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और कहते हैं कि-हे जिनेन्द्र ! आपका भामण्डल द्रव्य अन्धकारका विनाशक तो है ही परन्तु साथमें मोहरूपी भाव अन्धकारका भी विनाशक है, और सूर्य तो मात्र द्रव्यरूप अन्धकारका ही विनाशक है, अत एव आपके भामण्डल की तुल्यता सूर्य कभी नहीं कर सकता ? ||३९॥ यत्कर्म-वृन्द-सुभटं विकटं विजेता,
लोकत्रय-प्रभु-रसा–वतिशेष-धारी । तस्मा-जिनेन्द्र-सरणिं शरणीकुरुध्वं,
भव्या! इति ध्वनति खे किल दुन्दुभिस्ते॥
(४०) हे नाथ ! २04ना प्रभाथी આકાશમાં દુંદુભિનાદ થાય છે અને તે