Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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164 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन (७) अशुचिभावना
अशुचिभावना के अन्तर्गत साधक शरीर के अन्दर रही हुई आसक्ति को क्षय करता है । शरीर चाहे बाहर से देखने पर सुन्दर और आकर्षक दिखाई पड़ता हो किन्तु जैसे यहां आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि यह शरीर तो अनेक दुर्गन्धित पदार्थों से भरा हआ है। यह रक्त, मांस, मज्जा एवं मल मूत्र आदि से लिपटा हुआ है। अतः शरीर के प्रति ममत्व अथवा प्रेमभाव रखना मुर्खता है। जब इस शरीर में मल मुत्रादि अशुचि पदार्थ भरे हुए हैं तो यह आत्मा पवित्र कैसे हो सकता है ?
यह शरीर अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक पदार्थ को भी वैसे ही अपवित्र बना देता है जैसे लवण सागर में पड़ते ही प्रत्येक वस्तु लवणमय हो जाती है, ऐसे ही इस शरीर में जो भी पदार्थ डाला जाता है वह भी दुर्गन्धमय हो जाता है, यही इसकी अशुचिता है।
भगवतीसूत्र में शरीर की अशुचिता का वर्णन करते हुए बताया है कि यह शरीर दुःखों का घर है। यह हजारों रोगों का उत्पत्ति स्थल है। यह हड्डियों के आधार पर टिका है। नाड़ियों और नसों से जकड़ा हुआ है। मिट्टी के कच्चे घड़े के समान कमजोर भी है। अशुचिमय पदार्थों से पूर्ण तथा जरा (बुढ़ापे) और मृत्यु से घिरा है, सड़ना गलना इसका
१. असग्मांजवसाकीर्ण शीर्ण कीकसपंजरभ ।
शिराद्धं च दुर्गन्धं क्व शरीरं प्रशस्यते ।। ज्ञानार्ण, सर्ग २, अशुचि भावना,
श्लोक २ २. रसासृग्सांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रान्त्रवर्चसाम् ।
अशुचीनां पदं कायः शुचित्वं तस्य तत्कुतः ॥ योगशा०, ४.७२ ३. लवणाकरे पदार्था पतिता लवणं यथा भवतीह । काये तयामलास्युस्तदसावशु चिसदाकायः ॥
प्रवचनसारोद्वार द्वार ६७, अशु चि भावना श्लोक १ तथा मिला०क' रकुकुमागुरुमृगमदहरिचन्दनादिवस्तूनि। भव्यान्यपि संसर्गान्मलिनयति कलेबरं नृणाम् ।। ज्ञानार्ण सर्ग २, अशुचि भावना, श्लोक १२
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