Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 319
________________ 262 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का -मीक्षाकत्म अध्ययन चोर और स्वयं अपने में जलने वाला होता है ।। यह रस में अधिक कली और वर्ण में कुछ काला और लाल से मिश्रित होती है। रस गन्ध और स्पर्श से यह पहले जैसी ही होती है। इसकी जघन्य स्थिति अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर की होती है। (४) तेजोलेश्या जो स्वभावतः नम्र, निष्कपट, अचंचल, विनीत, इन्द्रियवशी, स्वाध्याय एवं तप में रत, दृष्टि में ऋजु पापभीरु और हितैषी होता है । उसे ही पौदगलिक तेजोलेश्या होती है। इस लेश्या का वर्ण दीपक की लौ के समान लाल होता है । यह रस में पके हुए आम के रस की तरह मीठी, पुण्य की तरह सुगन्धित और कोमल स्पर्श वाली होती है। (५) पद्मलेश्या जो व्यक्ति प्रसन्नचित है और जिसमें कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ की मात्रा स्वल्प है। जो जितेन्द्रिय एवं अल्प भाषी, योगी है, वह पद्मलेश्या का धारक होता है। रस में यह कसैली और सुगन्धित होती है । इसकी जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति मुहूर्त अधिक तैतीस सागर की होती है। (६) शुक्ललेश्या जो खोटे ध्यान से रहित धर्म्य और शुक्ल ध्यान का धारक है। जितका चित्ल प्रशान्त और इन्द्रियां पूर्ण रूप से वश में है। जो समिति और गुप्ति का धारक सरागी अथवा वीतरागी है उसे शक्ल लेश्या होती है । शक्ललेश्या का वर्ण शंख के समान श्वेत होता है। यह रस से मीठी और सुगन्ध वाली लेश्या होती है। जघन्य स्थिति इसकी अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट मुहूर्त अधिक तैतीस सागर की होती है।' १. उत्तराध्ययन सूत्र, ३४,२५-२६ २. वही, ३४.३६ ३. दे. वही, ३४.२१-३२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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