Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेपण
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अव्यय, नित्य, ध्र व और शाश्वत भी माना है।'
भगवान् बुद्ध ने रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान, चक्षु आदि इन्द्रियां, उनके विषय और ज्ञान, मन, मानसिकधर्म और मनोविज्ञान इन सब पर एक-एक करके विचार किया और सब को अनित्य और अनात्म की संज्ञा दी है । वे श्रोताओं को कहते हैं कि आत्मा जैसी कोई वस्तु ढूंढने पर भी नहीं मिल सकती । अतः आत्मा नहीं है।
भगवान् बुद्ध ने रूपादि सभी वस्तुओं को जन्य माना है और यह व्याप्ति बनाई हैं कि जो जन्य है, उसका निरोध आवश्यक है। अतः बौद्धमत में अनादि अनन्त आत्मतत्त्व का कोई स्थान नहीं है।
बुद्ध केवल इतना ही प्रतिपादित करते हैं कि प्रथम चित्त था। इसीलिए दूसरा उत्पन्न हुआ, उत्पन्न होने वाला वही नहीं है और उससे भिन्न भो नहीं है, किन्तु वह उसको धारा में ही है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बुद्ध का उपदेश था कि जन्म जरा, मरण आदि किसी स्थायी ध्र व जीव के नहीं होते किन्तु वे सब अमुक कारणों से उत्पन्न होते हैं।
इतना होते हुए भी बुद्धमत की दृष्टि में जन्म, जरा, मरण इन सबका अस्तित्व तो है परन्तु बौद्ध यह स्वीकार नहीं करते कि इन सब का स्थायी आधार भी है । तात्पर्य यह है कि बुद्ध को जहां चार्वाक का देहात्मवाद अमान्य है वहीं उपनिषद् सम्मत सर्वान्तर्यामी नित्य, ध्र व, शाश्वत-स्वरूप आत्मा भी स्वीकार्य नहीं है। (क) जैन दर्शन में आत्मा ___जैन दर्शन द्वैतवादी है। वह जीव और अजीव थे दो प्रमुख तत्त्व मानता है। अजीव जड़तत्त्व है जबकि जीव चैतन्य । जैन जीव को १. कठोपनिषद्, ३.२, वृहदा० ४.४.२०, श्वेता० १.६ इत्यादि २. संयुक्तनिकाय १२.७० तथा ३२-३७
दीर्घनिकाय, महनिदान सुत्त १५, एवं विनयपिटक, महाग्ग १.६.३८-४६ ३. यकिचि समुदयधम्म सव्वं तं निरोधधम्म । महावग्ग १.६.२६
सब्बे सङ्घारा अनिच्चा, दुक्खा, अनत्ता ॥ अंगुत्तर निकाय तिकनिपात १३४ ४. संयुत्तनिकाय १२-३६, अंगुत्तर निकाय, ३, विशुद्धिमग्ग, १७.१६१-१७४
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