Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योग : ध्यान और उसके भेद
वरण कषाय का अभाव होने से पूर्व संयम तो हो जाता है किन्तु संज्वलन आदि कषायों के उदय से संयम में दोष उत्पन्न करने वाले प्रमाद के होने से इसे प्रमत्तसंयत कहते हैं ।"
इस गुणस्थान में साधक साधना की उत्कृष्ट अवस्था में पहुंचने के कारण चौदह पूर्व का धारी तो बनता ही है और साथ ही उसे आहारकलब्ध को भी प्राप्ति हो जाती है । "
छठे प्रमत्तसंयत और सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में इतना ही अन्तर है कि छठे गुणस्थान में प्रमादयुक्त होने से साधना में अतिचारआदि दोष लगने की सम्भावना रहती है जबकि सातवें गुणस्थान में अंशमात्र भी प्रमाद नहीं रह जाता है । इसीलिए इसका नाम भी अप्रमत्तसंयत है । ये दोनों गुणस्थान एक समय में नहीं होते, किन्तु गति सूचक यन्त्र की सुई की भांति अस्थिर रहते हैं अर्थात् कभी सातवें से छठा और कभी छठे से सातवां गुणस्थान क्रमशः होते रहते हैं । "
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अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की समय स्थिति जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक की होती है । उसके बाद वे अप्रमत्त मुनि या तो आठवें गुणस्थान में पहुंचकर उपशम क्षपक श्रेणी में हैं याकि फिर छठे गुणस्थान में ही रहते हैं । "
इस छठे और सातवं गुणस्थान के स्पर्श से जो साधक विशेष प्रकार की विशुद्धि प्राप्त करके उपशम या क्षपकश्रेणी में पहुंचता है, उसे अपूर्वकरण या निवृत्तिबादर नामक आठवां गुणस्थान कहा जाता है, क्योंकि इसमें अत्रमत्तसाधक की अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्यख्यानावरण और सज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन बादर कषायों की निवृत्ति हो जाती है ।
यद्यपि उपशन और क्षपक श्रेणियों का प्रारम्भ नौवे गुणस्थान में होता है फिर भी उनकी आधार शिला इसी आठवें गुणस्थान निवृत्ति
दे० कर्मग्रंथ, भाग - २, पृ० २६
१.
२. वही, पृ० २७
३. वही, पृ० २८.
४,
वही,
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