Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 318
________________ योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण 261 असंख्य संस्थान और जीवोदयनिष्पन्न होती है। यह भावलेश्या आत्मा का अध्यवसाय अथवा अन्तःकरण की प्रवृत्ति है । यह लेश्या सुगति और दुर्गति का हेतु बनती है। अतः लेश्याओं का भाव को अपेक्षा अधिक महत्त्व है। (१) कृष्ण-लेश्या आश्रवों में प्रवृत्त, गुप्तियों-मन वचन काय के संयम का जो पूर्णपालन नहीं करते, जो षट्काय के जीवों की हिंसा में रत हैं, ऐसे तीव्र आरम्भ परिणत क्षुद्र, साहसी, निर्दयी, क्रूर और अजितेन्द्रिय पुरुष की कृष्ण लेश्या होती है। कृष्णलेश्या वर्ण से स्निग्ध, अञ्जन ओर नेत्र को तारिका के समान अत्यन्त काली होती है। रस, गन्ध और स्पर्श की अपेक्षा यह अत्याधिक कड़वी, दुर्गन्धयुक्त और कर्कश होती है । इसको जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक मुहूर्त अधिक तैतीस सागर की होती है। (२) नील-लेश्या जो कदाग्रही, ईर्ष्यालु, मायावी, निर्लज्ज विषयासक्त, द्वेषी, प्रमादी और रस लोलुप हैं, वह नील-लेश्या का धारक होता है ! यह नील-लेश्या स्निग्ध वैडूर्यमणि के तुल्य वर्ण वाली होती है। रस में अत्यधिक कटु है । गन्ध एवं स्पर्श में कृष्णलेश्या के समान होती है। इस लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दश सागर की होती है। (३) कापोतलेश्या ___ कापोतलेश्या का धारक वचन से वक्र, दुराचारी, कपटी, सहृदयताहीन, अपने दोषों को ढकने वाला परिग्रही, मिथ्यादृष्टि, अनार्य मर्मभेदक, १. दे० लेश्याकोश २. उत्तराध्ययनसूत्र, ३४.२१-२२ ३. वही, ३४.१-४ ४. वही, ३४.१८ ५. वही, ३४.२४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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