Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
श्रत का विशिष्ट ज्ञानलाभ प्राप्त कर लेता है तो पूनः उसकी जीवन शुद्धि हेतु नये शिरे से दीक्षा दी जाती है। यही छेदोपस्थापनाचारित्र कहलाता है। (३) सूक्ष्मसंपरायचारित्र
सम्पराय कषाय को कहते हैं जिसमें यत्किंचित् कषाय का भाव विद्यमान रह जाता है । वही सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहलाता है।
(४) परिहारविशुद्धिचारित्र
कर्मभव को दूर करने के लिए जो विशिष्ट तप का अवलम्बन लेना पड़ता है। उससे होने वाली आत्मविशुद्धि को ही परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं।
(५) यथाख्यातचारित्र
आत्मा में स्थित लोभादि कषायों का जब निश्शेषत: अभाव हो जाता है तब यथाख्यातचारित्र प्राप्त होता है। जिसको इस चारित्र की प्राप्ति होती है वह सिद्धावस्था के निकट अरिहंत केवली होता है।
बन्ध और उसके कारण
कषाय के सम्बन्ध से जीवात्मा से जो कर्म योग्य पुद्गलों का ग्रहण किया जाता है, वही बन्ध कहलाता है । स्वभावतः जीव अमूर्त है फिर भी वह अनादिकाल से कर्म सम्बन्ध वाला होने से मर्तवत हो जाता है। वह पुद्गल की अनन्त वर्गणाओं में से कर्म योग्य वर्गणाओं को वैसे ही ग्रहण करता और विकृत हो जाता है, जैसे दीपक बत्ती द्वारा तेल को ग्रहण करके उसे अपनी उष्णता से ज्वाला में परिणत कर देता है। आत्म प्रदेशों के साथ कर्मरूप परिणाम को प्राप्त पूदगलों का यह सम्बन्ध ही बन्ध कहलाता है। कर्मग्रंथ के कर्ता के अनुसार नवीन कर्मों के ग्रहण को बन्ध कहते हैं।
१. सकपायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्त , स बन्धः ।
तत्त्वार्थसूत्र, ८.२-३ २. अभिनवकम्मम्गहणं बंधो । कर्मग्रन्थ, भाग-२, गा० ३
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