Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 279
________________ 222 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन नतमस्तक हो जाता है । सभी उनके धर्म प्रवचनों-उपदेशों को अपनीअपनी भाषा में समझते हैं। वे जहां भी जाते हैं वहां किसी भी प्रकार का दुःख, महामारी अथवा दुर्भिक्ष आदि नहीं होते। ऐसे केवललब्धि प्राप्त तीर्थङ्कर देव सहज रूप से स्व-पर कल्याणकारी होते हैं। तीर्यकर नामकर्म के उदय के कारण उन्हें अनेक देव देवाङ नाएं आकर वन्दना करने लगते हैं। उनके उपदेश श्रवण के लिए देवों द्वारा वृहद समवशरण की रचना की जाती है । पशु-पक्षी सभी आपसी वैर-भाव छोड़कर उनक पास एक स्थान पर बैठते हैं और सभामण्डप के मध्य में स्थित तीकर्थर भगवान् चार शरीर के रूप में (चतुम ख) दिखाई देते हैं। यद्यपि इन्हें अनेक अन्य लब्धियों भी प्राप्त होती हैं, परन्तु उनका भोग करने को उनकी इच्छा नहीं होतो।। जिन साधकों के तीर्थङ्कर नाम कर्म का उदय नहीं होता, वे भो अपने इस ध्यान के बल से केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं। आयुष्कर्म के नि:शेष क्षय होने तक ये साधारण जोवों को उपदेश देते हैं ओर अन्त में आयु के क्षय होने पर निर्वाण प्राप्त करते हैं। इस प्रकार चाहे तीर्थकर हों अथवा सामान्य केवली, जिन्होंने योग के चरमोत्कर्ष को प्राप्त कर लिया है, वे विशुद्ध आत्मा परमात्मा हैं और वे ही हम सभो के ध्यातव्य (३) सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति चोदहवें गुणस्थान में प्रवेश करने से पूर्व आयष्कर्म के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर जब केवली भगवान् मन और वचन इन दो योगों का सर्वथा निरोध कर लेते है, और उनके काययोग का भी निरोध हो जाता है, तब उस समय केवली भगवान् की कायिको उच्छ्वास आदि सूक्ष्मक्रिया ही रह जाती हैं। उनके इस योग का क्रम है कि पहले स्थूल काययोग के आश्रय से मन और वचन के स्थूल योग को सूक्ष्म बनाया जाता है । उसके बाद मन और ववन के सूक्ष्मयोग का आलम्बन करते हैं। मन और वचन के सूक्ष्मयोग का भी जब निरोध कर लिया जाता है, तब वह सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान पूर्ण होता है। यह क्रिया १. दे० यो० शा० ११.२४-४४ २. तीर्थङ्कर नाम संतं न यस्य कर्मास्ति सोऽपि योगबलात् । उत्पन्न केवलः सन् सत्यायु षि बोधयत्युर्वीम् ॥ यो शा० ११.४८ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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