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हे षडूजीवनिकायोंके नाथ ! हे मुनीश्वर ! हे केवलज्ञान केवलदर्शन आदि अनन्त गुणोंके धारक ! हे देवाधिदेव ! हे भव्योंके हित विधायक ! हे जीवमात्रके कल्याणकारक जिनेन्द्र भगवान् ! आप बहुत दूर सिद्धिस्थान में विराज रहे हैं, तो भी आप कृपा करके ज्ञान रसके प्रवाह से हमारे हृदयकमलोंको प्रफुल्लित करें । यह हमारी प्रार्थना अनुचित नहीं है, क्यों कि दूर में रहा हुआ चन्द्रमा भी तो कुमुदोंको विकसित करता है ॥३१॥ वृक्षापि शाकरहिता भवदाश्रयेण,
जातस्ततः स यदशोक इति प्रसिद्धः । भव्याः पुनर्जिन ! भवच्चरणाश्रयेण, किंनाम कर्मरहिता न भवन्त्यशोकाः ?