Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
View full book text
________________
224
योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
मन, वचन एवं काय का निरोध होता है और काययोग के अन्तर्गत केवल श्वांस जैसी सूक्ष्मक्रिया ही अवशिष्ट रहती है। साधक योगी अन्तिम समय में इसका भी त्याग करके मुक्त हो जाता है ।। (४) उत्सन्न क्रियाप्रतिपाति
__यह ध्यान चौदहवे गुणस्थान से होता है। इसमें उपर्युक्त ध्यान की अवशिष्ट सूक्ष्मक्रिया की भी निर्वृत्ति हो जाती है तथा अ, इ, उ, ऋ, ल इन पांच हव स्वरों का उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय में केवलो भगवान् शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं, जहां वे पवन की भांति निश्चल रहते हैं। यहां पर केवलज्ञानी उपान्त्य म ७२ कर्म प्रकृतियों तथा इसके भो अन्तिम समय में अवाशष्ट १३ कर्म प्रकृतियों को भी नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार समस्त कर्मों का नाश करके केवली भगवान् इस संसार से पूर्णतः अपना सम्बन्ध समाप्त कर लेते हैं और सीधे ऊध्वगमन करके लोक के शिखर सिद्धशिला पर विराजमान हो जाते हैं कारण कि उससे आगे लोकाकाश नहीं है और न ही धर्मास्तिकाय हो है। अतः आगे गति नहीं है। यह सिद्ध परमात्मा लोक के शिखर पर अवस्थित होकर स्वाभाविक गुणों के वैभव से परिपूर्ण अनन्तकाल तक रहता है ।। शुक्लध्यानो के लक्षण
जो मुमुक्षु शुक्लध्यान में अवस्थित है, उसकी पहचान कैसे हो सकती है, इसकी जानकारी के लिए आगम संग्रह कर्ताओं ने चार लक्षण बतलाए हैं । वे हैं -(१) अपीड़ित (२) असम्मोह (३) विवेक्युक्त १. समानांगसूत्र व्याख्या, पृ. ६८९ २. योगशा० ११.५६-५७ ३. ज्ञानार्णव, ४२.५२ एवं ५४ ४. अवरोधविनिमुका लोकाग्रं समये प्रभः ।
धर्माभावे ततोऽपूर्वगमनं नानुमीयते ॥ धर्मोगतिस्त्रभावोऽयमधर्मः स्थिति लक्षणः ।
तयोर्योगात्पदार्थानां गतिस्थिती उदाहृतः ॥ वही, ४२.६०-६१ __ सक्कस्सण झाणस्म चत्तारिलक्खणापप्णत्ता, तं जहा-अव्वहे, असम्मोहे, विवेगे, विउस्सग्गे । स्थानांगसूत्र १२, पृ० ६७६ तथा भगवतीमूत्र शतक २५, उद्देशक ७, औपपातिकसूत्र ३० तपोधिकार
____Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org