदायिनि प्रसीद २ मम सर्व कार्य साधय ।
सर्वसुखनिधियंत्र -
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૭૨ ॐ नमः श्रीधारे चिंतामणि महाविद्ये करुणशरणे दीनभरणे जगदुद्धरणे विमलकमलवासिनि हिरण्य-सुवर्ण-धनधान्यकरि मम सकलार्थसिद्धिं प्रापय प्रापय, सर्वचिंतां चूरय चूरय, सर्वरिपून् स्तंभय २ निवारय २, जंभय २, मोहय २, सुखदे शिवदे शान्तिदे शुभदे प्रमोददे मम सर्वसौभाग्यं ऋद्धि सिद्धिं समृद्धि वश्यं रक्षा च कुरु कुरु, मम जयं विजयं च कुरु कुरु ॥
પરમહૃદયમ નમઃ શ્રીધારે ચિંતામણિ મહાવિદ્યા આપત્તિમાં આવી પડેલા ઉપર કરુણાભાવ રાખીને શરણ આપવાવાળી,ગરીબનું ભરણપિષણ કરવાવાળી,જગતને ઉદ્ધાર કરવાવાળી,
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વિમળ કમલમાં નિવાસ કરવાવાળી, હિરણ્ય, સુવર્ણ, ધનધાન્ય નિપજાવનારી હે દેવી ! મારા સકળ અર્થની સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરાવે. મારી સર્વ આધિ, વ્યાધિ, ઉપાધિ હરી લા. મારા સર્વ શત્રુઓને થંભાવી દે, તેનુ નિવારણ કરો. મારા શત્રુઆને સ્તંભત કરો. મારા ઉપર મમતા રાખેા. હૈ સુખ દેનારી, કલ્યાણ કરનારી, શાંતિ દેનારી, શુભ કરનારી, આનંદ પ્રમાદ દેનારી, મારુ સર્વ સૌભાગ્ય, રિદ્ધિ, સિદ્ધિ, સમૃદ્ધિ અને મારા વંશનું રક્ષણ કરો. મારા જય—વિજય થાય તેવું કરો.
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परमहृदय-- ॐ नमस्कार हो, हे श्रीधारे ! हे चिन्तामणि महाविद्ये ! हे दयनीय लोगोंके शरण रूप ! हे दीनोंका भरण करनेवाली ! हे जगत्के उद्धार करनेवाली ! हे विमलकमलके उपर वास करनेवाली ! हे हिरण्य-सुवर्ण-धन-धान्य देनेवाली ! मेरे सभी अर्थोको सिद्ध करो, मेरी सभी चिन्ता
ओंको चूरो, मेरे सभी शत्रुओंको स्तब्ध करो, निवारित करो, जम्भित करो, मोहित करो। हे सुख देनेवाली ! हे शिव-कल्याण-देनेवाली ! हे शान्ति देनेवाली ! हे शुभ देनेवाली ! हे प्रमोद देनेवाली ! मुझे सभी सौभाग्य दो, ऋद्धि दो, सिद्धि दो, समृद्धि दो, सभीको मेरे
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१७५ वश में करो, मेरी रक्षा करो, मेरी जयविजय करो।
___ यह विद्या अचलमति . विद्याधरने भद्रनंद नामक गाथापति को दी। इति श्रीधारामहाविद्यानामक संपत्स्मरण ॥ ४ ॥
५-अथ ऋद्धिस्मरणम् ऋद्धिस्मरणमात्रेण जायते ऋद्धिमान्नरः । तस्माद् ऋद्धि भगवतः प्रवक्ष्यामि शुभावहाम् ॥ १॥
પ-મું રિદ્ધિમરણ ___(१) शिवस्माना अध्ययन मात्रथा માનવી રિદ્ધિમાન બને છે. માટે હંમેશાં શુભ કરનારી એવી ભગવાનની રિદ્ધિનું હું વર્ણન કરીશ.
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५-ऋद्धिस्मरण भगवानकी ऋद्धि के स्मरणमात्र से मनुष्य ऋद्धिमान् होता है, इसलीये भगवानकी शुभदायक ऋद्धिको मैं कहता हूँ ॥ १॥ ऋद्धेनिरीक्षणं - - कर्तुं यस्याहारकलब्धिकः । गच्छत्याहारकं कृत्वा तस्मै भगवते नमः ॥२॥
(૨) જેની રિદ્ધિના નિરીક્ષણ અર્થે આહારક લબ્ધિધારી મુનિરાજ પિતાની લબ્ધિના પ્રતાપે ભગવાન પાસે જાય છે, તે પ્રભુને મારા નમસ્કાર હજો.
आहारकलब्धिवाले मुनि, भगवानकी ऋद्धिको देखनेके लिये आहारक लब्धिका स्फोरण करके उनके समीप जाते है एसे भगवान्को नमस्कार
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કરતા. મૈં ॥૨॥ अनन्तं केवलं ज्ञानं तथा केवलदर्शनम् । अनन्तसौख्यमप्येवं सम्यक्त्वं क्षायिकं तथा ||६|| यथाख्यातं च चारित्र मवेदित्वमतीन्द्रियम् । दानादिलब्धयः पञ्च द्वाद्शाक्ता गुणा इमे ॥ ४ ॥
આ પ્રભુની રિદ્ધિ કેવીક છે? જેને ૧ અનત કેવલજ્ઞાન છે. ૨ અનંત કેવળ દર્શન છે. ૩ અનતુ સુખ છે. ૪ ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વ છે.
(૪) તે ઉપરાંત ચારિત્રામાં શ્રેષ્ઠ એવુ ૫. યથાપ્યાતચારિત્ર છે. ૬. વેઢીપણું ( સ્ત્રી, પુરુષ, નપુ`સકપણાથી મુક્ત ) છે. અતીન્દ્રિયપણાથી અગેાચર. પાંચ પ્રકારની
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લબ્ધિઓ ( દાન ૮ લાભ ૯ ભેગ ૧૦ ઉપભોગ ૧૧ અને વીર્ય ૧૨) છે. એને બારે ગુણે કરીને સહિત છે.
अरिहंत भगवानके बारह गुण
(१) अनन्त केवल ज्ञान, (२) अनन्त केवल दर्शन, (३) अनन्त सौख्य, (४) क्षायिक सम्यक्त्व, (५) यथाख्यातचारित्र, (६) अवेदित्व, (७) अतीन्द्रियत्व और पाँच दानादिलब्धि, अर्थात् (८) दानलब्धि, (९) लाभलब्धि, (१०) भोगलब्धि, (११) उपभोगलब्धि और (१२) वीर्यलब्धि, ये बारह गुण अरिहंतों में होते है ॥ ३-४ ॥
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दिव्यं लोकोत्तरं रूपं दिव्यलावण्यसंसृतम् । दिव्यं ज्ञानादिकं यस्य तस्मै भगवते नमः ॥५॥
(૫) તે ઉપરાંત આ લેકમાં એના જેવું રૂપ નથી એવું દિવ્ય અને અલૌકિક જેવું રૂપ છે. જેના શરીરનું લાવણ્યસુંદરતા પણ દિવ્ય છે. જેનું જ્ઞાન વગેરે પણ દિવ્ય છે તે ભગવાનને મારા નમસ્કાર जे.
जिनका दिव्य रूप है, जो दिव्य लावण्यवाले हैं, जिनके दिव्य ज्ञानादिक गुण हैं, उन भगवान्को में नमस्कार करता हूँ ॥५॥ ऊर्ध्वाग्राः कण्टकाः सर्वे
यत्प्रभावादधोमुखाः।
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विषमाऽपि समा भूमिस्तस्मै भगवते नमः ॥ ६॥
(६) शुं लगवाननी सिद्धि छे ! शु તેના પ્રભાવ છે! ધરતી પર ઊંચી અણી રાખીને પડેલા કાંટા પણ એના પ્રભાવે કરીને અધમુખ–આડા પડી જાય છે. એવા પ્રભુને મારા નમસ્કાર હજો.
जिनके प्रभावसे ऊर्ध्वभुख काटे अधोमुख हो जाते हैं, विषम भूमि भी सम हो जाती है ऐसे भगवान्को नमस्कार हो ॥६॥ ईतिर्भीतिश्च मारी च दुर्भिक्षं वैरभावना ।
आधिर्व्याधिरुपाधिश्च
तथोत्पातः प्रशाम्यति ॥ ७ ॥
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(૭) અતિવૃષ્ટિ–અનાવૃષ્ટિ વગેરે ગમે તે પ્રકારને ભય લાગતે હૈય, મહામારીમરકીને રેગ ચાલતું હોય, દુષ્કાળ તેનું ખપર ભરતે હોય, શત્રુઓની વૈરભાવના પ્રબળ હૈય, ચારે તરફ આધિ, વ્યાધિ અને ઉપાધિનું સામ્રાજય વરતાતું હોય તથા દેશમાં કે નગરમાં ભારે ઉત્પાત મચે હેય તે તે સઘળું પ્રભુની રિદ્ધિના પ્રતાપે શમી જાય છે. ___ पचीस----पचीस योजन तक जिनके प्रभाव से (१) ईति अर्थात् १ अतिवृष्टि, २ अनावृष्टि, ३ चूहोका उपद्रव, ४ टीडोंका उपद्रव, ५ शुकोंका उपद्रव और ६ परचक्रका भय,
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यह छ प्रकारकी ईति, (२) भीति-भय (३) मारी-मरकी, (४) दुर्भिक्ष, (५) शत्रुता, (६) (६) आधि-मानसिक पीडा, (७) व्याधिशारीरिक पीडा, (८) उपाधि (झंझट) और (९) उत्पात-उपसर्गादि, ये सभी प्रशान्त हो जाते हैं ॥७॥ ऋतवश्च वसन्ताद्याः,
सर्व प्रादुर्भवन्ति च । लोकाः प्रमुदिता यस्मात्
तस्मै भगवते नमः ॥ ८ ॥ (८) बना प्रभारीने वसत, श्रीम, વર્ષા, શરદ, હેમન્ત, શિશિર ઋતુઓ પ્રગટ થાય છે. જેના પ્રભાવે કરીને સર્વ તેમાં
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१८३ આનંદમંગળ વરતાઈ રહે છે તેવા પ્રભુને મારા નસરકાર હશે. __ जिन भगवान्की अतिशय महिमा से वसन्त आदि सभी ऋतुएँ एक साथ प्रकटित होती हैं और जिनसे सभी लोगोंको आनन्द होता है, ऐसे भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ ॥८॥ संवर्तकेन वातेन,
तत्र योजनमण्डलम् । संशोध्यते च परितः,
प्रासु पुष्पाम्बुवर्षणम् ॥९॥ रूप्यसालो दीप्यमानः
स्वर्णकगुर-शोभितः । स्वर्णसालोऽपि रुचिरो,
रत्नकार-शोभितः ॥ १० ॥
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रत्नसालस्तृतीयश्च
भास्वरो मणिकङ्गुरः । इन्द्रास्तत्र चतुःषष्टि
रायान्ति प्रभुसन्निधौ ॥११॥ अशोकपादपस्तत्र
सिंहासनवरस्तथा । दुन्दुभिश्चामरं छत्रं,
प्रादुर्भवति पुण्यतः ॥ १२ ॥ (८) बना प्रमावे अशन संवत નામે પવન-વાયરા દ્વારા આખું વૈજન મંડળ શુદ્ધ થઈ તેમાંથી અચેત પુની વૃષ્ટિ થાય છે તેવા પ્રભુને મારા નમસ્કાર હો. . (१०) अनुनी रखनी, भलिमा त
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૧
જીએ રૂપાના દેઢીપ્યમાનગઢ અને સુવર્ણના ઝગમગતા સુશોભિત કાંગરા ૧, સુવર્ણ ના ગઢ અને રત્નના સુશાલિત કાંગરાની ૨ રચના થાય છે.
(૧૧) ત્રીજો રત્નના ગઢ અને મણિ રત્નાના કાંગરાની રચના થાય છે. અને જ્યાં ૬૪ ઇન્દ્રો પ્રભુની સેવા માટે હાજર થાય છે.
(૧૨) એક બાજુ આ બધી રચનાએ થાય છે. બીજી બાજુ અશ।ક વૃક્ષ નીચે પ્રભુ સિહાસન પર બિરાજમાન થાય છે. છત્ર— ચામરો ઢાળાય છે. અને આકાશમાં દેવા દુંદુભિ--નાદ કરી પ્રભુના મહિમાની જગતને
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જાણ કરે છે. આ બધું પ્રભુના પુણ્યપ્રભાવથી થાય છે.
भगवान् जिनेन्द्र देवका जहाँ समवसरण होता है वहाँ पर व्यन्तरदेव, संवर्तकवायु वैक्रिय करके चारों तरफ योजन मण्डल क्षेत्रको पहलेपहल वहांका कूड़ा-कचरा निकालकर साफ करते हैं, फिर वहां प्रासुक (अचित) पुष्प और अचित जलकी वृष्टि करते हैं, सोने के कंगूरों से शोभित, जगमगता हुआ पहला चान्दीका गढ बनाते हैं, रन्नोंके कंगूरों शोभित सोनेका दूसरा गढ बनाते हैं, और मणिमय कंगूरों से सुशोभित, प्रकाशवान् तीसरा रत्नोंका गढ बनाते हैं । वहाँ पर प्रभुके चरणोंके समीप चौसठ
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इन्द्र आते हैं। प्रभुके पुण्य से वहाँ पर अशोक वृक्ष, श्रेष्ठ सिंहासन, दुन्दुभि, चामर और छत्रવાટ હોતે હૈ # ૧-૨ છે. भामण्डलं प्रभोस्तत्र नेत्रानन्दकरं परम् । दिव्यध्वनिश्च सर्वेषां सुखद जायते ततः ॥
(૧૩) આ પ્રમાણે પ્રભુ જયાં બિરાજે છે ત્યાં આનંદની સીમા નથી. પ્રભુના ભા મંડળનાં દર્શન કરતાં નેત્રમાં અનંદનાં પૂર ઉભરાય છે. પ્રભુના મુખેથી દિવ્ય વાણીની ઘોષણ થાય છે, ત્યારે હાજર રહેલાં સૌ કોઈ પ્રાણી માત્ર વિષાદ રહિત થઈ સુખને અનુભવ કરે છે. રોમેરેામ આનંદ અને સુખથી ઉભરાય છે. આવું સસરણ પ્રભુ જયાં બિરાજતા હોય ત્યાં થાય છે.
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वहां पर नेत्रोंको आनन्द देनेवाला मण्डल प्रगट होता है, और दिव्यध्वनि होती है। वह सभी जीवोंके लिये सुखदायक होती हैं। ये आठ महापातिहार्य तीर्थकरोंके होते है ॥ १३ ॥ स्वर्गशोभा च या स्वर्ग
यावती स्यात्ततोऽधिका। अनन्तगुणिता शोभा,
__राजते तत्र मण्डले ॥१४॥ (१४) प्रभुना सभास२९॥ माते વર્ગ પણ પાણી ભરે છે. સ્વર્ગમાં રહેલી સ્વર્ગની શોભા કરતાં તે અનંતગણું શેભા સમોસરણની હૈય છે.
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वहां कैसी शोभा होती है वह कहते हैं
देवलोक में जितनी शोभा है उससे भी अनन्त गुणित अधिक शोभा भगवान् के सभवसरण में होती है ॥ १४ ॥
न्यूनान्न्यूनं कोटिसंख्या - स्तं सुराः समुपासते ।
द्वादशानां परिषदि
देशनां दिशति प्रभुः ॥ १५ ॥
(14) ने लति भने प्रअरना हेवा. પ્રભુના સમેાસરણમાં આવે છે. અને ખાર પ્રકારની પરિષદેાને પ્રભુ દેશના ( પ્રવચન ) माये छे.
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कमसे कम एक करोड देवता, प्रभुकी उपासना करते हैं, और प्रभु भवनपति, वानमन्तर, ज्योतिष और वैमानिकदेव देवियां, तथा मनुष्य मनुष्यणी तिर्यच और तिर्यचणी, इस तरह बारह प्रकारकी परिषद् में धर्मदेशना देते हैं ॥ १५ ॥
देवा मनुष्यास्तिर्यञ्चः सर्वे शृण्वन्ति देशनाम् ।
तत्तद्वाक्परिणामिन्या
भाषया स च भाषते ॥१६॥
(१६) देवता मनुष्य मने तियाय, મિત્ર અને શત્રુ સમભાવે પ્રભુના સમેાસરણ રૂપ ધર્મ સામ્રાજ્યમાં શત્રુતા ભૂલી દયા,
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- १९१
શાંતિ અને પ્રેમના વાતાવરણમાં અભય બની પ્રભુની વાણી પાતપાતાની ભાષામાં समने छे.
देव, मनुष्य, तियैच, ये सभी प्रभुकी देशना सुनते हैं, और भगवान् उन उन जीवोंकी अपनी २ भाषा में परिणत होनेवाली भाषा में देशना देते हैं ॥ १६ ॥
यदि खण्डमयं क्षेत्रं मधुवारि प्रवर्षणम् ।
क्षीरसारस्य पिण्डेन
पूरणं तत्र कर्षति ॥ १७ ॥
तत्रापि यदि बीजं स्यात् पुण्ड्रकस्य निरामयम् ।
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૨૧૨ सेचनं तत्र सद्राक्षा
रसेन यदि तत्फलम् ॥१८॥ तद्रसादधिकानन्त
गुणा मिष्टा प्रभोगिरः । यस्य चोच्छ्वासनिःश्वासा
पद्मोत्पलसुगन्धिकाः ॥१९॥ (૧૭) પ્રભુની જે વાણીએ પ્રાણીમાત્રના આત્મા વચ્ચે પ્રેમની એકતા સાધી તે પ્રભુજીની વાણી કરી છે, તે કહે છે કે ધારો કે કઈ ખાંડનું ખેતર હોય અને સેનામાં સુગંધી જેમ તેમાં મધને વરસાદ વરસે. દૂધના માવાનું ખાતર નાખવામાં આવે અને પછી તેને ખેડે.
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(૧૮) આ ઉપરાંત પુંડ્રક નામની શેરડીનું શુદ્ધ અને નીરોગી બીજ વાવવામાં આવે અને તેનું સિંચન દ્રાક્ષના રસથી કરવામાં આવે. અને પછી દેવેગે તેનું ફળ ઉત્પન્ન થાય તે તે ફળ માટે કહેવાનું શું હોય ? કેવી સરસ તે શેરડીની મીઠાશ હાય !
(૧૯) એ શેરડીની મીઠાશ કરતાં તે અનંતગણી મીઠાશ પ્રભુની વાણીમાં રહેલી છે. જેના શ્વાસોશ્વાસમાં ક્મળના પુષ્પ જેવી આહલાદક સુગંધી ભરેલી છે. _____ भगवानकी वाणी कैसी मीठी होती है ? લો #તે હૈં–
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१९४
अगर खेत खांडका हो, उस में मधु (शहद) की वर्षा हो, और खादके स्थान में
उसमें क्षीरसार ( मक्खन ) का गया हो, फिर उस खेत को जोते
खेतमें पुंडक नामके गन्ने - सांठेके बोया जाय, और उसको उत्तम
पिण्ड डाला
। फिर उस
नीरोग बीज द्राक्षारस से
सींचे, फिर यदि उसमें फल लगे और वह फल जैसा मीठा हो उससे भी अनन्तगुण अधिक भगवान्की वाणी मीठी होती है । और भगवान् के उच्छ्वास - निःश्वास पद्म-कमल और उत्पल कमल के समान सुगन्धित होते हैं
॥ १७-१८ - १९ ॥
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१९५. जिनेन्द्र चरणोपान्ते ये
समायान्ति वादिनः । संशयापगाद् सेव
सुप्रसन्ना भवन्ति ते ॥२०॥ (૨૦) શાસ્ત્રના વાદવિવાદ કરનાર વિદ્વાન પણ આખરે તે એ જિનેશ્વર પ્રભુના ચરણમાં આળોટે છે. અને જેઓ પ્રભુના માર્ગમાં સંશય રાખતા હતા તેઓને સંશય ટળતાં પ્રરાન્નતા અનુભવે છે.
जिनेन्द्र भगवानके चरणोंके समीप जो जो वादी जाते हैं वे सभी अपने संशयके दूर हो जानेके कारण अत्यन्त प्रसन्न होते
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एवं समवसरण जिनेन्द्रस्यातिशायिनः । उत्कृष्टशोभासंपन्नं द्योतमानं च सर्वतः २१ ____ (२१) मे जिनेन्द्र सेवानना अतिશથી શોભાયમાન સમેસરણ રચાયું છે. એની શોભા અને પ્રકાશથી સર્વત્ર પ્રકાશ પ્રકાશ રેલાઈ રહે છે. ____ अतिशय प्रभाव संपन्न भगवान् जिनेन्द्रदेवका समवसरण, इस प्रकार उत्कृष्ट शोभा से युक्त और चारों तरफ से प्रकाशमान होता है ॥ २१ ॥
तत्र रत्नमयी भूमा रत्नप्राकारगोपुरम् । रत्नपत्रैरत्नपुष्पवृक्षरत्नफलैर्युतम् ॥२२॥ (२२) मा सभास२९४नी भूमि देवी
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છે? તા કહે છે કે રત્નમય ! તેની ધરતી રત્નના ગઢ અને રત્નાના દરવાજા છે. રત્નનાં પાંદડાં છે અને રત્નનાં પુષ્પ છે. રત્નનાં વૃક્ષ છે અને રત્નનાં ફળ माजेसा छे.
उस समवसरणकी भूमि रत्नमयी होती है उसमें प्राकार (कोट) रत्नोंका होता है, गोपुर ( नगरद्वार) भी रत्नोंका होता है, और वहां पर रत्नोंके पत्रवाले, रत्नोंके पुष्पवाले और रत्नोंके फलवाले वृक्ष होते हैं ॥ २२ ॥ क्वचिद् वैडूर्यसंकाशं क्वचिन्नीलमणिप्रभम् ।
स्फटिकाभं क्वचिज्ज्योतिः
पद्मरागसमं क्वचित् ॥ २३॥
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१९८ क्वचिद् काञ्चनसंकाशं
बालसूर्यसमं क्वचित् । क्वचिन्मध्याह्नसूर्याभ
विद्युत्कोटिसमं क्वचित् ॥२४॥ (૨૩) સસરણની આ પુનિત ધરતી પર ઉપર પ્રમાણે સઘળું રત્નમય જ ભાસે છે. કેઈક સથળે વહૂર્ય રત્નથી સુશોભિત લાગે, તે કઈક રથળે નીલમણિના ઝળકાટથી ઝળહળે છે. કોઈક રથળે ફટિક રત્નને ઝળકાટ દેખાય છે, તો કોઈક સ્થળે જતિ રત્ન સમાન, તે કઈક સ્થળે પદ્મરાગની પ્રભા સમાન લાગે છે.
(૨૪) કેઈક સ્થળે સુવર્ણ નગરી
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સમાન લાગે છે, તો કોઈક સ્થળે પ્રભાત સમયે ઊગતા બાલરવિ સમાન તેજવી અને શીતળ પ્રકાશ સમું લાગે છે. કેઈવાર ખરા બપોરના ઉપર આવેલા સૂર્ય સમાન પણ તાપ રહિત પ્રકાશે છે. કોઈકવાર કરેડ વીજળીના ચમકારા સમાન ચમકે છે.
वहां की रत्नभूमि कहीं पर वैडूर्य मणि के समान चमकती है कहीं पर नीलमणि के समान, कहीं पर स्फटिक रत्न के समान, कहीं पर ज्योतिरत्न के समान, कहीं पर पद्मराग मणि के समान, कहीं पर सोनेके समान, कहीं पर बालसूर्यके समान, कहीं पर मध्याह्न
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कालिक सूर्यके समान ओर कहीं पर करोडों વિદ્યુત, સમાન રહતી હૈર-૨૪॥ न सूर्यचन्द्रौ नो विद्युत् कोटयो मणयोऽपि न ।
નિનમાયા: જોટયંગ
कोट्यंशेनापि ते समाः ||२५||
(૨૫) ક્યાં રાજા ભોજ ને ક્યાં ગાંગા તેલી ! સૂર્ય ની સરખામણી આપણે આગિયા સાથે કરી રહ્યા છીએ. ક્યાં પ્રભુજીની દિવ્ય પ્રભા ! અને ક્યાં આ આગિયા સમા સૂર્ય, ચંદ્ર, વીજળી અને મણિરત્ન! અરે જિનેશ્વરની પ્રભાના એક કરોડાંશના પણ કરાડાંશ એ તમારા સૂર્ય,
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ચંદ્ર, વીજળી અને મણિરત્નમાં નથી.
जिनेश्वर की प्रभाके कोटि अंश के कोटि अंश ( करोड वे अंश के करोड वे अंश) कि भी तुलना न सूर्य कर सकते हैं, न चन्द्रमा कर सकते हैं न करोडों विद्युत कर सकती हैं, मणियाँ नहीं कर सकती हैं ॥२५॥ लोकोत्तराऽऽहती
ऋद्धिद्रव्यतो भावतस्तथा । मण्डलान्तःस्थवस्तूनां
दिव्यदीप्तिविधायिनी ॥२६॥ तस्या विशुद्धभावेन
पाठेन विधिना जनः । भवेत् स्वल्पेन कालेन
द्रव्यभावर्द्धिसंयुतः ॥ २७ ॥
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(૨૬) ભગવાનની રિદ્ધિ દ્રવ્ય અને ભાવથી લેકોત્તર છે. સસરણમાં બિરાજતા ભગવાનની દિવ્ય દીપ્તિવિધાયની-- દર્શાવનારી દ્રવ્ય અને ભાવરિદ્ધિ છે.
(૨૭) આવી પ્રભુજીની રિદ્ધિના તેત્રની જે કોઈ ભવિજન વિધિપૂર્વક શુદ્ધ ભાવે આરાધના કરશે, તેને ઘણા જ ટૂંકા સમયમાં દ્રવ્ય અને ભાવથી સંયુક્ત રિધ્ધિ આપોઆપ આવીને મળશે.
રિધિમરણ સમાપ્ત થયું
अर्हन्तो की लोकोत्तर द्रव्य और भाव ऋद्धि, मण्डल के अन्तर्गत वस्तुओंकी दिव्य दीप्ति को उत्पन्न करनेवाली होती है। जिनेन्द्र
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भगवानकी ऐसी लोकोत्तर ऋद्धिका विधिपूर्वक विशुद्ध भाव से पाठ करने से मनुष्य स्वल्पकाल में ही द्रव्य और भाव ऋद्धि से युक्त हो जाता है ॥ २६-२७॥
॥ इति ऋद्धिस्मरण संपूर्ण ॥
अथ षष्ठं सिद्धिस्मरणम् सिद्धीसरणमेत्तेणं, सव्वसिद्धी पजायए । तमहं संपवाच्छिस्सं, भव्वाणं सिद्धिहेयवे ॥१॥
૦૬ સિદ્ધિસ્મરણ (१) सिद्धिस्म२९॥ मात्रथी-पटते
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સિદ્ધિમરણના સ્વાધ્યાય માત્રથી સ પ્રકારની સિદ્ધિઓ પ્રાપ્ત થાય છે. એવા સિદ્ધિરમરણના મહિમાના ગુણગાન ભવી જીવાના હિતાર્થે હવે હું કહીશ.
• ૬-બથ સિદ્ધિમતા सिद्धिस्मरण के स्मरण मात्र से सभी प्रकार कि सिद्धि प्राप्त होती है, इस लिये भव्यों की सिद्धि के निमित्त मैं सिद्धिस्मरण कहूँगा ॥ १ ॥ विमलसयलमणोहरं, नमिऊणं चरण जिणवराणं । वइस्सं तणुतणुतं, सुहसिद्धियं भविहियठाए || २ ||
(૨)અત્યંત નિમ`ળ અને સર્વ જીવાના ચિત્તને આકર્ષે તેવા નયનમનેાહર જિનેન્દ્રભગવાનના ચરણને નમરકાર કરી, ભવ્ય
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જીવના હિતાર્થે હવે હું સુખ, સિદ્ધિદાયક એવા સિદ્ધિ મરણ રૂપ તનુ તનુત્ર(ક્વચ)નાં ગુણગાન કરીશ. ___ विमल और सर्वापेक्षा मनोहरजो जिनेन्द्रोंके चरणकमल है उन्हें नमस्कार करके, कवच के समान शरीरकी रक्षा करनेवाला सुखसिद्धि देनेवाला इस कवच का मैं भव्यजनों के हितार्थ कहूँगा ॥२॥
ॐ ही श्री उसभोसिर मवउ ___ॐ ऐं क्रो वि अजिओभालं । ॐ श्री संभवनोनेतं, पाउसया
सव्व सम्मदोय ॥ ३ ॥ (3) ॐ ॐ श्री *महेव स्वामी !
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મારા મતકની રક્ષા કરે. ઐ હ્રી અજિતનાથ સ્વામી ! મારા ભાલ પ્રદેશની (કપાजना) २क्षा ४२.
ॐ श्री सारन स्याना होता સંભવનાથ સ્વામી ! મારાં ચક્ષ(આંખ)ની સદા રક્ષા કરો. ___ॐ हूँ। श्री श्रीऋषभस्वामी मेरे शिर की रक्षा करें, अर्थात् इनके प्रभावसे शिर की रक्षा हो। ऐसा सब जगह समझ लेना
चाहिये। - ॐ ऐं क्री श्री अजितनाथ स्वामी मेरे भाल (ललाट)की रक्षा करें ।
ॐ श्री सभी प्रकार के कल्याण को
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देनेवाले श्री संभवनाथ स्वामी मेरे नेत्रों की सदा रक्षा करें ॥३॥
ॐ ह्री श्री क्ली सिरि अभिनंदणो। धाणिदियं सव्वया,
ॐ सिरि सुमतिनाथ स्वामी ॐ ब्लौं सिरि पद्मनाभ स्वामी वच्छ पाउ सुमइ ॐ,
कण्णं ॐ ब्लौ च पउकप्पहो ॥४॥ (૪) હી બી° ફૂલૈ શ્રી અભિનંદન સ્વામી મારી નાસિકા(નાક)ની સદા રક્ષા કરે.
ॐ सुमतिनाथ स्वामी ! मा। १३:स्थण(छाता)नी रक्षा २.
» બ્લી પદ્મપ્રભુ સ્વામી ! મારા કણે(अन)नी २क्षा २.
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रीअभिनन्दन स्वामी
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૨૯૮
मेरे घाणेन्द्रिय(नाक)की सर्वदा रक्षा करें । ___ॐ श्री सुमतिनाथ स्वामी मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करें ।
ॐ ब्लौ श्री पद्मप्रभ स्वामी मेरे कर्णेन्द्रिय (कान) की रक्षा करें ॥४॥
कंठसंधिं तु रक्खउ, ॐ ही श्री क्लो सुपास जिणवरो मे । खधं पुणपाउ मज्झक,
ॐ हीं श्रीं जिणचंदप्पहो ॥५॥
(५) ॐ ही श्री ५३॥ सुपाचનાથ સ્વામી ! મારા કંઠ–ગરદનની રક્ષા
.
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ર૦૧
છે હીં શ્રી ચંદ્રપ્રભુ જીનેશ્વર ! મારા ખભાની રક્ષા કરો. ____ॐ ही श्रीं क्लीं जिनवर श्री पार्श्वनाथ स्वामी मेरी कण्ठसन्धि की रक्षा करें । ___ॐ ह्रीं श्रीं जिनेश्वर श्री चन्द्रप्रभ स्वामी मेरे स्कन्ध (कंधे ) की सर्वदा रक्षा करें ॥ ५ ॥ ॐ को सुविधिबुद्धि,
___ अवउ सिज्जंस वासुपुज्जो करजं । विमलजिणो उयरं मे,
ॐ ही श्री वण्णसंकलिओ ॥ ६ ॥ (६) ॐ श्री सुविधिनाथ स्वामी 1
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મારી બુદ્ધિની રક્ષા કરો.
જ્જો યાંસનાથ સ્વામી ! મારા જમણા હાથની આંગળીઓની રક્ષા કરી. ૐ ક્રી વાસુપૂજ્ય સ્વામી ! મારા ડાબા હાથની આંગળીઓની રક્ષા કરો. ૐ હ્રી શ્રી વિમલજીનેશ્વર ! મારા ઉદર(પેટ)ની રક્ષા કરો.
ॐ क्रोँ श्री सुविधिनाथ स्वाभी मेरी बुद्धिकी रक्षा करें ।
ॐ क्रोँ श्री श्रेयांसनाथ स्वामी मेरे दाहिने हाथ की अंगुलियां की रक्षा करें ।
ॐ क्रोँ श्री वासुपूज्य स्वामी मेरे बायें हाथ की अंगुलियों की रक्षा करें ।
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ॐ ह्रीँ श्रीँ श्री विमल जिन मेरे उदर
( પેટ ) ની રક્ષા કરે ॥ ૬ ॥ ॐ ह्रीँ धम्मो जंघ, पिट्ठमलि मल्लिकुसुमकोमलो ।
सदयमुणिसुव्वयो हियं,
कुन्थू करेगीवं' अरो श्रीँ ॥ ७ ॥ (૭) ૐ હૈં। ધર્મ નાથપ્રભુ ! મારી જ ધાએ(જાંધ)ની રક્ષા કરો.
ૐ શ્રી મલ્લિકા (વેલી) લ સમાન કામળ શરીરધારી શ્રી મલ્લીનાથ જીનેશ્વર ! મારી પીઠની રક્ષા કરા
ૐ શ્રી દયાળુ મુનિસુવ્રત જીનેશ્વર મારા ! હૃદયની રક્ષા કરી.
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૩% કુંથુનાથ જીનેશ્વર ! મારા હાથની २क्षा २.
ॐ अनाथ स्वामी ! भारी श्रीवा(3)नी २१॥ २.
ॐ ही श्री धर्मनाथ स्वामी मेरी जंघाओं की रक्षा करें । ___ॐ ही मल्लिका पुष्पके समान कोमल
श्री मल्लीनाथ स्वामी मेरी पीठकी रक्षा करें । ___ॐ श्री दयालु श्री मुनि सुव्रतनाथ स्वामी मेरे हृदयकी रक्षा करे । ____ॐ श्रीं श्री कुन्थुनाथ स्वामी मेरे हाथों की रक्षा करें ।
ॐ श्री श्री अरनाथ स्वामी मेरी ग्रीवा
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(હે) ની રક્ષા કરે || ૭ || ॐ श्रीं श्रीं नमी ककखं, नासारोगं हरउ हीँ श्री नेमी ।
अणतपासो गुज्जरोगं,
ૐ ઠ્ઠી શ્રી મઢી મુકયિો ॥૮॥ (૮) ૐ હૈં। શ્રી શ્રી નમીનાથસ્વામી ! મારી કાંખા (કૂખ)ની રક્ષા કરી. ૐ હ્રી શ્રી શ્રી નેમીજીનેશ્વર ! મારા નાસિકાના રોગને મટાડા.
# હી શ્રી ફલી શ્રી અનંત જીનેશ્વર તથા ૐ હ્રી શ્રી* ફૂલી શ્રી પાર્શ્વનાથ પ્રભુ ! મારા ગુહ્ય ( ગુપ્ત ) રાગોને મટાડો.
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ॐ श्री श्री श्री नमिनाथ स्वामी मेरी काखोंकी रक्षा करें . ॐ ही श्री श्री नेमिनाथ स्वामी मेरे नासिका रोगका हरण करें । ____ॐ ही श्रीक्ली श्री अनन्तनाथ स्वामी
और ॐ ही श्री क्ली श्री पार्श्वनाथ स्वामी मेरे गुह्यरोगोंको हरें ॥ ८ ॥ ॐ श्री तिल्लोकवसं,
कुरु कुरु वद्धमाणो महावीरो। सव्वमंगलसुहकरो, __चिंतामणि-सुरतरुव्व फलओ ॥१॥
(e) ॐ श्री सशित भ २नार તથા સુખ દેનાર, ચિંતામણિ રત્ન તથા
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કલ્પવૃક્ષ સમાન મનવાંછિત ફળ દેનાર એવા હે! વર્ધમાન મહાવીર સ્વામી! આપ, ચિંતામણિ સુરતરુકલ્પવૃક્ષ સમાન મારે માટે થાવ. ___ॐ श्री श्री वर्धमान महावीर स्वामी तीनों लोगोंको मेरे वशमें करें । जो भगवान् सभी मङ्गल और सुख करनेवाले, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष के समान अभीष्ट फलदायक
सव्वे जिणगणहरा,
अंगरोमाई मज्झक रक्खंतु । ॐ ह्री श्री सियलंपहु,
सब्वसत्तुचयं सिढिलं कुरु ॥ १० ॥
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२१६
(१०) हे सर्वे भिनवरो सर्वे गएધરા ! મારા શરીરના અંગ તથા રામા (३वांटां)नी रक्षा 1.
૩. હ્રી શ્રી શીતલનાથ સ્વામી મારા સ` શત્રુ સમૂહને શિથિલ બનાવી દે.
सर्व तीर्थकरों के सर्व गणधर मेरे शरीरके रोमोंकी रक्षा करें और ॐ ह्रीँ श्रीँ श्री शीतलनाथ स्वामी मेरे सभी शत्रुओंको शिथिल करें ॥ १० ॥
ॐ ह्रीँ श्रीँ क्लीँ ह्रीँ, संतीसुयसंपयं मज्झक कुणउ समिद्धि
ॐ ह्रीँ ऐ सीमंधर,
पमुहा होंतु कामधेणु व ॥ ११ ॥
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२१७
(११) ॐ श्री श्री सी ही શાન્તિનાથ જિનેશ્વર મને શાંતિ, સુખ, સંપત્તિ અને સમૃદ્ધિ આપે. ___ ॐ ही में सीम५२ स्वामी कोरे જિનગણ કામધેનુ ગાય સમાન મારા માટે મનવાંછિત ફળના દાતાર હૈ
___ॐ ही श्री क्ली ही श्री शान्तिनाथ भगवान् मुझे सुत, सम्पत्ति और समृद्धि दें। __ॐ हीं ऐं श्री सीमन्धर आदिजिनेन्द्र कामधेनुके समान अभीष्ट फलदायक होवे ११ एवं सिद्धीसरणं,
जयहियकरणं सुहावहं सययं । तम्हा अन्भसणिज्ज, सब्वाणं सब्वमुहवंदं सुवकंद ॥१२॥
इति सिद्धिस्मरणम् ।
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२१८ (૧૬) આ પ્રકારનું આ સિદ્ધિમરણ માનવી માત્રા માટે સર્વદા હિતકારક અને સુખકારક છે. એટલા માટે સર્વસુખના બીજ સ્વરૂપ આ સિદ્ધિરમણને વાધ્યાય સર્વ લેકએ કરવા ઈચ્છનીય છે.
સિદ્ધિમરણ સંપૂર્ણ इस प्रकारका यह सिद्धिस्मरण, मनुष्यों का सर्वदा हित करनेवाला और सुख देनेवाला है, इसलिये सभी शुखोंके कन्द स्वरूप इस स्मरणका अभ्यास सभीको करना चाहिये
॥ इति सिद्धिस्मरण संपूर्ण
अथ सप्तमं जयस्मरणम् ---- जयस्मरणमात्रेण जयः सर्वत्र जायते । । तदहं संप्रवक्ष्यामि, भव्यानां जयहेतवे ॥१॥
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૭મું જય સ્મરણ (૧) જય મરણના સ્વાધ્યાય કરનારને જ્યાં જ્યાં જાય ત્યાં ત્યાં સર્વ સ્થળે ચામેર જય મળે છે. એટલા માટે ભવ્ય. જનાના જયના હેતુ અર્થે હવે હું જય મરણુ કહીશ.
|| ૭ અથ નયસ્મર” ||
जयस्मरण मात्रसे सर्वत्र जय होता है, इसलिये मैं भव्योंके हितार्थ जयस्मरण कहूँगा ।। શ્ યા
ॐ घंटाकर्णो महावीरः सर्वव्याधिविनाशकः । सर्व विघ्नापहर्ता च, सर्वत्र जयकारकः ।। २ ।। (૨) ૐ ધટાકર્ણ મહાવીર પ્રભુ !
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૨૨૦ સર્વ પ્રકારના વ્યાધિને નાશ કરનાર ! સર્વ પ્રકારના આવી પડતાં વિઘ હરનાર ! સર્વત્ર જ્યકારી એવા હે મહાવીર પ્રભુ...
ॐ श्री धण्टाकर्ण महावीर, सभी व्याधियोंके विनाशक हैं, सभी विनोंको दूर करने वाले हैं सर्वत्र जयकारक हैं ॥ २ ॥
यत्र त्वं वर्तसे देव !, लिखितोऽक्षरपङ्क्तिभिः । तत्राधयो व्याधयश्च, नैवतिष्ठन्ति सर्वदा ॥३॥
(૩)હે દેવ! જયાં બિરાજે છે, જ્યાં જ્યાં પંક્તિઓમાં આપનું નામ લખાએલું છે ત્યાં ત્યાં આધિ વ્યાધિ કઈ કાળે રહી શક્તાં નથી.
हे देव ! जहां पर आप अक्षर पङ्कितयोंसे
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लिखित रहते है, वहां पर आधि और व्याधिकी स्थिति कभी भी नहीं होती ।। ३ ॥ ૩૫ પશ્ચ સર્વે પિ, शकश्चिन्ता दरिद्रता ।
उपसर्गा महाश्चैव,
प्रशाम्यन्ति न संशयः ॥ ४ ॥
(૪) તે ઉપરાંત સર્વ પ્રકારની ઉપાધી શાક, ચિન્તા, દરિદ્રતા, આવી પડેલા ઉપસર્ગો તથા પનેાતી કે તેવી કાઈ પ્રકારની ગ્રહદશા, વગેરે હૈ ધટાકણ મહાવીજી આપના પ્રભાવથી શમી જાય છે તેમાં સંશયને સ્થાન નથી.
सभी प्रकारकी उपाधियाँ, सभी प्रकारके
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રો, નિત્તા, રિત, ૩, ગૌર પ્રહ, प्रशान्त हो जाते हैं, इसमें किसी भी प्रका૨I સરાય નહી ૐ || 8 | डाकिनी शाकिनी चैव,
योगिनी राक्षसा अपि । भूताः प्रेताश्च वेतालाः
पलायन्ते न संशयः ॥ ५ ॥ (૫) ચાહે ગમે તે વળગાડ હેય, ડાકણ, શાકિણી, જમણી, રાક્ષસ, ભૂત, પ્રેત, વૈતાળ ગમે તેને ઉપદ્રવ નડતે હોય તે પણ, હે ઘંટાકર્ણ મહાવીરજી ! આપના પ્રભાવથી આ રાÁ ઉપદ્રવ કરનાર, જીવ લઈને નાસી જાય છે તેમાં લેશમાત્ર પણ સંશય નથી.
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डाकिनी, शाकिनी, योगिनी, राक्षस, भूत, प्रेत और वेताल, इस जयस्मरण से दूर भाग जाते हैं, इसमें कुछ भी संशय नहीं ॥ ५ ॥ घण्टाकर्णप्रभावेण, कामधेनुः सुरद्रुमः । चिन्तामणिनिधिश्चैते, भवन्ति वशवर्तिनः ॥६॥
(६) ५९ना प्रभावथी मधेनु, કલ્પવૃક્ષ, ચિંતામણિરત્ન, નવનિધિ, વગેરે આ સ્તોત્રને સ્વાધ્યાય કરનારને વશ થાય छे, मेट 3 मनामना पूर्ण थाय छे. _____घण्टाकर्ण महावीरके प्रभाव से कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि, और निधि, ये सभी वशसर्ती हो जाते है ॥ ६ ॥
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नाकाले मरण तस्य, न च सर्पण दश्यते । अमिचौरभयं नास्ति, हाँ धण्टाकर्ण नमोस्तुते,
ठः ठः ठः स्वाहा ॥ ७॥ (૭) આ ઘંટાકર્ણ મહાવીર સ્તોત્રના સ્વાધ્યાય કરનારનું અકાળ મોત થતું નથી, तभर तेने सपश, शि, तेमा थोरને ભય રહેતું નથી એવા હે ઘંટાકર્ણ મહાવીરજી ! આપને હું નમસ્કાર કરું छु. ४: 8: 8: स्वास....
યમરણ સંપૂર્ણ इस जयस्मरणके स्वाध्याय करनेवालेका अकाल में मरण नहीं होता है, न उसे सर्प डस सकते हैं, न उसको कभी चोर और
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મિ મા હોતા હૈ હી વહેં ઝળે છે ગાપો માર હૈ, ટઃ ઃ 8 વાદ્દીં ||ળા
| | તિ નયનરસિંપૂર્ણમ્ |
॥ ८ अथ विजयस्मणम् ।। विजयस्सरणानिश्च, सव्वत्थ विजयो भवे । तमहं सपोवोच्छिस्सं, सब्बलोगोवकारगं ॥१॥
• ૮ મું વિજ્યમરણ (૧) વિજ્ય મરણને સ્વાધ્યાય કરવાથી સર્વત્ર વિજ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે. તેથી હું સર્વ લેકના હિત કાજે સદા કલ્યાણ રૂપ એવા વિજયમરણને કહીશ.
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२३६ ॥ अथ विजयस्मरण ॥' ___(ज्वर आवे, मस्तिष्क पर भार मालूम पडता हो तो किसी से सुनना अथवा स्वयं पाठ करना ) ___विजयस्मरण से नित्य सर्वत्र विजय होती है सभी लोगोंका उपकारक उस विजयस्मरणको मैं कहूंगा ॥१॥ उवमसग्गहरं पासं, पासं वन्दामि कम्मधण युक्कं । धरणिंदपोमावइ, सहिय कल्लाणआवासं ॥२॥
(૨) આ વિજ્ય સ્મરણનું અધ્યયન કરવા માત્રથી સર્વ ઉપસર્ગો (આવી પડેલી આપત્તિઓ)ને નાશ થાય છે. સર્વ પાપકર્મ નાશ પામે છે. ધરણેન્દ્ર અને પદ્મા
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વતી દેવી જેની સેવા કરે છે એવા સદા કલ્યાણકારક પ્રભુ પાર્શ્વ જીણુંદને હું વંદન
पार्श्वयक्ष जिनकी आज्ञाके पालनके लिये सर्वदा तत्पर रहता हैं, धरणेन्द्र पद्मावती जिनकी सेवाके लिये सतत उत्सुक रहते हैं, एसे उपसर्गहारी, कर्मधन से मुक्त, कल्याणके आवास भगवान् श्री पार्श्वनाथ स्वाभीको वन्दन करता हूं ॥ २ ॥
ॐ ही श्री तं नमामि पासनाहं ।।३।।
(3) ॐ श्री है पार्श्वनाथ પ્રભુ! આપને નમસ્કાર કરું છું.
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ॐ ही श्री उन पार्श्वनाथका नमस्कार करता हूं ।! २ ॥ ॐ ही श्री धरणिंद
नमंसिय दुहविणासं ॥ ४ ॥ (૪) » હી શ્રી દુઃખમાત્રને નાશ કરનાર એવા શ્રી ધરણેન્દ્ર દેવથી નભરકાર કરાયેલા આપને નમસ્કાર કરું છું. ___ॐ ह्री श्री धरणेन्द्र नमस्कृत दुःखविनाशक प्रमु को नमस्कार करता हूँ ॥४॥ ॐ ही श्री जरसप्पभावेणं सेया ॥५॥ ॐ ही श्री नासंति उवद्वा सव्वे ॥६॥
(५-६) ॐ ह्री श्री ना प्रमाવથી સર્વ પ્રકારની ઉપાધીઓ નાશ પામે છે.
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२२९ ॐ ही श्री जिनके प्रभाव से कल्याण होते हैं ॥५॥ - ॐ ही श्री सभी उपद्रव नष्ट हो जाते हैं ॥६॥
ॐ ही श्री पइसुमरामि तं मणे ॥७॥ (૭) ૩ હી” શ્રી જેનું ધ્યાનપૂર્વક સ્મરણ કરવાથી મન પ્રફુલ્લિત થાય છે.
ॐ ही श्री उनको मनमें स्मरण करता हूँ ॥७॥ ॐ ह्री श्री न होइ वाही न किंपि दुहं ॥८॥
(८) ॐ डी श्री स्भ२९५ ४२વાથી કોઈ પણ પ્રકારની વ્યાધિ કે દુઃખ ઉત્પન્ન થતાં નથી.
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રરૂ ॐ ही श्री न कोई व्याधि होती हैं और न काई दुःखी होता है ॥८॥ ___ॐ ही श्री न होइ जल जलण भयं तह सप्पसिंहभयं ॥९॥
(८) ॐ श्री बनु स्मरण કરવાથી જળ, અગ્નિ, સાપ તથા સિંહને ભય હોતો નથી.
ॐ ही श्री न जलका भय होता हैं, न अग्निका भय होता है, न सर्पका भय होता है और न सिंहका भय होता है ॥९॥ ॐ ही श्री न हेाइ चोरारिसंभव भयं ॥१०॥ . ___ॐ ही श्री चोर और शत्रुसे होने वाला भय नहीं होता है ॥१०॥
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ॐ ही श्री पयर्ड न इत्थ संदेहो ॥११॥ ___ॐ ही श्री पार्श्वनाथ प्रभु का यह पूर्वोक्त प्रभाव प्रकट है, यहाँ कोई सन्देह नहीं है ॥११॥
ॐ ही श्री नामवि जस्स हु मंतसम १२ ___(१२) ॐ ड्री श्री नाम य२३५
छे, मात्र समान छ. ___ॐ ही श्रीं नाम भी जिनका मन्त्रके समान है ॥१२॥ ॐ ही श्री जो सुमरइ पासनाहपहुं ॥१६॥
(13) ॐ श्री श्री १॥ पाश्वनाथ પ્રભુનું જે સ્મરણ કરે છે.
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ॐ ह्रीँ श्रीँ जो पार्श्वनाथ प्रभुका
स्मरण करता हैं ॥१३॥
ह्रीँ श्रीँ क्लीँ पहवइ
न कयावि कोवितस्स ॥ १४ ॥ (१४) ॐ ॐीँ श्रीँ इसीँ नेनाथी ચાર અને શત્રના ભય નાશ પામે છે, તેમાં જરા પણ સંદેહ રાખશે નહિ.
ॐ ही श्रीँ क्लीँ कभीं भी कोई भी उसके उपर प्रमुत्व नहीं कर पाता ॥ १४ ॥
ॐ ह्रीँ श्रीँ क्लीँ श्रीँ श्रीँ सव्वसुहं पावर इह लोगट्ठी पर लोगट्ठी ॥१५॥
લી श्रीँ
(१4) ॐ ह्रीँ श्रीँ इसीँ
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શ્રી તે આ લેક તેમજ પલેમાં સર્વ પ્રકારનું સુખ પ્રાપ્ત કરે છે. ____ॐ ही श्री क्ली श्री श्री इहलोकार्थी और परलोकार्थी अपने २ अभिलषित सभी प्रकारके सुखोंको प्राप्त करते हैं ॥१५।। ___ॐ ही श्री जो सरइ पासनाहं सोमुच्चइ सव्व दुःखाओ ॥ १६॥
(૧૬) ૩૭ હી” શ્રી” જે પાર્શ્વનાથ પ્રભુનું સ્મરણ કરે છે, તે સર્વ દુઃખોથી મુક્ત થાય છે.
ॐ ह्री श्री जो पार्श्वनाथ प्रमुको स्मरण करते हैं वे सभी प्रकारके दुःखोंसे मुक्त हो जाते है ॥१६॥
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રરૂ૪ ॐ ही श्री हू हौ गा गी गः, तह सिञ्झइखिप्पं ॥१७॥ ___(१७) 3 &ी श्री डी ॥ 01: પાર્શ્વનાથ પ્રભુનું રમણ કરવાવાળાનાં સર્વ કાર્ય જલદીથી સિદ્ધ થઈ જાય છે. ___ॐ है। श्री ही है| गागी गः शीघ्र सकल कार्यसिद्ध होते हैं ॥१७॥
ॐ ही श्री इयनाउ सरेइ भगवतं ।१८। ___(१८) ॐ श्री डूछो ॥ ગી” ગઃ એમ સમજીને શ્રી પાર્શ્વનાથ ભગવાનનું સ્મરણ કરવું જોઈએ. ___ॐ ही श्री ही हा गा गी गः ऐसा समझकर भगवानका स्मरण करना चाहिये ॥१८॥
ॐ ही श्री सवसत्ति संपन्नधरणिंद
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२३५ पोमावइ देवि सव्वत्थविजयं कुरु कुरु सव्वकित्तिजसोबलं, देहि देहि सव्व सौभग्गं कुरु कुरु सव्वमंगलं साधय साधय सव्व मनोरथं पूरय पूरय ૩ ટ્રી શ્રી નમઃ સિદ્ધ ? ' (૧૯) હ્રીં શ્રી સર્વ સુખસંપત્તિ આપનાર ધરણેન્દ્ર તથા પદ્માવતી દેવી જેની સેવા કરે છે, એવા પાર્શ્વનાથ પ્રભુ ! મારે સર્વ પ્રકારે વિજય કરે ! વિજ્ય કરો ! સર્વ પ્રકારની કીર્તિ, યશ, બળ આપે ! સર્વ સૌભાગ્ય કરો ! રાવ પ્રકારનાં મંગળ સાધી આપે ! મારા સર્વ મને રથ પૂર્ણ કરે ! ઉ હીં શ્રી સિદ્ધગતિને પામેલા એવા પાનાથ પ્રભુ ! આપને મારા નમરકાર હજો.
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વિજયસ્મરણ સમાપ્ત
ॐ ह्रीँ श्रीँ हे सर्वशक्ति सम्पन्न धरणेन्द्र और पद्मावती देवी ! सर्वत्र विजय करो, सभी प्रकारकी कीर्ति, यश और बल मुझे दो, सभी प्रकारका सौभाग्य दो, सभी प्रकारके मङ्गलको सिद्ध करो, मेरे सभी मनोरथोंको पूर्ण करो, ॐ ह्रीँ श्रीँ नमः सिद्धं ॥ ८ ॥ ॥ इति विजयस्मरण संपूर्ण ॥ ८ ॥ ॥ ९ शान्तिस्मरण ॥
शान्तिस्मरण मात्रेण शान्तिः सर्वत्र जायते । तदहं संप्रवक्ष्यामि, सर्व कल्याणकारकम् ॥ ९ ॥ હું મુ શાન્તિસ્મરણ (१) शान्तिस्भरणनो स्वाध्याय ४२ -
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વાથી સર્વ સ્થળે શાનિત શાન્તિ થાય છે. તેથી હવે હું આપની સમક્ષ દરેક પ્રકારે કલ્યાણ કરનારા એવા શાન્તિસ્મરણના મહિમાનું વર્ણન કરું છું.
૧ અથ શાકિસમ | शान्तिस्मरण मात्रसे सर्वत्र शान्ति होती है. इसलिये मैं सर्वकल्याणकारक उस शान्ति મળો દંગા | ૨ | शान्तिनाथं प्रभुं वन्दे, मातृगर्भ गतोऽपि यः । मारीभये समुत्पन्ने, लोकानां शान्तिकारकः ॥२॥
(૨) હે શાન્તિનાથ પ્રભુ ! આપ માતાના ગર્ભમાં આવતાં જ, આપના પિતાના રાજ્યમાં ફેલાઈ રહેલે, મહામારી–
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२३८ મરકીને રોગ શમી ગયો અને પ્રજાજનોમાં શાંતિ જ શાંતિ વરતાઈ. એવા હે શાંતિનાથ પ્રભુ ! આપને હું વંદન કરું છું. __ मैं शान्तिनाथ प्रमुकी वन्दना करता हूं, अपनी माताके गर्म में रहे हुए भी जो मरकीका भय उत्पन्न होने पर लोगोंके लिये शान्तिकारक हुए ॥२॥ यस्मिन् जाते च लोकेषु,
प्रकाशः समजायत । शान्तिः सर्वत्र लोकानां
मङ्गलं च गृहे गृहे ॥६॥ (3) में शांतिनाथ प्रभु ! आपने જન્મ થતાં જ લેકને વિશે પ્રકાશ વ્યાપી
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ગયે. લોકમાં સર્વ સ્થળે શાંતિ જ શાંતિ વ્યાપી ગઈ. ઘેર ઘેર મંગળ વરતાઈ રહ્યું.
जिनके उत्पन्न होने पर तीनों लोकमें प्रकाश हो गया, सर्वत्र लोगोंको शान्ति हुई और धर धरमें मङ्गल हुआ ॥६॥ विश्वसेनो नृपश्चासीत् , सुन्दरे हस्तिनापुरे । अचिराख्या महादेवी सुव्रता शीलशालिनी ॥४॥
(૪) સુંદર એવા હસ્તિનાપુર નગરને વિષે આપના પિતા વિશ્વસેન નામે રાજા રાજ્ય કરતા હતા. અને અચલાદેવી (અચીરા) નામે વ્રત–નિયમનું પાલન કરનાર, પતિવ્રતા અને શીલવંતા
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એવાં મહારાણી આપના માતા હતાં. ____ अति सुन्दर हस्तिनापुर नगरमें विश्वसेन नामका राजा थे, उनकी रानीका नाम अचिरा देवी था, जो परम पतिव्रता थी और शीलसे सुशोभित थी ॥ ४ ॥ तस्या गर्भे समायातः शान्तिनाथजिनः प्रभुः । त्रिलोकवन्द्यः सर्वेषां शोकसन्तापहारकः ॥५॥
(५) सोने विषे पहनीय, સર્વ પ્રાણીમાત્રના શેક–સંતાપના હરનાર એવા શાંતિનાથ ભગવાન, આવાં ચરિત્રશીલ અચલાદેવી માતાની કૂખે ગર્ભમાં पन्न थया. उस रानीके गर्भमें, त्रिलोकवन्द्य, सभीके
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शोक-सन्ताप हरनेवाले, प्रभु शान्तिनाथ जिन
अवतरित हुए ॥ ५ ॥ तदा कूटसंनिवेशे, हस्तिनापुरसंनिधौ । शान्ति प्राप्ता जनाः सर्वे संकटे समुपस्थिते ॥ ६ ॥
(६) थे ये समय हतो. हस्तिनाપુર નગરની નજીકમાં કુટ નામના સનિવેશ( નાનું પત્તું )ને વિશે પ્રજાજના સંકટગ્રસ્ત બન્યા હતા. તેવે સમયે શાંતિનાથ પ્રભુ માતાના ગર્ભ આવ્યા હતા અને સર્વ પ્રજાજનામાં શાંતિ છવાઈ.
पास कूटनामक
उस समय हस्तिनापुर के सन्निवेश में उपस्थित बहुत संकट से सभी लोगोंको शान्ति मिली ॥ ६ ॥
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રકર कश्चिदेवस्तदा तत्र, पूर्ववैमनुस्मरन् । स्वकीयशक्त्या पाषाण-वर्षणं कृतवान् परम् ॥७॥
(૭) તે સમયે કોઈ એક દેવને પિતાના પૂર્વભવના વેરનું સ્મરણ થયું. અને પિતાની દેવી અને માયાવી એવી શૈક્રિય શક્તિથી મોટી શિલા અને પથ્થરોના વરસાદ ગામ અને નગર ઉપર વરસાવવા માંડયો. _____ उस समय उस कूट सन्निवेशमें कोई देवने, अपने पूर्व भवके वैरका स्मरण करते हुए अपनी वैक्रिय शक्तिसे उस गाम पर अत्यधिक पत्थरोंकी वृष्टि की ॥७॥ प्रचण्ड पवनस्तत्र, प्रादुभूतो भयंकरः । दावानलसमश्चाग्निरुद्भूताः सर्पवृश्चिकाः ॥८॥
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ર૪રૂ
(૮) તે દેવને એકલા પથ્થરોના વરસાદથી વેરની તૃપ્તિ ન થઇ, પણ તેથીય આગળ વધીને પોતાની શૈક્રિય શક્તિના બળે કરીને પવનની આંધિ અને વાવા
ડાનું ભયંકર તાંડવ મચાવ્યું. ત્યારે તરફ દાવાનળનાં તાંડવ રચાયાં. ધરતી ઉપર આગ ઓકવા માંડી. ચારે તરફ સર્પ અને વીંછીઓ ઉત્પન્ન કર્યા. અને ઘરેઘર સર્પ અને વીંછીને ભયંકર ભય વ્યાપી રહ્યો.
फिर वहा पर प्रचण्ड पवन बहने लगी दावानलकी सदृश भयङ्कर आग चारों तरफ लगने लगी, और जहरीले सर्प और वृश्चिक
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( વિદ્ય) ઉત્પન્ન વ્રુક્|| ૮ || वज्रपातसमो नादः सर्वजन्तुभयानकः । नद्याः पूरः प्रादुरासीद् विषधूमस्तथैव च ॥ ९ ॥
( ૯ ) આટઆટલું કરવા છતાં પણ એ દેવને વેરની તૃપ્તિ ન થઈ. હજીયે બાકી હૈાય તેમ, પ્રાણી માત્ર જેના ભયથી ધ્રજી મરે તેવા ભયાનક જાણે–વાપાત થતા હાય તેવા વીજળીના કાટકા કરવા માંડયો. નીમાં પ્રલયનાં પૂર ઉભરાવ્યાં, નીએએ ચારે તરફ પ્રલય તાંડવના ખેલ ખેલવા માંડયા. ઝેરી ગેસના ધુમાડાના ગોટેગોટા ઉત્પન્ન કર્યાં, તા૨ે તેના આત્માને શાંતિ ન વળી.
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सभी प्राणियोंको भय देनेवाला वज्रपातसदृश गर्जन होने लगा, नदियोंमें प्रचण्ड बाढ आने लगी, और विषका धूम फैलने IT | ૧. विद्युत्पातस्तथा व्याधिरुपाधिश्च सहस्रशः । भूकम्पस्तमसाच्छन्नं, नभः पक्षिरुतैर्युतम् ॥१०॥
(૧૦) આટલું તે હજી અધૂરું હોય તેમ લપકારા લેતી વીજળીએ ચારે તરફ પડવા માંડી, જાણે લાવ લશ્કર લઈને આવી હોય, તેમ હજારે આધિ, વ્યાધિ અને ઉપાધિઓ ખડકાવા માંડી, ચારે બાજુ ધરતીકંપ થવા માંડ, ગગનચુંબી ઈમારત ધરાશાયી થવા માંડી. આકાશ
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માં ઘનઘોર અંધકાર વ્યાપી રહ્યો. ચારે તરફ વિનાશનાં તાંડવ ખેલાવા માંડ્યાં. પંખીડાઓ ભયગ્રસ્ત દશામાં કલરવ કરવા भांडयां. ___ हजारों विद्युतपात, व्याधि, उपाधि और भूकम्प वहां होने लगे, आकाश अन्धकार से व्याप्त हो गया और उडते पक्षिगण भर्यात्त शब्द करने लगे ॥१०॥ शिलावृष्ट्याहताः केचित् ,
केचिद् वायुरयाऽऽहताः । पतन्ति व्याकुलाः केचित् ,
शुष्ककण्ठाः पिपासवः ॥११॥ (११) मावा प्रसयन तांउमा भाग्य
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શાળી હશે તે જ બચ્યા હશે. બાકી તા કેટલાએ પશુ, પક્ષી અને માનવ સમુદાય શિલાવૃષ્ટિથી ઘવાયા, કેટલાયે પ્રચંડ આંધિના તુફાનથી ધવાયા, કેટલાયના ભયત્રરત દશામાં પાણીના અભાવે ક' શાષાવા & માંડયા, પ્રાણી માત્ર આ તાંડવને ભાગ બન્યાં.
कितनेक शिलावृष्टिसे आहत होकर गिरते थे, कितनेक वायुके प्रचण्डवेगसे आहत होकर गिरते थे, कितनेक प्यासके मारे शुष्ककण्ठ हो व्याकुल होकर गिरते थे ॥ ११ ॥
समन्ताज्ज्वलतिग्राभे
हाहाकारयुता नराः ।
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शब्दाधातेन बधिराः,
રા: સાહિમિસથી | ૨૨ // (૧૨) જાણે સારાયે નગરે અગનપિછોડી ઓઢી હોય તેવો દેખાવ થઈ રહ્યો હતા. આગથી ભડભડ બળતા આ નગરના પ્રજાજનોમાં હાહાકાર વરતાઈ રહ્યો હતે. જાણે આકાશ તૂટી પડયું હોય તેવા ગગનભેદી અવાજથી કેટલાય માનવોના કાનના પડદા તૂટી ગયા–બહેરા બન્યા. કેટલાએ માનવીઓ પર વિષધર ભુજંગ-સર્ષે તૂટી પડ્યા અને મોતનાં તાડવ ખેલાયાં.
वे कूटसन्निवेश चारों तरफसे जलने लगा, ऊनके निवासीलोग हाहाकार करने लगे, कित
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नेक लोग वन जैसे शब्दोंके आधातसे बधिर लोगोंको सपने
हो गये थे और कितनेक
હસ યિા થા ।। ૧૨ ।।
नद्या: पूरं समायान्तं दृष्ट्वा धावन्ति सर्वतः । विषधूमाद् दृष्टिहीना विद्युत्पातहता अपि ॥ १३ ॥
(૧૩) પાણીનાં પૂર ચઢવાથી ગાંડાતૂર બની અને કેટલાએ માનવીઓને પેાતાની ગોદમાં સમાવી લીધા. ધરતીએ જ્યાં જ્યાં માગ આપ્યા ત્યાં ત્યાં પાણીની ઘૂમરીએ લેતી ગાંડાતુર બની દોડવા માંડી. માનવીઓના જીવ તાળવે ચઢયા અને જીવ બચાવવા આમતેમ દોડવા માંડયા. ઝેરી ગેસ–વાયુના કારણે કેટલાએ જીવાએ પાતાની
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આંખનાં રતન ગુમાવ્યાં. અંધાપ મેળ, કાળજાં ફાડી નાખે તેવા કાટકા સાથે વીજળી પડતાં કેટલાએ જીવનો ઘાણ વળી ગયે. મતના મેંમાં ઘકેલાયા.
नदीके बाढको आते देख, मनुष्य चारों और भागते थे, विषधूमसे कितनेक मनुष्य दृष्टिहीन (अन्धे) हो गये थे, कितनेक बिजली गिरनेसे मूर्छित हो गये थे ॥ १३ ॥ पतन्ति यत्र तत्रापि झंझावातहता गृहः भूकम्पचलिताश्चैव जना उद्विग्नमानसाः ॥१४॥
(१४) भय२ शांषि पवाराने કારણે ગગનચુંબી ઈમારત ધરાશાયી-જમીન
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દાસ્ત થવા માંડી. ધરતી કંપને કારણે ધરતી પગ નીચેથી સરવા માંડી. જાણે કે ધરતી હિલેાળે ચઢી. જાન બચાવવા શું કરીએ ? કયાં જાઇએ? માનવીએનાં મન ઉદ્વેગના હિલોળે હીંચવા માંડયાં.
झंझावात (आंधी) से कितनेक घर जहीं तहीं गिर गये थे, कितनेक घर भूकम्पसे 'अब गिरे तब गिरे ' ऐसे हो गये थे, सभी मनुष्योंका चित्त उद्विग्न हो गया था ।। १४॥ तमः प्रच्छन्नदेहाश्च
न पश्यन्ति परस्परम् ।
संजाता भयभीताश्च
जनाः कल्पान्तशङ्कया ॥ १५ ॥
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(૧૫) ચારે તરફ ઘોર અંધકાર વ્યાપી રહ્યો છે. કોઈ કોઈનાં મોઢાં જઈ શકાતાં નથી. માનવીઓનાં હૈયાં ભયથી ફફડી રહ્યાં છે. આ શું થવા બેઠું છે? પ્રલય કાળનાં તાંડવ તે નહિ હોય! પ્રલયની શંકાથી માનવીઓના જીવ તાળવે ચુંટાયા. મત હથેળીમાં દેખાવા માંડયું.
अंधकार इतना बढ़ गया कि लोग एक दूसरेको परस्पर नहीं देख पाते थे । समी मनुष्य कल्पान्त( प्रलय )की आशङ्कासे भयमीत
कश्चिदेको जनस्तत्र,
भीत्याऽऽयातो नृपान्तिके ।
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उवाच करुणासिन्धो !
त्रायस्व शरणागतम् ॥ १६ ॥ ( ૧૬ ) ડૂબતા તરણું પડે તેમ જ્યારે બચવાના કાઈ ઉપાય ન રહ્યો, તેને સમયે કાઈ એક નગરજન ભયભીત સ્વરૂપે વિશ્વસેન મહારાજા પાસે આવીને કરગરવા માંડયા, “ હે કરુણાના સાગર ! આપને શરણે આવ્યા છું.આ તાંડવમાંથી બચાવે.” એમ કહી આંખામાં ચોધાર આંસુ સાથે વીતેલી કરુણ ઘટનાએ મહારાજા સમક્ષ રજૂ કરી.
उस कूट सन्निवेशका भयभीत कोई एक मनुष्य, राजाके समीप आया, और बोला
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हे करुणासिन्धु ! शरणागतकी रक्षा करो ऐता #હ ર સવ વૃત્તાંત સુનાયા છે ?૬ . देशवार्ताहरास्तत्र तदैव समुपागताः। ऊचुर्नुपान्तिके सर्वे देशविप्लवदुर्दशाम् ।। १७॥ सर्वत्र च महामारी महादुष्टा पिशाचिनी । निपात्य दुःखगर्ने च जनान् भक्षति सर्वतः ॥१८॥
(૧૭–૧૮) ચારે તરફ જ્યારે પ્રલયનાં તાંડવથી અંધાધૂધી વ્યાપી ગઈ હતી, તે સમયે દેશ દેશના રાજદૂત એકી શ્વાસે મહારાજા વિશ્વસેન સમક્ષ દેડી આવ્યા. અને શાને દેશવ્યાપી વિપ્લવની દુર્દશાની કહાણીને તાદશ ચિતાર આપવા માંડ્યાઃ “હે મહારાજા!
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ચારે તરફ આ પ્રલયનાં તાંડવ તે મચી રહ્યાં છે, તે હજી ઓછું હોય તેમ પિશાચિની સ્વરૂપ, મહા દુષ્ટા એવી મહામારી –મરકીને રોગચાળે ચારે તરફ ફેલાઈ રહ્યો છે. પ્રજાજને દુઃખની ઊંડી ખીણમાં ધકેલાઈ રહ્યા છે. મરકીએ સાક્ષાત્ કાળદેવ–રાક્ષસ સ્વરૂપ ધારણ કર્યું છે, અને માનવીઓને કેળિયે કરી રહી છે. મરકી આજે માનવભક્ષી બની ચૂકી છે.” - उसी समय देशवार्ताहर (राज्यकी परिस्थितिका समाचार लानेवाले दूत) भी वहां आये, और उन लोगौने भी, देशमें जो विप्लव और दुर्दशाका साम्राज्य छाया हुआ
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था उसका यथार्थ वर्णन किया । फिर उन दृताने राजासे कहा हे महाराज ! देशमें सर्वत्र महादुष्टा महामारी पिशाचिनी लोगोंकों दुःखके गर्त(खडे) में डाल कर चारों तरफ से खा रही है, अतः इसका प्रतीकार आवश्यक है ॥ १७,१८॥ एतन्निशम्य वचनं भूपतिर्जनवत्सलः । विश्वसेनः कृपासिन्धुः प्रतिज्ञामकरोत्तदा ॥१९॥ सर्वथानैव शान्तिः स्याद् यावन्काले प्रजासु च । चतुर्विधाशनं त्याज्यं
तावत्काले मया ध्रुवम् । २० । (૧૯) પ્રજાજનોને પોતાના પ્રાણ સમ વહાલા ગણાતા એવા, કરુણાના
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સાગર વિશ્વસેન રાજાનુ હૈયુ આ વ હકીકત સાંભળતાં દ્રવી ગયું, કાળજી કંપી ઊઠયું, અને તે જ વખતે તેમણે પ્રતિજ્ઞા કરી.
(૨૦) “જ્યાં સુધી મારા પ્રજાજનાની અશાન્તિ દૂર ન થાય ત્યાં સુધી મારે ચારેય પ્રકારનાં અન્નપાણીને ત્યાગ! –આ છે મારી અચળ પ્રતિજ્ઞા ! '”
दूतका यह वचन सुनकर प्रजावत्सल, करुणा के सागर राजा विश्वसेनने यह प्रतिज्ञा की कि जबतक प्रजामें सर्वथा शान्ति नहीं होगी तबतक के लिये मैं चारों प्रकारके आहाરા પરિત્યાગ કરતા
||૨૬,૨૦ ||
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आगतस्तत्र देवेन्द्रस्तदैव चलितासनः । उवाच नृपतिं राजन् ! कष्टं किं तव विद्यते ॥ २१
(२१) यां मान प्रतिशत કરી, કે તુરત જ ઈન્દ્રનું ઇન્દ્રાસન ચલાયભાન થયું. તે જ વખતે ઇન્દ્ર, રાજા સમક્ષ પધાર્યા અને પૂછ્યું, “હે રાજન ! આપને ઍવુ તે શું દુઃખ આવી પડયું છે કે मापने मनशन ७२ ५४यु ?" . ____राजाकी इस प्रतिज्ञा से देवेन्द्रका आसन चलित हो गया और वे राजाके समीप आये
और कहने लगे-हे राजन् ! आपको क्या कष्ट है जो आपने चारों प्रकारके आहारका परित्याग किया ? ॥ २१॥
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विश्वसेन नृपः सर्व देवेन्द्रं वृत्तमब्रवीत् । દુઃવવા સમાજળ્યે, સુરેન્દ્ર. કારૢ મૂતિમ્ ।૨૨। वृथा किं खिद्यसे राजन् ! सन्निधिर्यस्य संनिधौ । चिन्तामणिः सुरतरुः कामधेनुश्च वर्तते ।। २३ ।। सर्वशक्तियुतो देवः सर्वशान्तिकरः प्रभुः । નનન્યા ઉત્તે રાનન્ ! વસંતે મને તવ ।।૨૪।।
( ૨૨ ) વિશ્વસેન રાજાએ ઇન્દ્રને પાતાના પ્રજાજનાને માથે ખેલાઈ રહેલા તાંડવનેા ચિતાર કહી બતાવ્યા. આ દુઃખના ચિતાર સાંભળી ઈંદ્રે વિશ્વસેન મહારાજાને જણાવ્યું કે...
(૨૩) “ હે રાજન ! વૃથા ખિન્ન શા માટે થાય છે? જેની પાસે ભંડાર
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છે, ચિંતામણિ છે, કલ્પવૃક્ષ છે અને કામધેનુ વર્તે છે, તેને ચિન્તા કરવાની શી જરૂર છે?”
(૨૪) સર્વશક્તિમાન દેવ, સર્વત્ર શાંતિ જ શાંતિના કારક, એવા શાંતિનાથ પ્રભુ, તો તમારા રાજમહેલમાં તમારી રાણીના કૂખે ગર્ભમાં બિરાજે છે. પછી હે રાજન! તમારે વૃથા ચિંતા શા માટે કરવી. ?”
देवेन्द्रका यह वचन सुनकर विश्वसेन राजाने उनको देशकी दुर्दशाका सब समाचार सुनाया । दुःखवार्ता सुनकर देवेन्द्रने राजासे इस प्रकार कहा
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हे राजन् ! जिसके पास चिन्तामणि, कल्पवृक्ष और कामधेनु है, ऐसे आप ब्यर्थ ही क्यों खिन्न होते हैं ? क्योंकी हे राजन् । आपके भवनके अंदर अचिरारानी के कुक्षि में सर्वशक्तिसम्पन्न, सभीको शान्ति देनेवाले प्रभु विराज रहे हैं ॥ २२-२३-२४॥ इत्युक्त्वा तत्र देवेन्द्रो मातृगर्भ गतं जिनम् ।। भावेन स्तोतुमारेभे, सर्वशान्ति प्रकाम्यया ॥२५॥
(२५) वापिन्द्र 20 प्रमाणे કહીને પછી સર્વત્ર શાંતિ સ્થપાય તે સારુ માતાના ગર્ભમાં રહેલા જીનેશ્વર શાંતિનાથ ભગવાનની સ્તુતિ કરવા લાગ્યા.
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इस प्रकार राजाको आश्वासन देकर देवेन्द्रने सभी लोगों मे शान्ति हो, इस कामनासे मातृगर्भ स्थित जिन भगवानकी मानपूर्वक स्तुति प्रारम्भ की ॥२५॥
कर्पूरं शीतलं लोके, तस्मादपि च चन्दनम् । ततश्चाप्यधिकश्चन्द्रस्तस्मादप्यधिको भवान् ॥२६॥ लोकोत्तमो लोकनाथो, लोकप्रद्योतकारकः । चक्षुदौ मार्गदश्चापि धर्मदः शुद्धबोधिदः ॥२७॥
अवधिज्ञानसंपन्नो भव्याब्जोबोध भास्करः । जनानन्दकरः सर्व-शुद्ध धर्मप्रकाशकः ।। २८॥ चन्द्रमाश्रयते हर्तुमाकाशः स्वगतं तमः ।
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२६३ तथा दुःखतमो हतु
प्रभो ! त्वामाश्रये ध्रुवम् ॥२९॥ सर्वसिद्धिप्रदः सर्व-सिद्धौषधि समः प्रभुः । स्मृतमात्रो भवानत्र
सर्वथा शान्तिकारकः ॥ ३०॥
अज्ञानतिमिरध्वंस-भानुमन् करुणार्णव । आह्लादने शरच्चन्द्र!
साऽन्द्रशान्तिकरो भव ॥ ३१ ॥ (२६) "हे शांतिने ! લેકને વિશે કપૂર શીતલ છે. તેનાથી પણ
અધિક શીતળતા ચંદનમાં છે. તેનાથી પણ અધિક શીતળતા ચંદ્રમાં છે. અને
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ચંદ્રથી પણ અધિક શીતળતા, હે પ્રભુ! આપનામાં છે.”
(૨૭) “હે પ્રભુ! આપ લેકને વિશે ઉત્તમ છે. આપ લેકના નાથ છે.
આપ લેકને વિશે પ્રકાશન કરનાર છે. આપ જ્ઞાન ચક્ષુના દેનાર છે. આપ પથદર્શક છે. આપ ઘર્મ દેનારા છે. શુદ્ધ બાધબીજ સમક્તિના આપનાર છે. ” " (૨૮) “હે પ્રભુ ! આપ અવધિ જ્ઞાનવાળા છે. કમળને વિકસિત કરનાર સૂર્ય સમાન આપ, ભવ્ય જીના આત્માને બોધદ્વારા. વિકસિત કરનાર ભારકર–સૂર્ય સમાન છે. સર્વ મનુષ્યને આનંદકારક છે. આપ
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ર૬૦
શુદ્ધ ધર્મના પ્રકાશ રેલાવનારા છે. ૩ (૨૯) “ ચારે તરફ જ્યારે અધકારનુ સામ્રાજ્ય વ્યાપ્યુ હૈાય ત્યારે આકાશ પોતાના અધકારને મટાડવા માટે ચંદ્રને આશ્રય લે છે, તેવી રીતે જ્યારે અમારા ઉપર દુઃખના ધર અંધકાર છાઈ રહ્યો છે, તેવે સમયે હે પ્રભુ! અમે નિશ્ચિત મને હે આપને આશ્રય લઈએ છીએ. ”
(૩૦) “ હે પ્રભુ ! આપનું રમણ માત્ર, સર્વ પ્રકારની સિદ્ધિનુ' દાતા છે, સ પ્રકારની સિદ્ધિ ઔષધિ સમાન છે. તેમજ સર્વથા શાંતિ ઉપજાવનાર છે. ''
(૩૧) “ હૈ શાંતિ જીનેશ્વર ! અજ્ઞા
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નના અંધકારને તેડનાર આપ સૂર્ય સમાન છે. શરદપૂર્ણિમાના ચંદ્રની માફક આપ મનને પ્રફુલિત કરનાર છે. હે કરુણાના સાગર ! આપ મહેર કરે અને સર્વ वाने शाता Gral."
देवेन्द्रने जो स्तुतिकी वह इस प्रकार है
लोकमें कपूर शीतल है, उससे भी शीतल चन्दन है, चन्दनकी अपेक्षा अधिक शीतल चन्द्र हैं, और चन्द्रसे मी शीतल आप हैं । हे भगवन् ! आप लोकोत्तम (लोकमें सर्वश्रेष्ठ) हैं, लोकनाथ है, लोकको प्रकाशित करनेवाले हैं, ज्ञानचक्षु देनेवाले हैं मार्ग देनेवाले हैं, धर्म देनेवाले हैं, और शुद्ध बोधि देनेवाले
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हैं । हे भगवन् ! आप अवधिज्ञानसे युक्त हैं, भब्यरूपी कमलोंको विकसित करनेमें आप भास्कर हैं, सभी मनुष्योंको आनन्द देनेवाले हैं, सर्वविशुद्ध धर्मके प्रकाशक हैं. हे प्रभो! जसे स्वगत अन्धकारको दूर करनेके लिये आकाश चन्द्रमाका आश्रयण करता है उसी प्रकार दुःखरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिये हम आपका आश्रयण करते हैं । हे भगवन् ! आप सभी सिद्धियों के दाता है, आप समस्त सिद्धौषधिके समान है, आप तीनों लोकके प्रभु हैं, हे भगवन् ! आप स्मरणमात्रसे इस संसारमें लोगों के लिये सभी प्रकारसे शान्तिकारक हैं । हे भगवन् ! आप अज्ञानरूपी
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अन्धकारके नाश करनेमें सूर्यरूप है, आप करुणाके समुद्र है, आप प्रजाओंको आह्लादित करने में शरच्चन्द्ररूप है, ऐसे आप हे भगवन् ! लोकमें पूर्ण शान्तिकारक होवे ॥ २६ २७-२८-२९-३०-३१॥ एवं स्तुत्वा जिनं शक्रस्तन्मातरमवोचत । स्मरणात्मकमिदं स्तोत्रं
ब्रूहि मातः स्वयं शुभम् ॥ ३२॥ (३२) २॥ प्रमाणे छ साथी शांतिજીનેશ્વરની સ્તુતિ કરીને ઈન્દ્ર મહારાજ ભગવાનના માતા સમક્ષ આવ્યા. આ રસ્તોત્રનું મરણ કરીને કહ્યું કે, “હે માતા, આ શુભ સ્તોત્ર આપના સ્વમુખે બોલે,
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જેથી સારાયે લેકમાં શાંતિ જ શાંતિ પ્રર્વતે. ___ इस षटश्लोकी प्रकार जिनेन्द्र भगवान्की स्तुति करके देवेन्द्रने जिनेन्द्रकी माता अचिरादेवी से कहां-हे माता! इस स्मरणरूप स्तोत्रको आप स्वयं पढे ॥ ३२॥
इन्द्रस्य वचनाद्देवी प्रासादमभिरुह्य सा स्तोत्रं पठति भावेन
॥ ३३ ॥ सकृत्पठनमात्रेण, शान्तिर्जाता च सर्वथा सर्वत्र सर्वलोकेषु,
ऋद्धिः सिद्धिच संपदः ॥३४॥ (૩૩) આ પ્રમાણે ઇન્દ્ર મહારાજનાં વચને સાંભળતાં, ભગવાનનાં માતા રાણી
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અચલા દેવી મહેલ પર ચઢયા અને પ્રજાજનનાં દુઃખ પરિતાપ દૂર કરવા શુદ્ધ ભાવથી આ સ્તંત્રની આરાધના કરવા માંડયાં.
(૩૪) જયાં રાજમાતાએ આ ઑાત્ર ભણવા માંડયું કે મહામારી-મરકી, આગ, શિલાવૃષ્ટિ, ભૂકંપ, સર્પવૃષ્ટિ, વૃશ્ચિકવૃષ્ટિ, નદીઓના પ્રલયનાં તાંડવ જગાવતાં પૂર, આધિનાં તેફાન, ઝેરી વાયુ, વજપાત, વિજપાત, વીજળીના ભયંકર કાટકા, આ સર્વ ઉપદ્રવે એક પછી એક પલાયમાન થઈ ગયા. સર્વત્રણે લેકમાં શાંતિનું સામ્રાજ્ય સ્થપાયું અને રિદ્ધિસિદ્ધિ અને સંપત્તિને પ્રાદુર્ભાવ થયે.
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इन्द्रका वचन सुनकर अचिरा देवीने, राजभबनके ऊपर चढकर चारों तरफ देखकर, भावपूर्वक इस स्तोत्रको पढा । इस स्तोत्रके मात्र एकवार पढनेसे आधि, व्याधि, उपाधि मिट कर सर्वत्र पूर्ण शान्ति हो गयी, सभी लोग ऋद्धि, सिद्धि और सम्पत्ति से युक्त हो गये ॥ ३३,३४ ॥
यदापुनर्जिनेन्द्रस्य जन्मकालः समागतः । तदा समस्तलोके च
स्वयं शान्तिरुपागता ॥३५॥ (3५) ते पछी शथी ल्यारे प्रभु શાંતિનાથ જન્મકાળ આવે, ત્યારે સમસ્ત લેકમાં ચારે તરફે શાંતિ જ શાંતિ
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૨૭૨ છવાઈ રહી. જાણે કે પ્રભુ પોતે જ શાંતિના રૂપમાં પધાર્યા છે. ____फिर जब भगवान् जिनेन्द्रका जन्मकाल आया, उस समय सकल जगतमे स्वयमेव શાન્તિ છ થી આ રૂપ છે. प्रसन्नाश्च जनाः सर्वे
मङ्गलं च गृहे गृहे । એ નાતે શાન્તિરે શાન્તિ–
- નામ પોકરો નિને તે રૂદ II (૩૬) ભગવાનને જન્મ થતાં જ માનવ માત્રમાં પ્રસન્નતા વ્યાપી ગઈ. ઘેર ઘેર મંગળ વરતાઈ રહ્યું. જન્મ થતાંજ ચારેકોર શાંતિનું સામ્રાજ્ય સ્થપાયું. તેથી કરીને
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૨૦૨
જીનવરનું નામ શાંતિનાથ
એ સાળમા રાખવામાં આવ્યું.
शान्तिनामक सोल
पर तो सभी मनुष्य
मङ्गल छा गया
शान्ति करनेवाले
वे जिनेन्द्र के जन्म लेने
प्रसन्न हो गये, घर घरमें
॥ ૩૬ ॥
शान्तिस्मरण पाठेन सर्वत्र शुभ भावतः ।
ઋદ્ધિ: સિદ્ધિ: સુવું સપ-
નાયતેસર્વમાન્ ।। શ્છ ||
(૩૭) જે કાઈ ભવીજન શુભ ભાવથી આ શાંતિદાયક શાંતિ સ્મરણ તેાત્રનુ પાનઅધ્યન કરશે તેને રિદ્ધિ, સિદ્ધિ, સુખ સંપત્તિ તેમજ સર્વ માંગલ્યની પ્રાપ્તિ થશે.
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શ્રી શાંતિમરણ સમાપ્ત શ્રી અભુત નવરમરણ સંપૂર્ણ
शुभ भावनासे इस शान्तिस्मरणका करनेसे मनुष्यको सर्वत्र ऋद्धि, सिद्धि, संपत्ति और सभी प्रकारके मङ्गल प्राप्त हैं ॥ ३७॥
॥ इति शान्तिस्मरणसंपूर्ण ॥९॥ ॥ इति श्री अद्भुत नवस्मरणसंपूर्ण ॥
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શ્રી
પદ્મ પ્રભુના નિત્ય, ગુણ ગાયા કરેા, આપના તન મન, જીનને નમાયા કરશ... પદ્મ॰ ટેક. સ'ને સંસારમાં, એક ધના આધાર છે, થાય ખેડાપાર જીનના, જાપથી નિર્ધાર છે, એવું જાણીને દિલમાં, વસાયા કરશ...પદ્મ૦ ટેક પદ્મની સુવાસના, ચારા તફર છાઈ રહી, ગુણુ પારાવાર છે, જનતા સહુ ગાઈ રહી, નિજાનંદ જીન દ, વધાયા કરી...પદ્મ૦ ૨ માત સુષમા તાત, શ્રીધર કમલ ચિહ્ન વિશાલ છે શૈવેગથી આવ્યા વ્યવી, પ્રભુવણ સુંદરલાલ છે, ભાવી ભબ્યાનાં ભાગ્ય, સવાયા કરશ...પદ્મ૦ ૩ લાખ પુર્વ ત્રીસ આયુ સા દ્વિશત કાય છે. આગિધર જ્ઞાતિ સુત્રત કૌશખીધામ સુહાય છે. દયા કરી જીવાને બચાયા કરી...પદ્મ૦ ૪ જ્ઞાનચક્ષુ આપનારા, પૂજ્ય ઘાસીલાલ છે, શાંત જૈનાચાર્યના સુનમ્ર નાના બાળ છે, કરુણાસિંધુના હૈયે, રમાયા કરે....પદ્મ૦ ૫
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ધન્ય વીરમગામ, હર્ષોંનદના ભડાર છે, સહસ્ર દે! છ સાલ, માંહિ ધના જયકાર છે, મુનિ કહે કનૈયા, જીન જ્યાયા કરે...પદ્મ
—પ્રભાતિ સ્તવન—
ઉઠે: ઉઠે। મન જાગો જાગો, અવસર આછા આયા રે, જગમગ જોત જગી અપને ઘર, કંસા આનંદ છાયા રે, કાયા મેરુ જિન નંદનવન, ગુણ સુરતરુ કી છાયા રે, સિદ્ધ સુખાંકી અનન્ત લહર, જહાં માક્ષપુરી સિધાયા રે, આત્મસ્વરૂપી માન સરાવર, ગુણ કમલ વિકસાયા રે, ચેતન હંસા કરે કિલાલા, રામ રામ તુલસાયા રે, મીઠેપનમે' મિસરી મીઠી, તિ સુ' અમૃત સુહાયા રે, મિસરી, અમૃત દેને સે ભી, નામ જિણન્દ સવાયા રે, શુભ ઘડી શુભ વેલા શુભ પલ,જીન શુભ ધ્યાન લગાયા રે, શુભ ભાવના શુભ શ્રેણી ચઢ, શુભ કેવલ પદ પાયા રે, લાખ આનંદ મેરે નરભવ ઉત્તમ,ક્રેડ આનંદ જીનરાય, અન તઆન મેરેજીનસ્વરૂપલખ, તનમનમુજ હર્ષોંયારે,
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ર૭૭
લાખમંગલમેરેજિનલક્ષકરકે, ક્રોડ મંગલ જિન ધાયા રે, અનંતમંગલમેરે રોમરોમમેં,જિનગુણસુખ પ્રગટાયારે ૬ અક્ષય સ્વરૂપી મેરી આત્મા, અક્ષય ભવનમેં ગાયા રે.૭
–વિનહર પાશ્વપ્રભુની સ્તુતિ(પદ્મ પ્રભુના નિત્ય ગુણ ગાયા કરે) એ રાગ. પાર્શ્વ પ્રભુનું ધ્યાન લગાયા કરે. પ્રભુભક્તિમાં ચિત્ત જમાયા કરે. [૨] ટેક. પાર્શ્વના પ્રસંગથી, જિમ લેહ કંચન થાય છે, પરમ પદના ધ્યાનથી, નિજ આત્મજ્યોત જગાય છે,
અહિ ચિહ્ન જિનેશ્વર વ્યાયા કરે નાગ બળતે દેખીને, શરણે દિ નવકારનો, પદ પામિયા ધરણેન્દ્રને, તે દેવના અવતારને,
અજદિનંદ ગણી ગુણ ગાયા કરે.. ૨ પાર્શ્વ જિનના જાપથી, સૌ પાપપૂજ વિલાય છે, કલ્પતરુ સમ ઈષ્ટ વસ્તુ, સહેજમાં પ્રગટાય છે,
એવા જિનવર હૈયે વસાયા કરે... ૩
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દેશ કાશી વર્ષ શત ૧૦૦ બાણારસી સુહાય છે, અશ્વસેન નૃપ માત વામા નલિાણું કાય છે
દશમા સ્વર્ગથી આવી નિહાલ કરે...૪ પૂજ્ય ઘાસીલાલ ગુરુન, છત્ર શિર ત્રિકાળ છે, નામ જપતાં હરઘડીયે, વરતે મંગળમાળ છે,
જ્ઞાની ગુરુને શીશ, નમાયા કરે...૫ સહસ્ત્ર દો છ સાલની, દિવાળી મંગળવાર છે, સંઘ ધોરાજી કર્યો, જિન ધર્મને જયકાર છે, કહે કાન, (કવૈયા) અમી રસ પાયા કરે
વાસુપૂજ્ય—પ્રભુની સ્તુતિ (તર્જ–પદ્મ પ્રભુના નિત્ય ગુણ ગાયા કરે)
વાસુપૂજ્ય હૃદય નિત્ય વાસ કરો
રટી નામ જીણુંદ ભવપાર તરે. અજબ રસમય નામ તારું, લેત મન હર્ષાય છે. અમર પદ પામે ખરું આનન્દ રંગ વષય છે.
પ્રભે જન્મ મરણના દુઃખ હરે...૧
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ધ્યાન ધરવા માતથી, નિજ આત્મનિર્મળ થાય છે, સૂર્યનાં કિરણો પડ, અંધકાર નાસી જાય છે.
મહિષ ચિહ્ન જિનદ મન ધ્યાન ધરે..૨ તાત છે વસુરાય તવ, માતા જયાને લાલ છે ચંપાપુરી નગરી નેહર, સપ્તદશી ધનુબાલ છે,
નિજ જાણી સેવક બેડો પાર કરે છે પામી કેવલ જ્ઞાન દર્શન, આપ જિન જિનવર બન્યા ભવ્યને ઉપદેશ આપી, સર્વેના તારક બન્યા,
તરણતારણ બિરદને આપ ધરે...૪ બાલપણમાં માર્ગ આપી, જ્ઞાનદાતા આપે છે, પંચદશ ભાષા ભણ્યા, ગુણખાણું રત્ન અમાપ છે,
ઘાસીલાલ ગુરુને વધાયા કરે...૫ જેતપુર શ્રી સંઘને, જિનરાજનો આધાર છે, શ્રી જિન નામ સાથે જપતાં જય જયકાર છે.
મુનિ કહે કવૈયા, જિન થાયા કરે...
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શાંતિ પ્રભુની પ્રાર્થના શાંતિ જીણુંદ જપતે જાપ, લીલા લહેર કરાવે, મુજ ઘર મંગલાચાર, મારું મન હર્ષાવે . ટેક ઉઠી પ્રભાતે નવરદેવ, જપતે જે મન ભાવે, જપત હિ આનંદ હોય, જ્યાં અમૃત રસ પાવે માન સરોવર જીનવરનામ, જનગુણ કમળ ફુલાવે, અક્ષય સુખકી મહેંક, મુજ મન મેદ નમાવે શાંતિ નામ મુજ આંગણેમેં આનંદ છાવે, પગ પગ પ્રગટે નિધાન, મેરી ચિંતા જાવે, શાંતિ જીણું ધર ધ્યાન, શિવપુર નગર સીધાવે, અખંડ સુખકી લહેર, તિરૂ૫ સેહાવે...શાંતિ. દેશ દેશકે ભૂપ અગતે, પાખી પુલાવે. દામનગર ઘાસીલાલ, દિવાળી દિન ગાવે... શાંતિ.
૧. મહેક-સુગંધ, ૨. મોદ-આનંદ.
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૨૮૨
પ્રભાતિ સ્તવન સભી છોડ મન જીનવર ભજ લે,
પ્રાતઃ સમય સુખકારી. ટેક કામ તુઝે હૈ પ્રભુ ધ્યાન કા,
ઔર કામ દે ટારી. ધીરજ ધર, મત ડર વિષયેસે,
ખડા રહે પ્રભુ ધારી. તે ૨ કુદરૂપ તું વિકસિત જા,
જિનેન્દ્ર ચંદ્ર હૈ ભારી, આત્મ સ્વરૂપ સુગંધી પ્રગટે,
મહિમા અપરંપારી. | ૨ | ધી ભુજંગ ચંડકેશિક ભી, / અતિ વિષમ વિષધારી, પ્રભુ સંગાવસે સુરપદ કાયા,
હવા એકા ભવતારી ૩
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૨૮૨ મિષ્ટિ પુષ્પકી સંગતિ પાકર,
હાય સુગંધી ધારી, યદ્યપિ દોષી તું હે ધ્યાનબલ,
હેજા વિગત વિકારી. ૪ છવ સમુદ્ર બુદ્ધિ સીપ સમ,
ભાવ સ્વાતિ હિતકારી. ધ્યાનવૃષ્ટિ નિજ ગુણ મુક્તાફળ,
નિપજે અનંત અપારી છે એ ભ્રમર ધ્યાનસે કીટ કીટપન
કરતા દૂર નિવારી. વસે ધ્યાનસે પ્રભુપદ પાકર,
પહુંચે મેક્ષ મઝારી. | ૬ | પૂજ્ય હમારે શ્રી લાલજી
ગુણિગણું રત્ન ભંડારી. ઘાસીલાલ અબ, શરણે આવ્યા,
ભજવલ સે દે તારી. છે ૭ મા
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ગુજરાતી સાહિત્યનાં ઐતિહાસિક પ્રકાશના વીરની વાતા ૧થી૫ તા. પા. અડાલજા ૧૦૫-૦૦ વીરાંગનાની વાતા ૧-૨
૨૪-૨૫
ખાંડાના ખેલ
૧૧-૫૦
નરબંકા
૧૦-૦૭
}-૦૦
૧૧-૦૦
૨૦-૦૦
૯-૧૦
૧૫-૦૦
૨૨-૦૦
૧૪-૨૫
૧૪-૦૦
૧૪-૦૦
૧૪-૦૦
વીર જગદેવ કાઠિયાવાડની દંતકથાઓ
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ભગવાન પત ંજલિ પુષ્યમિત્ર કી
અવંતીપતિ વિક્રમ
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દંભી દુનિયા પ્રેમપ્રભાવ સૌરાષ્ટ્રની પ્રેમકથાઓ યુગપુરુષ પત ંજલિ જેઠાલાલ ત્રિવેદી
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ગ્રીક રાજકન્યા
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99
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મહારાજ ચલિત નૌતમકાન સા. વિ. ૧૩-૦ સેનાપતિ ભટ્ટાર્ક ૧-૨ ,, ૨૪-૫ સમ્રાટ શાલિવાહન
by
i૫–૫૦ રા’ ગજરાજ ધનશંકર ત્રિપાઠી ૧૦૦૦ જય ચિતોડ હરિલાલ ઉપાધ્યાય ૧૫-૦૦ ચિતેડની રણગજના , ૧૫-૦૦ મેવાડનો કેસરી
૧૬-૫૦ મેવાડના મહારથી
૧૬-૦૦ શેર્યપ્રતાપી મહારાણા પ્રતાપ
૧૨-૦૦ દેશગૌરવ ભામાશાહ
૧૪-૨૫ મેવાડની તેજછાયા
૨૦-૦૦
શ્રી લક્ષ્મી પુસ્તક ભંડાર, ગાંધીમાર્ગ, અમદાવાદ.
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________________ શ્રી ગુજરાતી સાહિત્યનાં ઉત્તમ પ્રકાશન જીવનના ઝં કાર શ્રી પુકર મુનિજી 9-00 પુષ્કર પ્રસાદી કથા' Iળા શ્રેણી 1-5, 75-00 થળ જીવન ' ઉ૫૦. ભગવાન મહાવ કાર શ્રી પુJર જ0, ..40-00 ' અનુસાદી કથા' [ળા શ્રેણી 1-5,, , -0 0 ચિ તનના મહાવી કાર 20 થી, ૩ર ગુજ, કે - " બુદ્ધિના ..* * બાલતાં ચિરા વિચાર રે ખાં શ્રી મતિ જળ,,,૪૦-૦૦' આદર્શ ગૃહરયા શ્રમ મુનિ શ્રી સ તબાલજી 10-50 જીવનમાં સ્વર્ગ અને નર કે મુનિ નેમીચંદ્ર 40-00 જગદંબાના પત્રે 1-2 , 2-00 બીન માંગે મોતી મીલે શ્રીમન્નારાયણજી 5-50 ભગવાન મહાવીર ધીરજલાલ ગજજર 3-0 7 વધુ માટે વિસ્તૃત સૂચીપત્ર મગાવે,. | શ્રી લક્ષ્મી પુસ્તક ભડાર, ગ ધીમાગ', અમદાવાદ,