Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योग : ध्यान और उसके भेद
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स्वरूपावस्थिति विशेष को संयोगीकेवली गुणस्थान कहते हैं । संयोगकेवली को जिन, जिनेन्द्र ओर जिनेश्वर भी कहा जाता है।
(१४) अयोगोकेवली गुणस्थान
इस गुणस्थान में योगों का पूर्णतः अभाव हो जाता है। इससे उन्हें अयोगीकेवली कहा जाता है । इस गुणस्थान का काल अ, इ, उ, ऋ और लु इन पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण काल प्रमाण है। इतने ही भीतर वे वेदनीय आयु, नाम और गोत्रकर्म की सत्ता में स्थित प्रकृतियों का क्षय करके शुद्ध निरजंन सिद्ध होते हुए सिद्ध स्थिति में प्रतिष्ठित होते हैं। ये अनन्त असीम सुख के स्वामी बन जाते हैं । क्योंकि इस गुणस्थान में योग विशेष रूप से नष्ट हो जाता है। इसलिए इसे अयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं।
इस तरह शीलसम्पन्न, निरुद्ध, अशेष आस्रव, सभी कर्मों से विमुक्त और योग रहित साधक के ये चतुर्दश गुणस्थान होते हैं। योग और गुणस्थान का सम्बन्ध
जैनदर्शन में मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का नाम योग है। और इसे बन्धन का कारण भी माना गया है क्योंकि उससे कर्मों का आश्रव होता है। मन और वचन के चार-चार तथा काय के सात भेद मिलाकर योग के १५ प्रकार होते है -
१. समवायांगसूत्र, समवाय १४ तथा मिला० कर्मग्रंथ, २, पृ० ४१ तथा-असहायणाणदंसणसहिओ इदि केवली हु जोगेण ।
जुत्तोत्ति सजोगजिणो अणाइणिहणारिसे उत्तो। गो० जीव काण्ड,
गा० ६४ २. समवायांगसूत्र, पृ० ४१ से ४४ तथा कर्मग्रन्य, भाग २, पृ० ४३ ३. सीलेसिं संपनो णिरुद्ध णिस्सेस-आसवो जीवो ।
कम्मरयबिप्पमुक्को गयजोगी केवली होदि ।। गो० जीवकाण्ड, गा० ६५ ४. तत्त्वार्थसूत्र, ६.१ ५. वही, ६.२ ६. कर्मग्रन्थ, भा० ४, पृ० ६०-६१ तथा गोम्मट्टसार, जीवकाण्ड, गा० ३४
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