Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण
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सोना ही रहता है, केवल उसके नाम और रूप में अन्तर पड़ जाता है, वैसे ही चार गतियों और चौरासी लाख जीव योनियों में भ्रमण करते हुए आत्मा की पर्याय बदलती रहती हैं । उसके नाम और रूप परिवर्तित होते हैं, किन्तु जीवद्रव्य सदैव वैसा का वैसा ही रहता है ।।
आत्मा शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित है, वह अमूर्त है और अरूपी सत्ता वाला है। अमूर्त होने के कारण वह इन्द्रियों और मन के द्वारा नहीं जाना जा सकता । अतः अतीन्द्रिय है। आत्मा का कर्तृत्व
जैन दर्शनानसार मानव जीवन में जो सूख-दुःख, ऊंच-नीच, छोटाबड़ा, अमीर-गरीब की जो विचित्रता दिखाई देती है। उसका कारण कोई अन्य शक्ति न होकर स्वयं मानव शरीर में विद्यमान उसका आत्मा ही है । अपने पूर्वजन्म में आत्मा जैसे-जैसे कर्म करता है, वैसे-वैसे ही परिणामों का यहां उसे भुगतान भी करना पड़ता है। कर्मों से बन्धा जीव अमूर्त होते हुए भी मूर्त शरीर को धारण करके अन्य सुख-दुःख आदि को भोगता है । कर्मों से बन्धा हुआ यह आत्मा ही वेतरणी नदी का रूप लेता है और यही कूटशाल्मलीवृक्ष भी होता है। आत्मा ही कामदुहा धेनु है और नन्दनवन भी यही आत्मा है ।।
___अतः जैन दर्शन में कर्मसिद्धान्त का जितना सूक्ष्म एव विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। इसके प्रमाण के रूप में जैन दर्शन में उपलब्ध विपुल व मीसद्धान्त साहित्य को देखा जा १. दे० जैनतत्त्वकलिका. आत्मवाद, पृ० ११६ २. दे० आचारांगसूत्र, श्रुतस्कन्ध १, अ० ५, ३, ६ सूत्र ५६३-६६ ३. नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावादिय होइ निच्चं । उत्तरा० १४.१६ ४. (क) कम्मुणा उवाही जायइ । आचारांगसूम १.३.१ ।।
(ख) एको दरिद्रो एकोहि श्रीमानिति च कर्मणः ।। पंचाध्यायी, २.५० (ग) कम्मओ णं मन्ते । जीवे नो अकम्मओ दिमुत्तिभावं परिणमई ॥
भगवतीसूत्र १२.१२० (घ) अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुप्प ट्ठिओ ॥ उत्तरा० २०.३७ ५. अप्पा नईवेयरणी, अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदुहा धेणु, अप्पा मे नन्दनं दणं ।। उत्तरा० २०,३६
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