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हे प्रभु ! आप ज्ञानादि अनन्त गुणों के समुद्र हैं, संसारके अशरण जीवोंके शरणरूप हैं ! दयाके सिन्धु हैं , जगत्के निष्कारण बन्धु हैं, ऐसे आपको छोडकर दूसरे की चाहना कौन करे ? क्योंकि कौन ऐसा मूर्ख होगा कि जो त्रिभुवनका राज्य मिलने पर भी उसको छोड़कर दासताकी इच्छा करे ? अर्थात् कोई भी इच्छ। नहीं कर सकता है ॥१३॥
त्वद्-गात्रता-परिणताः परमाणवोऽपि,
सर्वोत्तमा निरुपमाः सुषमा भवन्ति । लब्ध्वा शरण्य ! शरणं चरणं जनास्ते,
सिद्धा भवेयुरिति नाथ ! किमत्र चित्रम्॥१४॥