Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 297
________________ 240 योविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन उपशमश्रेणी वाला जीव दशवेंगुणस्थान के अन्तिम समय में सूक्ष्म लोभ का उपशमन करके इस गुणस्थान में आता है और मोहकर्म की सभी प्रकृतियों का पूर्ण उपशम कर देने से यह उपशान्तमोह गुणस्थान वाला कहा जाता है। इसका काल लघु अन्तर्मुहर्त प्रमाण है । इसके समाप्त होते ही वह नीचे गिरता हुआ सातवें गुणस्थान को प्राप्त होता है । यदि उसका संसार परिभ्रमण शेष है, तो वह मिथ्यात्व गुणस्थान तक को प्राप्त कर सकता है । (१२) क्षीणमोह गुणस्थान क्षपकश्रेणी पर चढ़े हुए दसवें गुणस्थानवी जीव उसके अन्तिम समय में सूक्ष्म लोभ का भी क्षय करके क्षीण मोही होकर बारहवें गुणस्थान में पहुंचता है क्योंकि उसका मोहनीयकर्म सर्वथा नष्ट हो जाता है। अतः उपका क्षोगमोहास्थान' यह नाम सार्थक है। इस गणस्थान का काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । साधक इसमें ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण कर्म की नौ और अन्तराय कर्म की पांच इन उन्नीस प्रकृतियों की असंख्यात गणी निर्जरा प्रतिसमय करता है और अन्त में सब का पूर्णरूप से क्षय करके केवल-ज्ञान-दर्शन का लाभ करता है और तेरहवें गुणस्थान को धारण कर लेता है। गोम्मट्टसार के अनुसार जब साधक का चित्त मोहनीयकर्म से सर्वथा मुक्त हो आता है तब वह स्फटिक के निर्मल पात्र में रक्खे हुए जन के समान विशुद्ध हो जाता है । उसकी इसी स्थिति को क्षीणमोह अथवा क्षोणकषाय नामक बारहवां गुणस्थान कहते हैं । (१३) सयोगीकेवली गणस्थान इस गुणस्थान में केवली भगवान् के योग विद्यमान रहते हैं । यद्यपि वे इस गुणस्थान में घातीय चार कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय ओर अन्तराय) का क्षय करके केवलज्ञान-केवलदर्शन को प्राप्त कर चुके हैं फिर भी योग का प्रयोग होने से वे संयोगकेवली ही कहे जाते हैं। इस १- दे० कर्मग्रंथ, भाग-२, पृ० ३७ २. समवायागसूत्र समवाय १४, तया मिला० कर्मग्रंय, भाग-२, पृ० ४० ३. गिस्सेसरवीणमोहो फलिहामलमायणुदयसमचित्तो। खीणकसाओ भण्गदि, णिग्गयो वीयरायहि ॥ गो० जीवका०, गा० ६२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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