Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 331
________________ 274 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन परमानन्द का अनुभव करती है। यह अवस्था ज्ञान मात्र प्रकाश पुज स्वरूप ही होती हैं, उसका हमारे जैसा कोई शरीर नहीं होता। इस तरह अनन्त आत्मा उस लोकाकाश के प्रदेशों में विराजमान होने पर भो परस्पर अव्याघात रहने से एक दूसरे से मिलकर अभिन्न नहीं हो जाते । प्रत्येक आत्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कायम रहता है। ऐसी आत्मा संसार परिभ्रमण नहीं करती क्योंकि वीतराग, वोतमोह और वोतद्वेष होती है। एक दीपक के प्रकाश में जैसे अनेक दोपकों का प्रकाश समा जाता है। उसो तरह एक सिद्धक्षेत्र में अनन्तसिद्धों को अवकाश देने की जगह होतो है। सिद्धों में अगुरूलघु का गुण होता है जिसके कारण वह लोहे के समान गुरुता के कारण आत्मा नोचे आने को विवश नहीं होतो ओर न ही वह रुई के समान हल्का होने से वायु का अनुगमन ही करती है।' - यह सिद्धावस्था शरीर, इन्द्रिय और मन के विकल्प एवं कर्म से रहित होकर अनन्तवीर्य को प्राप्त होती है और नित्य आनन्द स्वरूप में लोन रहती है। इस तरह यह कर्म मुक्त आत्मा निराबाध संक्लेश रहित एवं सर्वशुद्ध अवस्थित रहती है। १. मुक्त्युपायेषु नोचेष्टामल नायव यततः । मुक्त्यद्वषप्राधान्य द्वात्रिंशिका श्लोक १, जैनयोग का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ० २३० पर उद्धृत २. वृहद्रव्यसंग्रह, श्लोक १४, जैनयोग का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ० २३० पर उद्धृत ३. निष्कलः करणातीतो निर्विकल्पो निरंजनः । अनन्तवीर्यतापन्नो नित्यानन्दामिनन्दितः ॥ ज्ञानार्णव, ४२.७३ ४. एकान्तक्षीगसंकलेशी निष्ठितार्थस्ततश्च सः । निराबाध : सदानन्दो मुक्तावात्माऽवतिष्ठते ॥ योगबिन्दु, पृ० ४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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