Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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परम श्रद्धेय उत्तर भारतीय प्रवर्तक पूज्य भण्डारी पद्मचन्द्र जी म. सा० जन विद्या के अध्ययन अध्यापन एवं प्रचार प्रसार में विशेष अभिरूचि रखते है। आपने वस्तुतः इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। आपके ही अनुगामी सुशिष्य श्रद्धास्पद उपप्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म० सा० जैन धर्म की महती प्रभावना कर रहे हैं । इसी शृंखला में आपने ही एक विद्वान् सन्त डॉ० सुव्रतमुनि जी म० सा० तैयार किए है। निश्चित ही जैन समाज के समक्ष आपका यह विद्वत्तापूर्ण सफल प्रयास है। ___ मुनि श्रीसुव्रत जी म स्वभाव से मधुर, विचारों से उद्यमशील, कुशलवक्ता एवं उदीयमान लेखक हैं । आपकी कई सुन्दर रचनाएं पूर्व में प्रकाशित हो चुकी हैं । आपके प्रस्तुत शोध प्रबन्ध से युवापीढ़ी अवश्य ही अध्ययन की प्रेरणा लेकर योग ध्यान साधना में प्रवृत्त होगी। इसी मंगल मैत्री के साथ.....
शिवमुनि
जैन स्थानक गंगावती दिनांक २८-२-१९६१
सन्दर्भ
१. योगविन्दु, गाथा ३७ २. संसारोत्तरणे युवितोगशब्देन कथ्यते । योग वासिष्ठ, ६-१/३३/३ ३. योग: सर्वविपदल्लीविताने परशुः शितः । आचार्य हेमचन्द्र, योगशास्त्र,
४. विद्याद् दुःख संयोग-वियोगं योगसंज्ञितम् । गीता, ६/२३ ५. संसारस्योस्य दुःखस्य, सर्वोपद्र वदायिनः ।
उपाय एक एवास्ति, मनसः स्वस्य निग्रहः ॥ योगवासिष्ठ ४/३५/२ ६. तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिस्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ! ॥ गीता, ६/४६ ७. विवेक मार्तण्ड ८. अथ त्रिविधदुःखस्यात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः। महर्षिकपिल, सांख्य
सूत्र ६. स्थविरे धर्म मोक्षं च । कामसूत्र, अ० २ पृ० ११ १०. मैत्रायणी आरण्यक, ६/३४-३
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