Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
सव्वट्ठाणाइं असासयाई इह चेव देवलोगे य ।
सुरअसुरनाईणं सिद्धिविसेसासुहाइं च ।। (३) अशुभानुप्रेक्षा ___संसार के अशुभ स्वरूप पर विचार करना अशुभानुपेक्षा है, जैसे यह सर्वांग सुन्दर रूप से गर्वित मनुष्य मर कर स्वयं अपने हो कलेवर में कृमि के रूप में उत्पन्न होता है ऐसी भावना के चिन्तन का नाम अशुभानुप्रेक्षा है
धीसंसागे जम्भि जुवाणओ परमरुवगविओ।
मरिऊण जायई किमतित्थेव कडेवरे नियए ।। (४) अपायानुप्रेक्षा
आस्रवों से होने वाली हानि जीवों को दुःख देने वाले घोर आतघोर संकट में डालने वाले उपायों का चिन्तन करना अपायान्प्रेक्षा है। अत: वश में नहीं किया हुआ क्रोध और मान, बढ़तो हुई माया और लोभ ये चार कषायें संसार एवं पुनर्जन्म के मूल को सींचने वाली हैं। ऐसी एकाग्र विचार धारा ही अपायानुप्रेक्षा है
कोहो य माणो य अणिग्गहीया माया य लोहो य पवड्ढमाणा ।
चत्तारिएएकसिणा कसाया, सिंचति मूलाइ पुणब्भवस्स ॥ शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों में श्रतुज्ञान का यथासम्भव आलम्बन लेना ही होता है । अतः इन्हीं दो में अनुप्रेक्षाओं की उपयोगिता होती है। शुक्लध्यान में लेश्या
प्रथम दो शुक्ल ध्यानों में शुक्ललेश्या और तृतीय शुक्लध्यान में परमशुक्ललेश्या होती है, जबकि चतुर्थ शुक्लध्यान लेश्या से रहित होता
१. दे० वही, २. स्थानागसूत्र, पृ० ६६२ पर उद्धत गाथा ३. वही ४. सुक्का लेसाए दो, ततियं पुण परमसुक्क लेसाए।
थिरयाजियसेलेसं लेसाहयं परमसुक्कं ॥ ध्यान शतक, गा० ८६
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