Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण
263 आचार्य श्रुतसागरसूरि ने इन लेश्याओं को एक दृष्टान्त के द्वारा यों समझाय है
आम के फल खाने के लिए छः पुरुषों के छह प्रकार के भाव होते हैं इनमें से एक आम खाने के लिए पेड़ को जड़ से उखाड़ना चाहता है। दूसरा पेड़ को पीड़ से काटना चाहता है । तीसरा फलों के लिए डालियां मात्र काटने की इच्छा व्यक्त करता है। चाथा इनमें से फलों के गुच्छों को तोड़ना चाहता है जबकि पांचवा केवल पके-पके फलों को तोड़ने को बात सोचता है । छठा परमतृप्त है। यह नीचे गिरे हुए फलों को खाने की सोचता है। ऐसे ही भाव कृष्ण आदि लेश्याओं के परिणाम वाले जीवों के होते हैं।
स्वर्ग एवं नरक में लेश्या
देवों में क्रमश: पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएं होती हैं। पहले चार स्वर्गों में पीत, पांच से दशवे स्वर्ग तक तीन कल्पयुगंलों में पद्म और ग्यारहवें से लेकर सर्वार्थ सिद्धि तक के देवों में शक्ल लेश्या होती है। इस तरह ऊपर-ऊपर के देवों की लेश्या निर्मल होती जाती है ।
नारकियों में लेश्या अशुभ-अशुभतर होती है। प्रथम एवं द्वितीय नरक में कापोत, तृतीय वालका प्रभा में कापोत और नील, पंक प्रभा नामक चौथे नरक में नील लेश्या, पांचवें धूम-प्रभा में नील और कृष्ण, तम प्रभा में कृष्ण तथा सातवें महातम प्रभा में परम कृष्ण लेश्या होती है । यद्यपि ये अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती हैं परन्तु जहां जिस लेश्या के जितने अंश बतलाये गये हैं उन्हीं के अन्तर्गत परिवर्तन होता है। नारकी लेश्या से लेश्यान्तर नहीं होते ।
लेश्या और ध्यान
आर्त और रौद्रध्यान में कापोत, नील और कृष्ण ये तीन लेश्याएं होती हैं। रौद्रध्यानी जीव में तीव्र और संक्लिष्ट परिणामी लेश्याएं होती
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१. उम्मूलखंध साद्यगुच्छा चूणिऊण तय पडिदादो।
जह एदेसि भावा तहविध लेस्सा मुणेयन्वा ॥ पंचसंग्रह १.१६२ २. दे० तत्त्वार्थवार्तिक, ४.२२, पृ० २३७
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