Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योग : ध्यान और उसके भेद
सन्तोष है | आत्मस्वरूप में अवस्थित होने के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को पाने की इच्छा न करना ही सन्तोष है । जब आत्मा में ऐसी परिणति हो जाती है तब शुक्लध्यान के प्रासाद पर आरोहण करने के लिए सन्तोष सोपान की तरह आलम्बन बन जाता है ।
शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षाएं
शुक्लध्यान को सार्थकता अनुप्रेक्षा के साथ है। दर्शन में निदिध्यासन कहते हैं । अनुप्रेक्षा से श्रुतज्ञान परिणत हो जाता है और परमानन्द की अनुभूति होने से कर्मों की महान् निर्जरा होती है । शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षाएं हैं(१) अनन्ततितानुप्रेक्षा, (२) विपरिणामांनुप्रक्षा, (३) अशुभानुप्रेक्षा और (४) अपायानुप्रेक्षा । ये चार अनुप्रेक्षाएं आती हैं ।
इसी को वैदिकविज्ञान के रूप में लगती है । इन्हीं
(१) अनन्तवतितानुप्रेक्षा
इस संसार चक्र से आत्मा ने अनन्त बार जन्म मरण किए हैं, क्योंकि संसार भी अनादि है और आत्मा भो अनादि है । इस संसार सागर से पार होना अत्यन्त दुष्कर है । आत्मा अनन्त बार भव भ्रमण कर चुका है । इस प्रकार के चिन्तन अथवा भावना का नाम ही अनन्तवतितानुप्रेक्षा है-
एसअाइ जीवो संसारो सागरोव्व दुत्तारो । नारयतिरियन रामरभवेसु परिहिंडए जीवो ||
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(२) विपरिणामानुप्रेक्षा
वस्तुओं के परिणमन पर विचार करना जैसे कि संसार और देवलोक के सभी स्थान विनाशशील हैं । उत्तम भौतिक ऋद्धि और सुख सभी अनित्य हैं, इत्यादि विपरिणमनरूप चिन्तन को विपरिणामानुप्रेक्षा कहते हैं
१. सुक्कस्सणंझाणास्स चत्तारि अणुप्पेहा पण्णत्ता, तं जहा उ तवत्तयाणुप्पेहा, विपरिणामाणुप्पेहा, असुभाणुप्पेहा, अपायाण प्पेहा । सनांगसूत्र, सूत्र १२, पृ० ६७६ तथा भगवतीसूत्र शतक २५ उद्देशक ७; औपपातिकसूत्र ३०, तपोधिकार
२. दे० स्थानांगसूत्र, पृ० ६९२ पर उद्धृत गाथा
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