Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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266 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
समयसार के अनुसार समस्त नयों के पक्षों से रहित जो कुछ कहा गया है, वह सब समयसार है। इसे ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान जानना चाहिए।
(२) सम्यग्ज्ञान :
सब द्रव्य, गुण और पर्यायों का बोध ही ज्ञान है-'दव्वाण य गुणाण य पज्जवाणं च सव्वेसि नाणं नाणीहि देसियं । प्रवचनसार में कहा है कि जो जानता है वही ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शनपूर्वक ही होता है । सम्यग्दर्शन के द्वारा जिन तत्त्वों पर श्रद्धा अथबा विश्वास किया जाता है, उनको विधिवत् जानने का प्रयत्न करना ही सम्यग्ज्ञान है। निश्चयनय की दृष्टि से अपने को जान लेना सम्यग्ज्ञान है ।।
जैनदर्शन में ज्ञान पांच प्रकार का स्वीकार किया गया है । वे हैंमति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान
तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं । ओहोनाणं तइयं मणनाणं च केवलं ।।
मतिज्ञान :
यह इन्द्रियज्ञान है ।' मतिज्ञान के और भो अनेक भेद आचार्यों ने किए हैं। इसके लिए तत्वार्थसूत्र और उसका टीकाओं को देखना चाहिए। जो अर्थाभिमुख नियत बोध है, उसे आभिनिबोधिकज्ञान भी कहा जाता है । यह मतिज्ञान का अपर नाम है।
१. लमयसार, गा० १४४; २. उत्तराध्ययनसूत्र, अ० २.८४ ३. जो जाणादि सो णाणं । प्रवचनसार गा० ३५ ४. नाणेण जाणई भावे । उत्तरा० सू० अ० २८.३५
तथा मिला० स्वापूवार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । प्रमेयरत्न माला, गा०१ ५. आपरूम को जानपनौ सो सम्यग्ज्ञान कला है । छह छाला, ३.८ ६. उत्तराध्ययय सूत्र, अ० २८.५ ७. तदिन्द्रिायाऽनिन्द्रियनिमित्तम् । तत्वार्यसूत्र १.१४ ८. अत्याभिमुहो नियओ बोहो जो सोमओ अभिनिबोहो
प्रशमरति, भाग-२, पृ० ५७ पर उद्धृत Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only
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