Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 328
________________ योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण 271 प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से बन्ध चार प्रकार होता है। जोव द्वारा जो कर्मरूप में ग्रहण किए जाते हैं, उसी समय उन में चार अंशों का निर्माण होता है । वे अंश ही बन्ध के भेद बनते हैं। वन्ध के कारण प्रायः सभी जैन दार्शनिक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग' ये बन्ध के पांच सामान्य हेतु मानते हैं। कुछ दार्शनिक कषाय और योग इन दो को ही बन्ध के कारण मानते हैं, क्योंकि उनके मत में मिथ्यात्व, अविरति ओर प्रमाद का कषाय में ही अन्तर्भाव हो जाता है। अधिकतर आचार्य ऊपर वणित पांच कारण ही मानते हैं। मिथ्यात्वं - मिथ्यात्व का अर्थ है मिथ्यादर्शन, जो सम्यग्दर्शन से विपरीत होता है। अयथार्थ में यथार्थ श्रद्धान ही मिथ्यात्व है। जैसे रस्सी को सर्प मान लेना। अविरति पापों से विरत न होना अविरति है। प्रमाद प्रमाद का अर्थ है---आत्मविस्मरण अर्थात् कुशल कार्यों में अनादर, कर्तव्य-अकर्तव्य की स्मृति में असावधानी । कषाय जो आत्मगुणों को कषे अर्थात् नष्ट करे अथवा जन्ममरणरूपी संसार को बढ़ावे वह कषाय कहलाती है। ये चार प्रकार की होती हैक्रोध, मान, माया और लोभ । योग मन-वचन-काया के व्यापार प्रवृत्ति अर्थात् हलन-चलन को योग १. प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधयः ॥ तत्त्वार्थसूत्र ८.४ २. मिथ्यात्वदर्शनाविरति प्रमादकषाययोगाबन्धहेतवः ॥ वही, ८,१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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