Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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योग : ध्यान और उसके भद
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तेरहवें गुणस्थान की है।
यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि जब कभी वेदनीय नाम और गोत्रकर्मों की स्थिति आयु कर्म से अधिक होती है, तब वे तीर्थङ्कर अथवा सामान्य केवली, वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म को आयष्कर्म के समान के लिए समदरात क्रिया करते हैं. जिससे केवली तीन समय में अपने आत्मप्रदेशो को दण्ड, कपाट एवं प्रस्तर के रूप में फैला देते हैं और चौथे समय में सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं। लोक में अपने आत्मप्रदेशों को याप्त करके योगी तीनों घातिया कर्मों (वेदनीय, नाम और गोत्र) की स्थिति घटाकर उन्हें आयुकर्म के बराबर कर लेते हैं। तत्पश्चात् उसी क्रम में वे आत्म प्रदेशों को पूर्ववत् शरीर में प्रविष्ट कर अवस्थित होते हैं । इस प्रकार समुद्घातक्रिया पूर्ण हो जाती है। ___समुद्घात करने के पश्चात् आध्यात्मिक विभूतियों से सम्पन्न तथा अचिन्तनीय वीर्य से युक्त वह योगी बादरकाययोग का अवलम्बन करके बादरवचनयोग और बादरमनोयोग का शीघ्र निरोध कर लेते हैं। फिर सूक्ष्मयोग में स्थित होकर बादरकाययोग का निरोध करते हैं क्योंकि बादर काययोग का निरोध किए बिना सूक्ष्मकाययोग का निरोध सम्भव नहीं है। अनन्तर सूक्ष्मकाययोग के अवलम्बन से सूक्ष्ममनोयोग और सूक्ष्मवचनयोग का भी निरोध हो जाता है इसके बाद सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्मक्रिया नामक तीसरा शुक्लध्यान धारण किया जाता है।'
इस ध्यान में योगी को मोक्ष प्राप्ति का समय समीप आ जाने पर तीन योगों में मनोयोग एवं वचन का निरोध होकर भी केवल सुक्ष्मकाययोग की क्रिया अर्थात् श्वासोच्छवास ही शेष रहता है । इस प्रकार इसमें १. स्थानाँगसूत्र, व्याख्या, पृ० ६८६ तथा
मिला०-ध्यान ३० गा० ८१; ज्ञाना० ४२.४२, यो०शा० ११.४६ २. यदायुरधिकानि स्यु : कर्माणि परमेष्ठिनः ।
समुद्घातविधिं साक्षात्प्रागेवारभते तदा ।। ज्ञाना० ४२.४३ तथा--आयुः कर्मसकाशादधिकानि स्युर्यदान्यकर्माणि ।
तत्साम्याय तदोपक्रमते योगी समुद्घातम् । यो० शा० ११.५० ३. ज्ञानार्णव ४२.४६, ४७; यो०शा० ११.५१-५२ ४. ज्ञानार्णव ४२.४८-५१; योग शा० ११.५३-५५ ५. योगशा० ११.८ तथा अध्यात्मसार, ५.७८
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