Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु एवं तत्त्व विश्लेषण दर्शनमोह और चारित्रमोह से विरहित आत्म परिणति को चारित्र बतलाया है। इसी को धर्म भी कहा गया है। इस तरह सम्यग्दर्शन और उसके अविनाभावी सम्यग्ज्ञान के साथ समस्त इष्टानिष्ट पदार्थों में रागद्वेष न करना ही सम्पक चारित्र है ।।
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होने के बाद चारित्र सम्यक्चारित्र हो जाता है, क्योंकि दृष्टि में परिवर्तन होकर दृष्टि परिशुद्ध और यथार्थ बन जाती है । अज्ञान पूर्वक चारित्र का ग्रहण सम्यक् नहीं होता, इसलिए चारित्र का आराधन सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही सम्यक् कहा गया है।
जैन आगमों में चारित्र के पांच भेद किए गए हैं, वे हैं-(१) सामायिक (२) छेदोपस्थापना, (३) परिहार विशुद्धि, (४) सूक्ष्मसम्पराय
और (५) यथाख्यातचारित्र । (१) सामायिकचारित्र
जब राग द्वेष परिणाम शान्त हो जाता है, चित्त में समता आ जाती है तब इस चारित्र की प्राप्ति होती है। इस चारित्र की प्राप्ति के बाद मन में किसी प्रकार का ईर्ष्याभाव अथवा मोह आदि नहीं रहता। यह मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है-जीवन पर्यन्त के लिए और कुछ समय के लिए। कुछ समय अर्थात् अन्तमुहूर्त या इससे अधिक मुहूर्तों के लिए गृहस्थ स्वीकार करता है और जीवनपर्यन्त का सामायिक चारित्र साध ग्रहण करता है। (२) छेदोपस्थापनाचारित्र
छेदोपस्थापना में दो पद हैं-छेद और उपस्थापना । छेद, उच्छेद अर्थ में है और उपस्थापना का अर्थ है-पुन: उसे स्थिर या धारण करना । जैसे पहले किसी ने दीक्षा ली हुई हो और उसके बाद जब वह १. चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिद्दिट्ठो।।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥ प्रवचनसार, गा० ७ २. नहि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । __ज्ञानान्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् । पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ३८ ३. सामाइयत्यपढमं छेओवट्ठावणं भव वीयं ।
परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च ॥ उत्तरा० २८.३२-३३
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