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१८३ આનંદમંગળ વરતાઈ રહે છે તેવા પ્રભુને મારા નસરકાર હશે. __ जिन भगवान्की अतिशय महिमा से वसन्त आदि सभी ऋतुएँ एक साथ प्रकटित होती हैं और जिनसे सभी लोगोंको आनन्द होता है, ऐसे भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ ॥८॥ संवर्तकेन वातेन,
तत्र योजनमण्डलम् । संशोध्यते च परितः,
प्रासु पुष्पाम्बुवर्षणम् ॥९॥ रूप्यसालो दीप्यमानः
स्वर्णकगुर-शोभितः । स्वर्णसालोऽपि रुचिरो,
रत्नकार-शोभितः ॥ १० ॥