Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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उपसंहार वेदों में योग शब्द का बहुल प्रयोग हुआ है, जिससे भारतीय ऋषियों की योगप्रक्रिया के विषय में ज्ञात होता है कि वे योग में पूर्णतया निमग्न हो जाते थे और इसी के बल पर उन्होंने मुक्ति लाभ किया था परन्तु वहां पर यह नहीं मिलता कि योग क्या है ? योग प्रक्रिया कैसी है ? उपनिषदों में योग की चर्चा वेदों की अपेक्षा कुछ अधिक स्पष्टरूप में उपलब्ध होती है किन्तु बाद के स्मति; बौद्ध एवं जैन आगमों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वहां पर योगक्रिया को अध्यात्म साधना का प्रमख अंग माना गया है। यहां इसके भेद प्रमेदों की व्याख्या कर योग को मोक्ष प्राप्ति का प्रधान कारण बतलाते हुए योग का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है । जैसे-जैसे भारतीय प्रबुद्ध चिन्तकों का ध्यान आध्यात्मिकता में बढ़ता गया वैसे-वैसे ही योग साधना में उनकी रूचि भी अधिक बढ़ती गई और अन्ततः उन्होंने योग को मुक्तिलाभ का अनन्य साधन उद्घोषित कर दिया। तदुपरान्त परवर्ती अध्यात्म-निष्ठ आचायों ने इस विषय पर स्वतन्त्र रूप से पर्याप्त मात्रा में साहित्य सृजन किया है जिनमें जैन आचायों का विशेष महत्व है। उनमें भी आचार्य हरिभद्रसूरि एक विशिष्ट स्थान रखते हैं।
हरिभद्रसूरि ने जहां कथा, काव्य, ज्योतिष और दर्शन पर अनेक महत्व पूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं, वहां उन्होंने योग पर भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चार ग्रन्थों की रचना की। वास्तव में ज्यों-ज्यों योग का विकास होता गया त्यों-त्यों उस पर नये-नये दृष्टि कोणों से चिन्तन एवं मनन होता रहा और उस चिन्तन को आचार्यगण अपने-अपने अनुरूप लिपिबद्ध करते गये।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने पूर्व परम्परा से चली आ रही वर्णन शैली को परिस्थिति एवं लोक रूचि के अनुरूप नया मोड देकर परिमार्जन के साथ योग साहित्य मे अभिनव युग का सूत्रपात किया। उनके बनाए हए योग विषयक ग्रन्थों में उनकी गहन अन भति की अभिव्यक्ति झलकती है। उनके योग परक चार ग्रन्थ-योगविज्ञका, योगशतक, योगदृष्टि समुच्चय और योगबिन्दु, इसके ज्वलन्त प्रमाण है । इनमें भी 'योगबिन्दु'
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